गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

नंगे आप हैं, pk नही

पीके के बारे में 3 बार ड्राफ्ट लिखकर डिलीट करने के बाद ये चौथा प्रयास है। पीके एक मसाला फ़िल्म है मगर इसमें सारे मसाले वैसे ही डाले गए हैं जैसे लखनऊ की दमपुख्त बिरयानी या मैसूर के इडली सांभर में डाले जाते हैं- कायदे से और करीने से। सस्ते होटलों की औसत डिश को स्पेशल बनाने के लिए जैसे ऊपर से 4 टुकड़ा पनीर डाला जाता है वैसे आइटम नंबर भी नही डाला गया है। राजू हिरानी जैसे अपने किरदारों मुन्ना भाई, वायरस, चतुर, सर्किट को कहावत में बदल चुके हैं वैसे ही पीके भी एक कहावत बनने की काबिलियत रखता है। जादू की झप्पी, आल इज़ वेल, गांधीगिरी की लीक पर इस बार रॉंग नंबर और लुल्ल हो जैसे नारे हैं और omg के साथ ज़बरदस्त तुलना के बाद भी फ़िल्म प्रभावित करती है। फ़िल्म के ऊपर अनगिनत रिव्यु सोशल मीडिया पर आ चुके हैं और फ़िल्म को देख कर कुछ लोग आहत मोड में जा चुके हैं। ऐसे ही आहत बंधुओं ने मुझसे भी अपील की है कि फ़िल्म हमारे धर्म पर सवाल उठाती है और इससे संस्कृति नष्ट हो रही है।

"अगर आप भगवान को देखे है तो हमारी उससे बात कराइये, नही देखे तो कैसे मान ले की वो सही भगवान है।" यही वो प्रश्न है जिससे आपका धर्म खतरे में आया मगर ये प्रश्न तो विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा था। अब विवेकानंद भी पीके थे क्या?

"ये भगवान् को दूध चढ़ाये से क्या फायदा, भगवान को क्या जरूरत इस की?" इस सवाल के आधार पर तो बड़े बड़े स्टेटस लिखे गए हैं संस्कृति के खतरे की। मगर ये सवाल तो एक 8-10 साल के बच्चे ने अपने पिता से पूछा था। वही बच्चा जिसे 5,000 साल बाद लोग कृष्ण के नाम से पूजने लगे हैं।

फेसबुक के पेज, सुनी सुनाई बातों के अधूरे ज्ञान और गाय की फोटो लाइक करने से जिन लोगों को लगता है कि वो धर्म और संस्कृति को थामने के लायक हैं तो उनहे सबसे पहले नर्सरी की क्लास में बैठ कर आसमान गिरने वाली कहानी पड़नी चाहिए फिर विवेकानंद और कृष्ण की जीवनी।(दर्शन पढ़ने लायक स्तर होगा ये कल्पना करना मुश्किल है) जिस गाय की फोटो सुबह आप शेयर कर कर धार्मिक होने का दम्भ फेसबुक कोटि के हिन्दू भरते हैं उसी के लिए विवेकानंद ने कहा था कि अगर दलित अपने पूर्वजन्मों का फल भोग कर नारकीय जीवन जी रहे हैं तो भूखी गाय भी पूर्वजन्म का फलभोग रही है। गाय को रोटी देने से अच्छा है किसी भूखे को रोटी देना। और कृष्ण उन्होंने तो एक पागल बैल की हत्या ही कर दी थी। क्या हुआ? लुल्ल हो गयी? साहब धर्म इतना कमज़ोर नहीं कि एक फ़िल्म से गिर पड़े और इतना गिरा भी नही कि फेसबुक पर 267 लिखे और 89 कमेंट पाकर उठ जाए। वैसे यही बात हैदर के लिए भी कही गयी थी कि इससे "देश की शान्ती को खतरा है" एक औसत दर्जे की चुतस्पाह फ़िल्म के हिट होने से अगर हिन्दुस्तान की शांति चली जाती तो हाफ़िज़ सईद हर साल दो चार फ़िल्में ही रिलीस कर देता। वैसे एक बात और जो लोग बिना देखे या चश्मा लगाकर देख के पीके का विरोध कर रहे हैं उन्हें चाहिए कि एक बार फ़िल्म देखें कि उसमें ईसाई मिशनरी के खिलाफ भी कहा गया है , हाय हुसैन हम ना हुए के मातम पर भी सवाल उठाया गया है और सवाल उठाने पर मार डालने की बात भी उठाई गयी है।

श्रीमान, धर्म फेसबुक नही है और फेसबुक धर्म नही है। और आपको कितना भी थ्रिल्लिंग लगता हो मगर isis के लड़ाकों के साथ रहना, गाज़ा के धमाकों सुनना और सुबह स्कूल भेज कर शाम को अपने बच्चों को ताबूत में लौटते देखने वाला भारत मेरे सपनों का भारत नही है।एक फ़िल्म में एक लाइन बोल देने से खतरे में और किसी नमाज़वाले के लाल टीका लगा लेने से मज़बूत होने वाला धर्म मेरा धर्म नही है। मेरे लिए ये देश वो है जिसके बारे में मैंने बचपन से सुना है कि यहां दुनिया का हर मौसम हर त्यौहार और हर रंग मिलता है जिसकी हस्ती ना कभी मिट पायी थी ना कभी मिट पाएगी।

हिन्दुस्तान में होने का शुक्र मनाते हुए कि यहां प्रेम का सन्देश देने वाले का ना सर कलम होता है, ना सूली पर लटकाया जाता है मेरी क्रिसमस।

© अनिमेष

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

एक बोतल कोल्ड्रिंक और दस रुपये का अपमान

तहलका के आप बीती स्तम्भ में इस बार जो संस्मरण छापा गया है वो संयोग से मेरा है।
शब्द संख्या बढ़ाने के लिए इसमें बाद में 2-3 पंक्तियाँ बढ़ा दी गयीं पर मूल लेख 95℅ वैसा ही है।

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               -दस रूपए और एक गिलास कोल्ड्रिंक-

 

 

जीवन में किसी चीज़ की कीमत उतनी ही होती है जितनी हमारे मन में होती है। बुज़ुर्गों की भाषा में हम इसे 'सब मन का धन है' कहकर भी समझ सकते हैं और बचपन के दिनों में जब गुब्बारे और टॉफी सोने के गहनों से ज़्यादा कीमती होते हैं तब कुछ बातें हमेशा हमेशा के लिए दिल पर छाप छोड़ जाती हैं।

 

बात 90के  दशक के बीच की है और मै उस समय कक्षा 5 या 6 का छात्र था और एक आम मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे की तरह मेरे लिए भी गर्मी की छुट्टी का अर्थ नानी या मौसी के यहाँ कम से कम बीस दिन बिताना ही था। मेरे लिए मौसी का घर बाकी सब जगहों से बेहतर हॉलिडे डेस्टिनेशन था क्योंकि उनके बड़े से घर और जॉइंट फैमिली के कारण वहाँ और कई हमउम्र बच्चे और खेलने की पर्याप्त जगह होती थी।

 

उस साल किसी वजह से मै अकेले ही मौसी के घर झांसी गया था, या यूँ कहें कि मुझे पहुँचा दिया गया था। मौसा जी की तरफ से एक अन्य रिश्तेदार का एक हमउम्र लड़का 'छोटू' भी वहाँ था और हम दोनों की ही छुट्टियाँ wwf और शक्तिमान की चर्चाओं में मज़े से कट रहीं थीं। एक दिन मौसाजी की एक और रिश्तेदार जो उसी शहर के दुसरे कोने में रहती थीं आई और हम दोनों को उनके घर आने का न्योता दे गयीं। मै पहले भी कई बार उनके घर जा चुका था तो कोई समस्या नही थी और छोटू तो उनका सगा भांजा था ही।

 

एक दिन 11 बजे नाश्ता कर के हम दोनों घर से निकले इधर से बेसिक पर फोन कर दिया गया कि बालक आ रहे हैं। रस्ते का नक्शा रटवाकर, बर्फ का गोला खाने के लिए अतिरिक्त 2-2₹ देने के बाद किसी से फालतू बात ना करने की हिदायत दे कर ही हमें छोड़ा गया। जून का महीना, झांसी शहर और आधे घंटे धूप में सफ़र, हम दोनों का क्या हाल हुआ होगा आप समझ सकते हैं।

 

"अरे तुमलोग आ गए", "कितना लंबा होगया है ये", "कुछ खाया कर दुबला हो रहा है" जैसे हर बार दोहराये जाने वाले जुमलों के साथ बाकी के परिवार के साथ मुलाकात हुई। कुछ देर बैठने और बातें करने के बाद वापस चल दिए। वापस पहुँच कर थोड़ी देर सुस्ताकर जब मौसी से कहा खाना लाओ तो मौसी ने चौंककर पूछा,

वहाँ नही खाया?

नही!

मैंने बड़े आराम से कहा।

"पर छोटू(मेरे साथ वाला लड़का) तो बता रहा था कोल्ड्रिंक क्रीम वाले बिस्कुट और चिप्स खाये थे दस रुपए कहाँ हैं जो वहाँ वाली मौसी ने दिए थे?"

एक साँस में मौसी ने जब इतना कुछ पूछा तो समझ आया कि जब बाहर बैठक में हम से बाकी लोग सवाल जवाब कर रहे थे तो उसी समय छोटू के किचन में जाने का क्या अर्थ था। उस छोटी सी उम्र में एक गिलास कोल्ड्रिंक को लेकर ठगा जाना ज़्यादा बुरा नही लगा ना ही उन दस रुपयों के ना मिलने का, जिनसे सुपर कमांडो ध्रुव की 5 और कॉमिक्स किराये पर लाई जा सकती थीं मगर बड़े लोगों के इस छोटे व्यवहार ने एक ही दिन में मुझे थोडा बड़ा बना दिया।

 

उसके बाद साल बीतते गए, छुट्टियाँ कभी प्रतियोगिताओं की तैयारी में बीतने लगीं तो कभी समर कोर्स करने में और धीरे धीरे मौसी के यहाँ जाना भी कम होता गया। आज लगभग 20 साल बीत चुके हैं इस छोटी सी बात को जो ना तो छोटू को याद है, ना मौसी को, ना ही किसी और को मगर उस दिन के बाद से जब कभी भी उस घर में जाने का मौका आया न जाने क्यों मै बस टालता ही रहा। हालाँकि मैंने कई बार कोशिश भी की है इन मामूली चीज़ों को भूल जाऊं और उनके घर भी हो आऊँ मगर हर बार एक सवाल इतना बड़ा हो जाता है कि इसके आगे कोई कुछ सोच ही नही पाता।-

आखिर उस एक गिलास कोल्डड्रिंक और और दस रुपये की कीमत कितनी बड़ी थी?


मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

बनारस टॉकीज़-किस्सा गोई की नयी दास्तान

बनारस यानी रस का शहर, गन्ने का 5rs गिलास वाला रस नही ज़िन्दगी का रस।तभी तो तुलसी के राम और कबीर की चदरिया से लेकर काशी के अस्सी और रांझणा के कुंदन (धनुष) तक हर बार ये शहर किस्सागोई के एक अलग अंदाज़ में सामने आता है।इसी बनारस शहर के अंन्दर बसे एक और शहर यानी BHU और उसके ढेर सारे वकीलों से भरे होस्टल नंबर 26 की कहानी को सामने लेकर आरहे हैं लेखक सत्य व्यास। इनकी किताब बनारस टॉकीज़ अगले महीने बाज़ार में आएगी मगर इसका एक ख़ास हिस्सा पढ़िए और अगर इस किताब के प्यार में पड़ जाएँ तो नीचे लिखे लिंक पर अपना नाम पता लिखा दीजिये। सही समय पर किताब आप के घर पर लेखक के सिग्नेचर के साथ पहुंच दी जायेगी। मात्र 86rs में।
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किताब: बनारस टॉकीज (पेपरबैक, उपन्यास)
लेखक: सत्य व्यास
पन्ने: 192
कीमत: 115 रुपये
प्रकाशक: हिंद युग्म, दिल्ली




ये भगवानदास है बाउ साहब. 'भगवानदास होस्टल'. समय की मार और अंग्रेजी के भार से, जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सिमटकर बीएचयू हुआ; ठीक उसी समय 'भगवानदास होस्टल' सिमटकर बी.डी. होस्टल हो गया. समय की मार ने इसके नेम में कटौती भले ही की हो; इसके फेम में कटौती नहीं कर पाई. इसके 120 कमरे में 240 'बीडीजीवी' आज भी सोए हैं.

'क्या!! बी.डी.जी.वी. कौन-सा शब्द है?'
'इसीलिये कहते हैं बाउ साहब कि जरा इधर-उधर भी देखा कीजिये! होस्टल में घुसने से पहले जो बरगद है ना; उस पर का Graffiti पढ़िए. जिस पर लिखा है-
'कृपया बुद्धिजीवी कहकर अपमान न करें. यहां बी.डी.जीवी रहते हैं.'
'अब आप पूछेंगे कि ये बी.डी.जीवी क्या बला हैं? रूम नम्बर-73 में जाइए और जाकर पूछिये कि भगवानदास कौन थे? जवाब मिलेगा-‘घंटा!!' ये हैं 'जयवर्धन जी.' ‘लेक्चर - घंटा, लेक्चरर - घंटा, भगवान - घंटा, भगवानदास – घंटा. सबकुछ घंटे पर रखने के बावजूद, इतने नंबर तो ले ही आते है कि पढ़ाकुओं और प्रोफेसरों के आंख की किरकिरी बने रहते हैं. ग़लत कहते हैं कहने वाले, कि दुनिया किसी त्रिशूल पर टिकी है. यह दरअसल जयवर्धन शर्मा के ‘घंटे’ पर टिकी है; और वो ख़ुद अपनी कहावतों पर टिके हैं. हर बहस की शुरुआत और अंत एक कहावत के साथ कर सकते हैं.

'आगे बढ़िये तो रूम नम्बर-79 से धुआं निकलता दिखाई देगा. अरे भाई, डरिये मत! आग नहीं लगा है. भगवानदास के एकमात्र विदेशी छात्र ‘अनुराग डे’ फूंक रहे होंगे. अब ये ‘विदेशी’ ऐसे हैं कि इनके पुरखे बांग्लादेशी थे; लेकिन अब दो पुश्तों से मुगलसराय में पेशेवर हैं. अरे...!! 'पेशेवर मतलब- पेशेवर वकील बाउ साहब!' आप भी उलटा दिमाग़ दौड़ाने लगते हैं! ख़ैर, एक बात और जान लीजिये कि ये बंगाली होने के कारण पूरे भगवानदास के ‘दादा’ हैं. कुछ जूनियर्स के तो ‘दादा भइया’ भी हैं. ससुर टोला भर का सब बात क़्रिकेटे में करते हैं और क्रिकेट के क्या कहा जाता है....Encyclopedia हैं -

'अगर फलाना प्रोफेसर सचिन के फ्लो में पढ़ाता, तब बात बनती.'
'अरे! साला का लेक्चर है कि गार्नर का बाउंसर है?'
'लड़की देखी नहीं बे! साला ग्लांसे मार लेती.'

पिंच-हिटिंग और हार्ड-हिटिंग के अंतर पर घंटा भर लेक्चर दे सकते हैं. मार्क ग्रेटबैच को 'फादर ऑफ पिंच हिटिंग' का ख़िताब इन्हीं का दिया हुआ है. डकवर्थ-लुईस मेथड का ‘द विंची कोड’ देश भर में सिर्फ अनुराग डे समझते हैं. 1987 वर्ल्ड कप के सेमीफ़ाइनल में जब फ़िलिप डेफ्रिट्स के पहले ही ओवर में सुनील गावस्कर बोल्ड हो गए तो 6 साल के अनुराग डे चिल्लाने लगे- Fix है! Fix है! उनके पिताजी को लगा कि बेटा चिल्ला रहा है- Six है! Six है! काश! पिताजी उस दिन समझ गए होते! पिताजी की नासमझी से मैच फिक्सिंग जैसा अपराध फैल गया.

'अच्छा, अच्छा... आपको क्रिकेट में इंटरेस्ट नहीं है!' Girls Hostel में तो है ना? तो रूम नम्बर-79 में ही अनुराग डे के रूम पार्टनर ‘सूरज’ से मिलिये. हालांकि, इनके क्या, इनके बाप के नाम से भी पता नहीं चलता कि वो ब्राह्मण है; लेकिन जानकारों की कमी, कम-से-कम भगवानदास में तो नहीं ही है. फौरन उनकी सात पीढ़ियों का पता चल गया और वो होस्टल के ‘बाबा’ हो गए. फैकल्टी में 'सूरज' और दोस्तों में 'बाबा'. लड़कियों में विशेष रुचि है बाबा की. B.H.U के girls hostel की पूरी ख़बर रखते हैं बाबा. हर खुली खिड़की पर दस्तक देते हैं. खिड़कियों से झिड़कियां मिलने पर उदास नहीं होते; दुगुने जोश से अगली लीड की तलाश में लग जाते हैं. शरीफ लगने और दिखने की कोशिश करते हैं. और हां! दुनिया का सबसे साहसिक कार्य करते हैं... कविताएं लिखते हैं.

'ले बाउ साहब....!!' आपको क्या लग रहा है कि भगवानदास में पढ़ाई-लिखाई साढ़े-बाइस है? इसीलिये तो कह रहे है कि पूरी बात सुनिये-
'किस तरह से पढ़ना चाहते है?'
‘रात भर में पढ़ के कलक्टरी करना है? तो दूबे जी को खोजिये. ‘रामप्रताप नारायण दूबे. जितना लम्बा इनका नाम, उतना ही लम्बा इनका चैनल. हर सेमेस्टर से पहले, पेपर आउट होने की पक्की वाली अफ़वाह फैलाते हैं और हर एग्जाम के बाद अपने reliable source को दमपेल गरियाते हैं. रूम नम्बर-85. हां! तो रात भर में कलक्टरी करना है तो दूबे जी को धर लीजिए. ज़्यादा खर्चा नहीं होगा; केवल रात भर जागने के लिए चाय पिलाइये; मन हो तो दिलीप के दुकान का ब्रेड-पकोड़ा खिला दीजिये. दूबे जी ऐसा बूटी देंगे कि बस जा के कॉपी पर उगल दिजिये; बस पास... गारंटी.’
'क्या!! कैसा बूटी?'
‘अरे! वो उनका पेटेंट है. कहते हैं कि अगर देश उनसे खरीद ले तो देश का एजुकेशन सिस्टम सुधर जाये. फॉर्मुला वन नाम है उसका. फॉर्मुला वन मतलब - एक चैप्टर पढ़ो और पांचो सवाल में वही लिखो. और लॉजिक यह कि सवाल तो कुछ भी पूछा जा सकता है; लेकिन इंसान लिखेगा वही, जो उसने पढ़ा है. सो, दूबे जी एक सवाल तैयार करते हैं, और परीक्षा में पांचों सवाल कर आते हैं.
‘ओहो! क्या? आपको खाली पास नहीं होना है; नॉलेज बटोरना है? अरे! तो पहले बोलते! झुठो में एक कहानी सुन लिये- जाइये, जाकर ज्वाइन कीजिये 'राजीव पांडे' की क्लास. रूम नम्बर-86 में चलता है उनका क्लास. पढ़ा तो ऐसा देंगे कि लेक्चरर लोग उंगली चूसने लगेंगे. यूपीएससी के सब attempt ख़त्म हो जाने पर इन्हें ‘कैवल्य’ की प्राप्ति हुई और पांडे जी लॉ करने आ गये. खूब पढ़ते हैं और उतना ही लिखते हैं. परीक्षा में अक्सर question इसीलिये छूट जाता है कि उनको पता ही नहीं लग पाता कि कितना लिखें? इसीलिये गलती से भी से उनका नम्बर मत पूछियेगा! खिसिया जाएंगे. परीक्षा हाल में ससुर को खैनी नहीं मिलता है तो लिखिये नहीं पाते है.

और अब, जब पूछ ही लिये हैं, तो सुनिये, ‘पढ़ाई’ के बारे में बी.डी.जीवीयों के विचार:
अनुराग उर्फ दादा - कीनीया-हॉलैंड मैच (वक़्त की बर्बादी)
राजीव पांडे - A representation or rendering of any object or scene intended, not for exhibition as an original work of art, but for the information, instruction, or assistance of the maker; as, a study of heads or of hands for a figure picture. बाप रे बाप!!!
जयवर्धन- ‘घंटा..!!’
सूरज 'बाबा' – ‘ABCDEFG- A Boy Can Do Everything For Girls.’
दूबे जी – सिस्टम के लिये नौकर पैदा करने वाली मशीनरी.

ज्ञान तो बिखरा पड़ा है भगवान दास होस्टल में. बस देखने वाली आंखे चाहियें. आँखें से याद आया-
'फ़िल्म देखते हैं बाउ साहेब?'
'क्या? क्या कहे? आपके जैसा फ़िल्म का ज्ञान कम ही लोगों को है?'
'अच्छा तो बताइये कि ‘डॉली ठाकुर’ किस फ़िल्म में पहली बार आई थी?'
'क्या...? दस्तूर?'
'अरे, बाउ साहेब...!! इसिलिये ना कहते हैं कि डॉली ठाकुर और डॉली मिन्हास में अंतर समझिये और भगवानदास आया-जाया कीजिये.'
'कमरा नम्बर-88 में नवेन्दु जी से भेंट कीजिये. भंसलिया का फिलिम, हमारा यही भाई एडिट किया था. जब ससुरा, इनका नाम नहीं दिया तो भाई आ गये ‘लॉ’ पढ़ने कि ‘वकील बन के केस करूँगा.’ देश के हर जिला में इनके एक मौसा जी रहते है.
डॉक्टर-मौसा, प्रॉक्टर-मौसा, इलेक्ट्रिशियन-मौसा, पॉलिटिशियन-मौसा. घोड़ा-मौसा, गदहा-मौसा. ख़ैर, मौसा महात्मय छोड़ दें तो भी नवेन्दु जी का महत्व कम नहीं हो जाता. फ़िल्म का ज्ञान तो इतना है कि पाक़ीज़ा पर क़िताब लिख दें. शोले पर तो नवेन्दु जी डाक्टरेट ही हैं. अमिताभ के जींस का नाप, धन्नो का बाप, बुलेट पर कम्पनी का छाप और बसंती के घाघरा का माप तक; सब उनको मालूम है. गब्बरवा, सरईसा खैनी खाता था, वही पहली बार बताए थे. अमिताभ बच्चन को याद नहीं होगा कि कितना फ़िल्म में उनका नाम ‘विजय’ है. अमिताभ बोलेंगे - 17, तो नवेन्दु बोलेंगे ‘नहीं सर - 18. आप ‘नि:शब्द’ को तो भूल ही गये. ‘गदर’ के एक सीन में सनी देओल के नाक पर मक्खी बैठी तो नवेन्दु जी घोषणा कर दिये कि ‘फ़िल्म ऑस्कर के लिये जाएगी; क्योंकि आदमी को तो कोई भी डायरेक्ट कर सकता है; लेकिन मक्खी को डायरेक्ट करना...बाप रे बाप! क्या डायरेक्शन है! ऐसे ज्ञानी हैं नवेन्दु जी..........



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शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

अगर आप फेसबुक और whatsapp दोनों प्रयोग करते है तो ज़रूर पढ़िए।

सेल्फ़ी, फेसबुक और व्हाटसएप्प ये तीन शब्द हम सभी के लिए सहज हैं और ज़्यादातर लोग इन्हें बड़ा हलके ढंग से प्रयोग करते हैं। मेरा हमेशा से मानना रहा है जैसे सोशल ऐतिकेट्स होते हैं, फ़ोन पर बात करने की कुछ तहज़ीब होती है वैसे ही सोशल मीडिया के भी कुछ तौर-तरीके हैं जिन्हें आप को बड़ी ही सावधानी से सीखना चाहिये।बात शुरू करने से पहले एक चीज़ समझ लिजिये फेसबुक एक सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट है और WhatsApp एक मैसेंजर, दोनों का काम करने का तरीका, इस्तेमाल, फायदे और नुक्सान एक दुसरे से बिलकुल उल्टा है और हम में से ज्यादातर लोग इन दोनों के इस्तेमाल में ठीक उलटे ढंग से करते हैं, यानी जो फेसबुक पर करना चाहिए वो whatsapp पर और जो whatsapp पर करना चाहिए वो फेसबुक पर।

एक मोहतरमा जो 23-24 साल की होंगी और एक कंपनी में नौकरी करती हैं ने अपनी फेसबुक प्रोफाइल को बहुत निजी रखा है यहाँ तक की अपनी फोटो भी नही लगायी है(पहली गलती)।वो whatsapp भी इस्तेमाल करती हैं और अक्सर अपनी whatsapp, viber पर फ़ोटो सेल्फ़ी के रूप मे खींचकर लगाती रहती हैं(दूसरी गलती)। उनके किसी दीवाने ने मैडम का नंबर अपने मोबाइल में सेव कर लिया अब उस एकतरफा आशिक़ ने (जो शायद लड़की के आसपास से ही है) वो सारी फ़ोटो लंबे समय तक अपने फोन में सेव कीं। मैडम ने अपने फ़ोन में कोई कोड नही डाला था(एक और गलती) और सेल्फ़ी के शौक में अपने घर की, सो के उठकर, कम(नाममात्र के)कपड़ों में तस्वीरें ले रखीं थीं(सबसे बड़ी गलती)
किसी तरह से वो तस्वीरें उस बन्दे ने अपने फ़ोन में ट्रान्सफर की(याद रखें उत्पीड़न के 50फीसदी मामले अपनों के द्वारा ही होते हैं) और फेसबुक पर उसी लड़की के नाम और तस्वीर से एक प्रोफाइल बनाकर अपलोड कीं। इसके बाद एक एक कर के वो तस्वीरें भी आना शुरू हुई जिनका सामने आना कोई अपराध तो नही पर शर्मनाक ज़रूर था। इसके बाद उसी व्यक्ति ने खुद अपने आसपास उस लड़की के बारे में बाते फैलाना शुरू किया।
आज उस व्यक्ति की पहचान और शिकायत भी कर दी गयी है शायद उसपर कार्यवाही भी हो पर जो नुकसान हो चुका उसकी भरपाई मुशकिल है इस घटना से आप को कुछ सबक ज़रूर सीखने चाहिए।

फेसबुक कोई चैटिंग पोर्टल नही है और यहां आज वास्तविक प्रोफाइल की संख्या फेक प्रोफाइल से ज़्यादा है अतः या तो आप इस पर अकाउंट बनाइये मत और अगर बनाइये तो कम एक वास्तविक फ़ोटो डालिए। वरना कल को आप के नाम से कोई फेक प्रोफाइल बनाएगा तो आप के शुभचिंतक आपके बिना तस्वीर वाले असली अकाउंट को ही नही पहचान पाएंगे।

whatsapp का इस्तेमाल भारत में 7करोड़ लोग करते हैं और इनमें किसी को आप की तस्वीर तक पहुँचने के लिए सिर्फ आप का फ़ोन नंबर चाहिए होता है तो यहाँ अपनी तस्वीर बार बार न बदला करें।(उसपर लाइक भी नही मिलते)

फेसबुक पर अपने बच्चों की तस्वीर और उनके स्कूल के प्रोग्राम की डिटेल कभी ना डालें आप के बच्चे निश्चित ही प्यारे हैं पर लाइक और कमेंट पाने की चीज़ नही हैं।(ह्यूमन ट्रैफिकिंग, किडनैपिंग की ज़्यादातर घटनाओं में जानकारी अब यहीं से उपलब्ध होती है)

आप कहीं घूमने जा रहे हैं, हवाईजहाज, ट्रेन में अकेले सफ़र कर रहे हैं तो इसको स्टेटस में अपडेट ना करें वापस आकर फ़ोटो शेयर करें(आप के घर को अकेला जानकार कौन हाथ साफ कर जाए,कौन आपकी अकेली पत्नी, बच्ची पर........)


अपने फ़ोन में पैटर्न लॉक ज़रूर डालें (आपके फोन में आप के ही नही दूसरों की पर्सनल चीज़ें जैसे उनके नंबर आदि भी होते हैं साथ ही साथ आप की हर id बैंक अकाउंट की डिटेल वगरह भी सेव रहती है यदि आप इंटरनेट से खरीददारी करते हैं तो ये स्थिति और खतरनाक होजाती है)।

आखिरी और सबसे ज़रूरी बात जिसे शायद आपने भी किया या देखा हो कई लोग अपनी पत्नी, प्रेमिका के साथ कुछ व्यक्तिगत तस्वीरें खींचते हैं, लड़कियाँ अपने व्यक्तिगत आनंद के लिये टॉवेल शॉर्ट्स वगैरह में सेल्फ़ी खींचती हैं अगर ऐसी तस्वीर सामने आना आप के लिए असहज है तो तस्वीर मत खींचिए क्योंकि मेमोरी कार्ड से डिलीट होने के बाद भी डेटा रिकवर किया जा सकता है और तस्वीर सबसे आसानी से रिकवर होने वाली वस्तु है।(इसे करने के लिए किसी बड़े तामझाम की आवश्यकता भी नही पड़ती और कितनी भी पुरानी मेमोरी हो तस्वीर 100 में 90 बार वापस आ जाती है) और साइबर क्राइम की सब बातों के बाद भी आप उस तस्वीर को फेक साबित नही कर पाएंगे।

सोशलमीडिया और इंटरनेट बहुत कमाल की चीज़ है। इसे कायदे के साथ इस्तेमाल करिये, बहुत फायदा मिलेगा। अपनी लापरवाही से अपने आपको इस खूबसूरत चीज़ से महरूम मत करिये।

अगर सही जानकारी लगी हो तो इस लेख को आगे शेयर कर दें।


©अनिमेष
तस्वीर इंटरनेट से साभार

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

रिश्ते,फेसबुक से झांकती ज़िन्दगी की किताब

आज जिस किताब की बात मै यहाँ कर रहा हूँ वो बड़ी खास है।ख़ास इसलिए कि उसे मैंने और मेरे जैसे कई लोगो ने रोज़ सुबह परत दर परत बुने जाते देखा है। पिछले एक साल से संजय सिन्हा जी हर सुबह एक बड़ा सा(लम्बा नही) स्टेटस लिखते हैं और इस खूबी से लिखते हैं कि मै और मेरे जैसे लगभग 5,000 लोग सुबह की चाय के साथ अखबार की जगह फेसबुक का ये स्टेटस पढ़ते हैं। मिसेज़ शर्मा बच्चों और हस्बेंड का टिफिन पैक करती जाती हैं और बीच बीच में अपने स्मार्ट फ़ोन को देखती जाती हैं स्टेटस आया की नही, शुक्ला भाईसाहब को तो खुद चाय बनानी पड़ती है क्योंकि भाभी जी ने भी अब महंगा वाला फ़ोन ले लिया है। और संजय भाई अपने इस भरेपूरे परिवार की उम्मीदों को कंधे पर उठाये रोज न जाने कहाँ से किस्से निकाल लाते हैं और इन्ही 365 किस्सों में से कुछ चुने हुए किस्सों का संकलन है प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित किताब 'रिश्ते'

इस किताब को किसी एक खांचे में बांधना मुश्किल है। रिश्ते एक संस्मरण भी है तो एक दस्तावेज भी, jp के आंदोलन और 'इंदिरा हटाओ इंद्री बचाओ' जैसे नारों की बात करते करते ये आपको नॉस्टेलजिया में ले जाकर अचानक से आमिर खान की टैक्सी और केजरीवाल की दिल्ली के बीच ले आती है।"पूरी ज़िन्दगी एक फेसबुक है" या "फेसबुक एक प्रोडक्टिव काम है" जैसे नए दर्शन और सुखी जीवन के सूत्रों की जगह जगह बात करने वाली ये किताब रिश्तों को एक अलग मतलब देती है।

ढेर सारी बातें हैं कहने को रिश्ते नाम की इस किताब और उसके लिखनेवाले के लिए मगर आज समय की दिक्कत और कुछ अलग समस्याएं हैं जो ज़्यादा लिखने की फिलहाल इजाज़त नही दे रहे। कम शब्दों में इतना ही कहूँगा कम से कम एक बार ज़रूर पढ़ें इस किताब को, ज़िन्दगी की कुछ नयी परिभाषाओं को जानने के लिए और आज ही अमेजॉन.कॉम पर जाकर आर्डर करें और अगर यकीं ना हो मेरी बात पर तो संजय सिन्हा जी की वाल पर मन भर कर पोस्ट पढ़ें।
वैसे शाहरुख़ खान ने भी लिख कर दिया है कि किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए

https://m.facebook.com/sanjayzee.sinha

©अनिमेष


गुरुवार, 13 नवंबर 2014

किताबों की दुनिया की वासेपुर, नमक स्वादानुसार

हिंदुस्तान के समाज की एक खासियत है कि हम हर चीज़ को एक ही रंग में पेंट करने की कोशिश करने लगते हैं। मसलन किसी ने एक पार्टी की तारीफ कर दी तो वो कम्युनिस्ट हो गया और किसी ने किसी और की बड़ाई की तो वो भक्त बन गया। कुछ मामलों में ये सही हो सकता है मगर हरजगह इस तरह के मापदंड नही चल सकते हैं और खास कर कला-साहित्य में तो कतई नही। मगर हिंदी साहित्य में ऐसा ही होता है अगर आप पॉपुलर हैं तो घिसेपिटे हैं और नहीं बिके तो महान।

कुछ समय से हिंदी में कुछ नए लेखक आए हैं जिनहोने हिंदी की 3 अंकों की बिक्री के रिकॉर्ड को तोड़ा है और इसी के साथ इन्हें पल्प फिक्शन कहने का चलन शुरू हो गया है। वैसे ये थोड़ा संयोग और बहुत सी मेहनत है शैलेश भारतवासी की जो इनमें से अधिकतर किताबें हिन्दयुग्म के खजाने से निकलीं हैं।

आज मै जिस किताब की बात कर रहा हूँ उस पर लिखने का मेरा कोई विचार नही था पर किताब पढ़ने के बाद मुझ पर भी बुखार चढ़ा कि इसके बारे में कुछ बोला जाए।2013 में आई निखिल सचान की किताब 'नमक स्वादानुसार'का।
नमक नामक इस किताब सच में नमकीन है। इसमें न मसालों का चटपटापन है ना कोई मीठी सी प्रेम कहानी, बस सादा नमक है जिसे आप अपने हिसाब से मिलाइये।

90के दशक के ग्रामीण बच्चे और अमिताभ बच्चन की फ़िल्म अजूबा के लिए उनकी दीवानगी, सुपर कमांडो ध्रुव से परमाणु की तुलना कर देना ही पाप है या 'साले' गाली नही है, बड़े कम लेखक हैं आज जो हिंदी में इतना सटीक ऑब्जरवेशन देते है (अंग्रेजी में तो है ही नही)। हीरो और मुग़ालते जैसी कहानी बड़े चुपके से सेंटी कर जाती है तो 'सुहागरात' बिना किसी स्टीरियोटाइप स्त्री बिमर्श के पुरुषप्रधान समाज की औकात बता जाती है।

इन सब के बाद में जो चीज़ किताब को एक अलग ट्विस्ट देती है वो है टट्टी पर लिखी गयी कहानी। जी हाँ! दो लड़के खेत में साथ बैठ कर हग रहे हैं और यहां से कहानी निकलती है। हो सकता है ये बात आप को सो कॉल्ड हाई क्लास न लगे पर ये सामूहिक शौचालय आज भी देश के कई गाँवों की नियमित दिनचर्या का हिस्सा हैं और उनका भी अपना एक सामाजिक स्थान है।

किताब को क्यों पढ़ना चाहिए और क्यों नही? इन दोनों बातों का जवाब एक ही लाइन में दिया जा सकता है, "ये कहानी की दुनिया की गैंग्स ऑफ़ वासेपुर है।" यहाँ गालियाँ भी हैं और बदतमीज़ी भी, चूतियापा भी और हरामीपना भी, मगर एक मज़ा भी है गाँव की कच्ची महक का। अपने रिस्क पे पढ़िए और अपने हिसाब से नमक मिलाइये मुझे दूसरी किताब शुरू करनी है।

©अनिमेष

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हिन्दी में आया VPP युग, क्या अपनी किताब बेचना गुनाह है

हिंदी भाषा में कुछ संबोधन हैं जिन्में सामने वाले की परवाह ना करने के लिए कहा जाता है कि मै उसे अपने शरीर के एक विशेष हिस्से पर रखने लायक समझता हूँ। मेरी समस्या है कि मुझसे ऐसी भाषा का इस्तेमाल नही होता पर कल मेरा मन हुआ बिलकुल यही कहने का। परेशान न हों मेरे साथ कुछ नही हुआ पर जो हो रहा है एक आम पढ़ने वाले के लिए उसे जानना ज़रूरी है।

पिछले कुछ दिनों से कुछ दिनों से हिंदी की चिंता करने वाले कुछ लोग चिंतित हैं। हिंदी के एक नए रचनाकार 'बिमलेश त्रिपाठी' की नयी किताब ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। 'कैनवास पर प्रेम' नाम की इस किताब के प्रचार के लिए विमलेश ने अपने फेसबुक मित्रों को इनबॉक्स में msg भेजा यदि वो उनकी किताब खरीदना चाहें तो उन्हें अपना पता भेज दें, किताब VPP से भेज दी जाएगी। जिन लोगों ने पता भेजा उन्हें किताब भेज दी गई। और जब पोस्टमैन ने उनसे 200 ₹ झटक लिए तब हिंदी साहित्य की इन महान विभूतियों को पता चला कि VPP का VIP से कोई सम्बन्ध नही और इसी के साथ हिंदी मे vpp युग की शुरुआत हुई।

मै विमलेश को नही जानता, ना मैंने उनकी किताब पढ़ी है पर उनके और मेरे 73 मुचुअल फ्रेंड्स से पता चल गया कि मामला क्या है। हिंदी के जो तथाकथित महान लोग रुदाली बने फिर रहे हैं उनकी समस्या है कि अगर हिंदी की किताबें सच में बिकने लगीं तो ऐसे मठों का अस्तित्व ही ख़त्म हो जायेगा जो हर साल 14सितम्बर को कुछ फेसबुक और कुछ किसी सरकारी दफ्तर के कार्यक्रम में रो पीट कर एक शाल और हरी पत्ती ले आते हैं। हिन्दी की सेवा के नाम पर विदेशी दौरों में घूम कर मुफ्त की किताबें, साहित्य इकठ्ठा करते हैं और कस्टम के टोकने पर शान से उसे डस्टबिन में फेंक देते हैं। क्या गलत किया कि अगर किसी लेखक ने कह दिया कि मेरी किताब खरीदना चाहें तो अपना पता बता दें। अगर एक महीने मे 250 से कुछ ज्यादा किताबें बिकने से अगर हिंदी साहित्य बाजारू और दयनीय बन गया हो तो ऐसे साहित्य को मिट ही जाना चाहिए और बिक्री का ये आंकड़ा तब है जब किताब ज्ञानपीठ जैसे स्थापित प्रकाशन से छापी गयी है।

पिछले कुछ दशकों से हिंदी के ठेकेदार वो बने हुए हैं जिन्हें हिन्दी से कुछ लेना देना ही नही है। किसी तरह से आप सालों की मेहनत से एक किताब लिखिए फिर उसे पैसे खर्च कर के छपवाइए, उसके बाद एक कार्यक्रम रखिये और बेटी के बाप की तरह बस सब के सामने हाथ जोड़े खड़े रहिये। मुफ्त की जॉनी वाकर के आचमन से प्रसन्न होकर आप को आशीर्वाद दिया जाएगा कि, "आप की किताब हिंदी साहित्य की धारा बदल देगी, इससे दुनिया बदल जाएगी आदि।" ऐसे लोग रिव्यु भी लिखते हैं और कहने की ज़रुरत नही कि इस रिव्यु में किताब की चर्चा लिखने वाले की जुगाड़ लगवाने की औकात देख कर होती है। पिछले साल हिन्दी के एक बड़े साहित्यकार की बड़ी औसत दर्जे की किताब आयी थी मगर हर रिव्यु वाले भाई साहब ने उसकी हर कमी को साहित्य के साथ नया प्रयोग बताया। एक बात और किताब की बिक्री का किसी भी रिव्यु से सम्बन्ध एक संयोग मात्र ही होता है।

बाबू देवकी नन्दन खत्री, इब्ने सफ़ी, गुलशन नंदा से लेकर हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला और कुमार विश्वास के मुक्तकों तक को हिंदी साहित्य के एक समूह में अछूत घोषित कर के रखा गया है। कोई भी गीतकार ज़रा सा प्रसिद्द हुआ तो उसे 'मंचीय' नामक बौधिक गाली दी जाने लगती है।सिर्फ इस वजह से कि लोगों ने इनको पढ़ा

क्या लेखक को उसकी किताब की कीमत मिलना गुनाह है?

कुछ समय पहले मैंने इसी ब्लॉग में 2 किताबों की बात की थी। एक मसाला चाय दूसरी इश्क़ तुम्हे हो जाएगा। कुल मिला कर 25 से 30 लोग मेरी जानकारी में हैं जिन्होंने मेरी बात को इतनी तवज्जो दी कि या तो किताब खरीद कर या मांग कर पढ़ी। हो सकता है कि ये संख्या आप को छोटी लगे मगर जहां 300 से ज्यादा कॉपी बिकना बेस्ट सेलर मानने का आधार हो वहाँ ये आंकड़े कुछ तो महत्त्व रखते ही हैं।मज़े की बात तो ये है कि अंग्रेजी की बड़ी पत्रिका और समाचार पत्र हिंदी के इस नए उभरते समूह के ऊपर आर्टिकल छाप रहे हैं(किताब पढ़ कर) मगर हिंदी में इसकी आलोचना ही हो रही है।

हिंदी पट्टी पढ़ती नही ये आरोप पूरी तरह से गलत है चेतन भगत की किताबें अंग्रेजी से ज्यादा हिन्दी में बिकी हैं, उर्दू का हर शायर अपना दीवान देवनागरी में ही छपवाता है और लाखों की रॉयल्टी बटोरता है। पिछले दिनों मैंने अंग्रेजी के 2 बेस्ट सेलिंग लेखकों को पढ़ा दोनों की अब तक 10-10 लाख से ज्यादा कॉपी बिक चुकी हैं। एक किताब पर अगर 5₹ की रॉयल्टी भी रख लें तो दोनों को कोई और काम करने की ज़रुरत नही पड़ेगी। क्या हिंदी के हर कवि लेखक को निराला की तरह भूख और पागलपन से लड़ते हुए मरना चाहिए?
नही साहब! फेसबुक, whatsapp और ट्विटर पर सबको बात कहने और सुनने का हक़ है, यहाँ ऐसा नही कि गुरूजी की चरणवन्दना के बिना कोई मौका नही मिलेगा छपने का। आप 200₹ के लिए कितना भी चुतस्पाह कर लें मगर याद रखिये कि हर चीज़ एक एक्सपायरी डेट के साथ आती है और जिस तरह से हिंदी की नई पीढ़ी ऑनलाइन होती जा रही है पुरानी धारणाओं के स्विच ऑफ होने का समय पास आता जा है।
©अनिमेष

सोमवार, 3 नवंबर 2014

किस Kiss की कहानी

पिछले कई दिनों से समझ नही आरहा था कि यहाँ किस की बात करूँ, आज अचानक से जब ट्विटराते जीवों को किस ऑफ़ लव की बातें करते देखा तो लगा, "क्यों न Kiss की बात करी जाए।"
हिन्दी का किस नही अंग्रेज़ी का वही किस जिसके टीवी पर आते ही आप को उठकर पानी पीने जाना पड़ता है और पापा रिमोट से चैनल बदलने की प्रक्रिया को बिना किसी चूक के दोहराते हैं। कोच्ची में जिस किस ऑफ़ लव नामक आयोजन ने अंग्रेजी (अब राजश्री के आलावा सभी हिंदी) फिल्मों की इस अनिवार्य परंपरा को फिर से चर्चा प्रदान की उसकी बात करने से पहले कुछ तथ्य बता दूं किस के बारे में, जिन्हें आप अपने दोस्तों के बीच अगली बार चटखारे ले कर सुना सकेंगे।(सभी तथ्य इन्टरनेट के विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त)

Kiss और honeymoon दोनों की शुरुआत भारत से हुई।किस का पहला ज़िक्र ऋग्वेद में मिलता है जहाँ इसे बोस कहा गया और वहां से ये शब्द लैटिन में बुस बना फिर कुस में परिवर्तित होते होते अंत में किस पर आकर रुका।

लिप-लॉक प्रजाति का किस जिसे अब तक आप अब तक हॉलीवुड से सीखा गया मानते हैं वो भी सिकंदर ने पहली बार हिन्दुस्तान आकर देखा (शायद कर के भी) और सीखा।

हिंदी फिल्मों में चुम्बन युग की शुरुआत मल्लिका शेरावत से कहीं पहले 1929 में (साइलेंट फिल्मों) हो चुकी थी। और 1933 का देविका रानी हिमांशु रानी के बीच 4मिनट का द्रश्य आज भी हिन्दी सिनेमा के सबसे लम्बे दृश्यों में से एक है।

खैर अब इन बातों से बाहर आकर बात करते हैं उस मुद्दे की जिस के बारे में कई दिनों से चर्चा चल रही है।कोच्ची में एक समूह के द्वारा मोरल पुलिसिंग के खिलाफ एक साथ एक जगह पर किस करने की घोषणा की गयी थी और जैसा स्वाभाविक था इसपर विवाद भी हुआ।

मेरी व्यक्तिगत पसंद ऐसे किसी आयोजन की नही है क्योंकि मुझे लगता है कि ये समूह भी निर्णय लेने की स्वतंत्रता से ज्यादा दिखावे की आज़ादी की तरफ ले जाते हैं। ऐसे सभी आयोजनों के बाद मेरे जैसे कई(मुझे नही) अकेले बन्दों को ऐसा लगता है कि ब्लैक एंड डॉग्स नॉट अलाउड की तख्ती आज भी उनके लिए लगी हुई है। मगर मुझे इस आयोजन के विरोध से आपत्ति है।

वैलेंटाइन दे या किस ऑफ़ लव के बाद दो तर्क खूब दिए जाते हैं कि इससे हमारी संस्कृति खतरे में है। आज जींस पहन कर घूम रही हैं कल बिना कपड़ों के घूमेंगी। आज गाल पर किस किया है कल सबकुछ सामने होगा।

अगर 5000 साल पुरानी परंपरा को आप ने इतना कमज़ोर बना दिया कि अगली पीढी के एक आध गुलाब लेने-देने से वो ख़त्म हो जायेगी तो ऐसी दशा के ज़िम्मेदार तो आप ही हो ताऊ। आप खुद सोचिये देश में ऐसे आयोजनों तक आने की नौबत क्यों आयी। पिछले कई सालों में हर वैलेंटाइन दे पर श्रीराम सेना जैसे संगठनों ने खूब तोड़-फोड़ की, सामान्य रूप से घूमते जोड़ों को सरे आम बेईज्ज़त किया, लड़कियों को पीटा, क्या ये भारतीय संस्कृति का हिस्सा था? पिछली साल दिल्ली स्टेशन पर गले मिल रहे पति-पत्नी को पुलिस ने गिरफ्तार किया और फिर अदालत ने उन्हें निरपराध घोषित किया। अगर स्त्री पुरुष के सामाजिक संबंधों को इन संगठनों ने सामान्य रखा होता तो शायद आज ऐसे आयोजनों की नौबत नहीं आती।

अश्लीलता किसी भी रूप में गलत है मगर हमारे समाज के ठेकेदार एक खास प्रकार की सोच को ही पूरे भारत की सोच बना देते हैं। जबकि भारत की विविधता इतनी है कि उसे कभी आयामों में नाप ही नही जा सकता। उत्तर भारत में नवरात्र का अर्थ है व्रत उपवास वहीं बंगाल में यह समय फ़ूड फेस्टिवल का है और जितनी अधिक तरह से पकी मछली आप को नवरात्र में मिलेगी वो किसी और समय मिलना दुर्लभ है। ठीक ऐसे ही उत्तर भारत में अधिकतर महिलाओं के द्वारा रखा जाने वाला एकादशी का व्रत कई जगहों पर सिर्फ विधवाओं का व्रत है। फिर आप कैसे कह सकते हैं कि आप के खानदान में स्त्रीयाँ घर से बाहर नही निकलती हैं तो वो कुलीन हैं और उत्तर पूर्व राज्यों (जहाँ स्त्री सत्ता प्रचलित है) की महिलायें जो ज्यादा बाहिर्मुखी होती हैं चरित्रहीन है।

ठीक इसी प्रकार से कई समूहों में किस का अर्थ व्यक्ति के साथ बदलता है।एक बड़ी महिला का किसी दूसरी स्त्री को चूमना आशीर्वाद है तो समान उम्र की दो महिलाओं का हवाई चुम्बन सिर्फ एक नमस्कार, यूरोप में अगर कोई बड़ी लडकी किसी छोटे लड़के को चूमती है तो वो भाई बहन का प्यार है।

खैर इन सब को छोड़िये एक कविता की दो पंक्तियाँ जो ऐसे ही किसी किस ऑफ़ लव से खिसियाये शायर ने कहीं होंगी।

किस किस की महफ़िल में
किस किस नेकिस किस को
किस किस तरह से किस किया।
एक वो हैं,
जो हर मिस को किस करते हैं
एक हम हैं,
जो हर किस को मिस करते हैं।

अभी भी कुछ बचा हो किस के बारे में तो इस लिंक पर पढ़ सकते हैं।
http://m.wsj.com/articles/BL-IRTB-27097

©अनिमेष

बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

मुझे चेतन भगत पसंद हैं पर मै उन्हें पढता नही हूँ

इस दिवाली पर हिंदी साहित्य की बात से बात शुरू करता हूँ। अब ये मत सोचियेगा कि हिंदी की बात हिंदी दिवस पर ही की जा सकती।

हिंदी साहित्य बिकता नही, हिंदी में ऐसा साहित्य लिखा नही जा रहा जिसे पढ़ा जाए। हिंदी टिपिकल है, ये सारी बातें कही जाती हैं और इन्हें ख़ारिज भी नही किया जा सकता। अब कुछ तथ्य देखिये।
चेतन भगत के अलावा अंग्रेजी के सारे फिक्शन राइटर मिला लीजिये-

रविंदर सिंह, दुर्जोय दत्ता, अरविन्द अडिगा सब को मिला कर उनके फेसबुक पेज के लाइक जोड़ लीजिये और 10 से गुणा कर दीजिये फिर भी कुमार विश्वास के लाइक्स से आधे ही रहेंगे।
चेतन भगत को फेसबुक पर 58लाख लोगों ने लिखे कर रखा है और कुमार को 23 लाख, जबकि चेतन की कई किताबों के सामने कुमार के गिने चुने मुक्तक हैं।

हिंदी के ठीक-ठाक कवियों का एक पेमेंट चेक किसी mba फ्रेशर के महीने भर के वेतन से टक्कर लेता है।

दैनिक जागरण एक दिन में 16 लाख कॉपी बेचता है।

इन सब तथ्यों के साथ आप को ये शक नही होना चाहिए कि हिंदी का पाठक पैसे खर्च नही करता या हिंदी में लोग पढ़ते नही हैं।फिर ऐसा क्या है कि हिंदी की किसी किताब (अनुवाद नही) की 500 कॉपी बिकना खबर बन जाती है।इसे समझने के लिए अपने बचपन में वापस जाइये।

स्कूल के दिनों में कोर्स की किताबों में प्रेमचंद की ईदगाह से शुरू कर के हाईस्कूल में वसीयत जैसी कहानी ने हमारी आज के पीढ़ी को चम्पक, सरिता, कदिम्बिनी से लेकर शेखर एक जीवनी तक का पाठक बनाया। ऐसे में हम जब बस अड्डों पर मिलने वाली मोटी स्लेटी पन्नों की किताबों को देखा करते थे तो घर वालों की हिदायत,
"गंदी किताबे हैं।अच्छे घरों के बच्चे नही पढ़ते"
हमें इन किताबों के लिए एक अलग तरह की गाँठ हमारे मन में डालती गयी।

कुछ समय बीता और फिर mba कर के आये एक शख्स ने अपनी कामचलाऊ अंग्रेजी में एक किताब लिखी "5 point someone- what not to do in IIT"
इस टाइटल में जो iit वाली बात लिखी हुई थी उसने मुझे और मेरे साथ के हर युवा के दिल में छुपे सपने को खरोंचा और किताब की लाखों कॉपी बिक गईं।इस किताब ने एक बात और सिखाई कि बिना डरे अंग्रेजी का पूरा उपन्यास भी पढ़ा जा सकता है और उसमें मज़ा भी आता है

अब अतीत से बाहर आइये।
आज की आम धारणा है हिंदी के मठाधीश साहित्यकार और प्रकाशक मिलकर घिसीपिटी किताबें ऊंचे दाम पर छापते हैं और सरकारी लाइब्रेरी के अलावा उन्हें कहीं पाया नही जाता।
छपनेवाली कवितायेँ ऐसी होती हैं जिन्हें समझने के लिए कोई अलग तरह की गोली खानी पड़ती है।
ये बातें सही हैं मगर पूरी तरह नही। कुछ लोग हैं जो इस बात को बदलने में लगें हैं। इनका धंधा साहित्य की दूकान चलाना नही है बल्कि ये उसी mba,बी टेक वाली पढाई से आये हैं जिसके साथ ढंग का पैकेज मिल ही जाता है और इन्हें ढंग की अंग्रेज़ी भी आती है।किन्तु जैसे समोसे को अंग्रेजी में पैटीज़ कहने से स्वाद चला जाता है वैसे ही जो पैनापन हिंदी में बात कहने से आता है वो अंग्रेजी में नही आता।

ललित कुमार के पोर्टल Kavitakosh.org पर जाइये हिंदी-उर्दू, के लगभग हर कवि(पुराने से नए सब) की कविता आपको मुफ्त में मिलेंगी इस पूरे सर्वर को चलाने से लेकर लाखों कविताओं को अपलोड करने तक पूरी प्रक्रिया इनके तथा इनकी छोटी सी टीम के प्रयास हैं और  इसके बदले में इन्हें शुभकामनाओं और टेंशन के आलावा कुछ भी नही मिलता।

दूसरी तरफ शैलेश भारतवासी अपने हिन्दयुग्म प्रकाशन से अकेले ही कई नए लेखकों को बेस्ट सेलर बना चुके हैं। इनके प्रकाशन में iim के हाई पैकेज वाली टीम नही है और ना ही चेतन भगत की तरह सलमान खान इनकी किताब की तारीफ करते हैं।

ऐसे और कई लेखक और संस्थाएं हैं जिन का दिमागी फितूर उन्हें इन कामों में लगाये रहता है।
तो अगर आप को लगता है कि आप को पढने का शौक है तो इस दिवाली एक नयी किताब ऑनलाइन आर्डर कीजिये। हिंदी के सिस्टम की वजह से ये अभी ऑनलाइन ही उपलब्ध हैं। आपके शहर के रेलवे स्टेशन तक आते आते इन्हें समय लगेगा। 100₹ की किताब अगर पसंद ना आये तो मेरे जैसे किसी को गिफ्ट कर दें।

यहाँ पर किताब या लेखक का नाम बस इसलिए नही दिया कि कुछ नाम लिखने में कई छूट सकते हैं।

मैंने अपनी किताब आर्डर कर दी है और 3-4 दिन बाद 100₹ कैश ऑन डिलीवरी देकर एक नया नियम शुरू कर रहा हूँ,दिवाली पर ज्ञान का दिया जलाने का। आप भी करिए और लोगों को भी करवाइए।अगर कोई भी मदद चाहिए तो मै हाज़िर हूँ।

इस पोस्ट को शेयर करने का अनुरोध सिर्फ इसलिए है कि अगर आप एक विचार से सहमत हैं तो वो दूसरों तक पहुंचे वरना हिन्दी ब्लॉग के गूगल पैसे नही देता।

ज्ञान के दीपक जलाने की आशा के साथ शुभ दीपावली।

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

महिषासुर शहादत दिवस- दलितों के साथ भद्दा मजाक दलित विमर्श के नाम पर

महिषासुर शहादत दिवस की बात करने से पहले आज आप को इतिहास की एक घटना सुनाता हूँ।वैसे तो यह बात ncert की इतिहास की किताबों में भी दर्ज है मगर मेरे एक दोस्त ने मुझसे इसका ज़िक्र यहाँ करने के लिए कहा है।

आज़ादी से काफी पहले की बात है। मैसूर के पास एक रियासत थी त्रावनकोर स्टेट, यहाँ दो जातियां रहती थीं, नायर और नादार। एक अपने क्षेत्र की सर्वोच्च ब्राम्हण और दूसरी दलित।दलित और ब्राह्मण में कोई तो फरक होना चाहिए था सो पंडितों ने कहा या कहें कि एक रिवाज़ बनाया कि दलितों में कोई भी, स्त्री-पुरुष दोनोंकमर से ऊपर कोई कपड़ा आदि नही पहनेंगे।
जी हाँ पूरे गाँव की हर दलित महिला ऐसे ही मालिक लोगों की सेवाएं करती थी। इन सेवाओं में ऐसी बहुत सी सेवाएं थीं जिनकी आप इस समय कल्पना कर रहे होंगे।
ऐसे मे कुछ मिशनरी लोगों ने नयी पीढ़ी के लोगों को समझाया कि वो दलित से इसाई बन जाएँ तो पंडित जी के नियमों को मानने की ज़रुरत ख़त्म।
लोग मान गए और महिलाओं ने ब्लाउज पहनना शुरू किया। सवर्णों को क्या लगा उसे बताने की यहाँ ज़रुरत नही मगर उन्होंने दलितों की पूरी बस्ती जला दी, उन्हें मारा-पीटा और और भी जो कुछ वो वहाँ कर सकते थे किया।मामला अदालत में गया और न्यायाधीश(रियासत के) ने कहा कि सवर्ण स्त्रियों के सामान अपने शरीर के उपरी हिस्से को ढक कर इन्होने बहुत बड़ा पाप किया है और इसका दंड इन्हें मिलना ही चाहिए था।

ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं जिन्हें पढ़कर मुझे इस जातीय अस्मिता से घृणा हो गयी है।शायद आप कहें कि आज ऐसा नही होता है। ये तो पिछली सदी की बाते हैं। आज सब बराबर है।
तो कभी शहर उस हिस्से में जाइये जहाँ पिछड़ी या दलित कही जाने वाली जातियां रहतीं हैं। मै गया हूँ, यकीन मानिए जो सोच भी नही सकते हैं हम आप उन सुविधाओं के बिना वो रहते हैं। ये भी ना हो तो ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन या तुलसीराम की मुर्दाहिया पढ़ कर देखिएगा, सच मानिए हिल जायेंगे।

वैसे एक बात और बताऊं, मेरे एक और ठाकुर मित्र के ही एक रिश्तेदार काफी गर्व से मुझे बता चुके हैं कि, उनके गाँव में दलितों की कोई ऐसी लड़की नही रही जो 'ठाकुरों, से होकर ना गयी हो.' और जब एक बार इनलोगों(दलितों) ने अपने दूल्हे की बारात कार में निकाली तो गाँव के ज़िम्मेदार लोगों ने पूरी बारात को पीटा, दूल्हे को मुर्गा बनाया साथ में पूरे खाने में मिट्टी मिला दी।

खैर!

मेरा आज की इस पोस्ट का उद्देश्य ये नही था और मै इस पोस्ट के हेडिंग को बिलकुल भूला नही हूँ। मेरी समस्या यह है कि गीता की 'धर्म वही है जो लोक कल्याण करे' वाली सीख को मैंने कुछ ज्यादा ही सीरियसली ले लिया इस लिए मै ना दक्षिणपंथी बन सका न वामपंथी।

दक्षिणपंथ के मेरे मित्रों के पास आज कल गायों को पूजने और पकिस्तान के हिन्दुओं की चिंता करने से ही समय नही है कि वो नारकीय जीवन जी रहे भारतीय लोगों के बारे में सोचें।सड़क के आदमी की बात करने का ठेका अब वामपंथियों ने ले रखा है।इन्डिया गेट पर सरफरोशी की तमन्ना, ओ री चिरय्या गाकर और फेसबुक पर पेज बनाकर इन प्रगतिशीलों ने गरीबों और दलितों की खूब मदद की।ऐसे ही एक मदद की घटना में एक उत्सव शुरू करने की कोशिश की गयी महिषासुर शहादत दिवस, इस उत्सव के पीछे की कथा संक्षेप में कुछ यूँ है,

'''महिषासुर भैंस चरानेवालों का सरदार था। देवताओं को यह बात पसंद नही आई और उन्होंने दुर्गा
(आप देवी दुर्गा कह सकते हैं) को भेजा दुर्गा ने महिषासुर के साथ 8 दिन उसके शयनकक्ष(bed room) में उसके साथ बिताये 
और नवें दिन शराब पीने के बाद खंजर से उसका सीना चीर दिया।''

इस कथा के पीछे कोई रिसर्च नही की गयी, ना कोई तर्क या प्रमाण दिया गया। यहाँतक कि जो संथाली लोककथा इस का आधार बताई गयी उसके जानकारों ने उस कथा में ऐसी कोई बात होने से इनकार कर दिया।

मै एक बार को इस पूरी कल्पना को सच मानने को तैयार हूँ बिना किसी तर्क के, पर मेरा सवाल है कि इससे मेरे शहर में सर पर मैला ढोनेवाली उस औरत के जीवन में क्या फर्क आएगा?
उन बच्चों को क्या मिलेगा उससे, जो स्कूल ना जाकर कूड़े के ढेर से कचरा उठाते हैं?
क्या ढाबे पर झूठी प्लेट धोता छोटू अगर 'महिषासुर की जय' बोल देगा तो मालिक उसकी तनखाह बढ़ा देगा?
या आप के ये साबित कर देने से की दुर्गा ने 8 दिन महिषासुर के बिस्तर पर गुज़ारे थे, gb रोड जैसे इलाकों में लाई गई औरतें अपनी जिंदगी जी पाएंगी?
जवाब आप भी जानते हैं और मै भी!

दरअसल चाहे गले में लाल मफलर डालकर सिगरेट फूंकने वाले कामरेड हों या हर बात में अपनी संस्कृति और भावना के आहत हो जाने वाले भक्तजन या फिर वो लोग भी जिन्हें हर बात में सियासी साजिश, अमरीका के नापाक इरादे या ऐसा ही कुछ दिखता रहता हैं ये सब धूमिल की कविता के वही तीसरे आदमी हैं जो ना रोटी पकाते हैं न खाते हैं पर रोटी के साथ खेलते हैं और सबसे ज्यादा कमाते हैं।

वैसे जाते जाते बता दूँ कि फॉरवर्ड प्रेस ने इस महिषासुर उत्सव पर जो पत्रिका निकाली थी उसकी सभी कॉपी पुलिस ने जब्त कर लीं और मामला कोर्ट में है। मेरे पास वो चित्र हैं जो इस पत्रिका में छापे गए हैं पर मै उन्हें यहाँ नही दे सकता। फॉरवर्ड प्रेस के बेचारे लोगों का कहना है कि ये उनकी धार्मिक तथा अभिव्यक्ति की स्वंत्रता पर हमला है और भले ही वापस त्रावन्कोर की तरह एक और संघर्ष हो जाए पर महिषासुर की पूजा तो होनी ही चाहिए।

आप भी सोचिये कि पिछली सदी से आज तक हम एक समाज के रूप में कितना परिपक्व हुए हैं।
मंगल तक राकेट सुनने में अच्छा लगता है मगर इससे मंगल कितना होगा पता नही।



अगर पोस्ट को शेयर या कमेंट
कर सकें तो मुझे अच्छा लगेगा, क्योंकि लिखते रहने के दीपक में फीडबैक का तेल पड़ते रहना चाहिए**

©अनिमेष

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

मुझे खिसियाहट होती है इन त्योहारों से

इस पोस्ट को पढ़कर यदि आपकी भावनाएं आहत होती हैं तो मै पहले ही आपसे माफी मांग लेता हूँ और सभी पढ़नेवालों से मेरा अनुरोध है कि इस पोस्ट के नीचे अपने कमेंट अवश्य दें।
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मुझे करवाचौथ से खिसियाहट आती है।
जी हाँ!
मेरा स्पष्ट मत है और अगर आप ये कहें कि मै भारतीय संस्कृति का सम्मान नही करता तो मै बता दूँ की इतनी ही खिसियाहट मुझे वैलेंटाइन डे पर भी होती है।

वैसे मूल रूप से तो ये त्यौहार पश्चिमी उत्तरप्रदेश और पंजाब के वैश्य और ब्राम्हणों का त्यौहार था मगर यशचोपड़ा की फिल्मों ने nri मेनिया के फैलाव के साथ इसे पूरे हिन्दोस्तान में फैलाया।आज के दौर में मैंने भारत और इंडिया दोनों जगह इसे अलग-अलग ढंग से मनाये जाते देखा गया है।बात को आगे बढाने से पहले दो घटनाएं सुनिए दोनों मेरे पड़ोस की हैं और वास्तविक है।

एक सरकारी नौकरी में 40,000 महीने कमाने वाली महिला हैं जिनके पति मुश्किल से 10,000 कमाते हैं। मैडम ऑफिस के बाद सीधे मंदिर जाती हैं, हर पूरनमासी को वृन्दावन जाती हैं और घर की सारी ज़िम्मेदारी पति की होती है और अगर कोई गलती हो जाये तो चप्पल से सर जी की पिटाई जायज़ है क्योंकि भगवान की भक्ति में बाधा डालने वाले को दंड तो मिलना चाहिए।

दूसरी तरफ एक भाई साहब हैं जो ठीक ठाक कमाते हैं और पत्नी भी कमाती है। बीवी की सारी कमाई पुत्र लेकर माँ को दे आता है और फिर बीवी अपनी ही तनख्वाह पूरे हिसाब के साथ लोन की तरह मांगती फिरती है। वो पड़ोस में भी जा नही सकती। उसे मैगी पसंद है पर महिने भर की मेहनत और 10,000 रुपए के बाद भी वो एक पैकेट मैगी नही खा सकती क्योंकि सासू माँ को बाज़ार का खाना अच्छा नही लगता।मगर दोनों परिवारों में करवाचौथ अनिवार्य है।

अपने जीवनसाथी की लम्बी उम्र मांगने में कोई बुराई नही है मगर टीवी चैनल की कवरेज और शाहरुख़ खान की फिल्मों से आज यह लगने लगा है कि अगर आपने करवाचौथ पर पत्नी के साथ बोले चूड़ियाँ नही गाया तो आप में कोई कमी है। मेरे घर में इस त्यौहार के लिए कोई स्थान नही है पर नयी पीढ़ी की मेरी भाभियाँ मेरी माँ पर तंज़ कसती दिख जाती हैं कि आप क्या चाचा से प्यार नही करतीं? आप को रखना ही चाहिए।

मेरा सवाल ये है कि ये कौन सी ठेकेदारी है जो ये सर्टिफिकेट दिए जाते हैं आप ऐसा नही करते तो आपने प्रेम नही किया। इसके आलावा बाज़ार के इशारों पर नाचते मीडिया ने जैसे वैलेंटाइन डे पर अकेले फिल्म देखने जाने को अघोषित गुनाह बना दिया है वैसे ही करवाचौथ पर लगता है कि अगर आपने अपनी पत्नी को बच्चन साहब की तरह हीरे के कंगन नही दिए तो जा कर डूब मारिये चुल्लू भर पानी में और विज्ञापन वाली बहनजी सिर्फ 3.5लाख तो ऐसे कहती हैं जैसे सब्जी वाले से 2 गड्डी धनिया मुफ्त में लेने को कह रहीं हों।

3सरी सबसे बड़ी दिक्कत मेरे उन भाइयों से मुझे है जो खुद व्रत रखने लगें हैं। इस दिक्कत का कारण मेरा 'मेल ईगो' नही है। अरे भाई बीवी को भूखा नही देख सकते तो उसे कहो कि व्रत ना रखे या फिर कहो कि जैसे नवरात्रि के या किसी और व्रत में आप सिंघाड़े के आटे की पूड़ी खाने की जुगाड़ कर सकते हैं वैसे वो भी कर ले। मगर आप नही करेंगे क्योंकि आप पति हैं भगवान नही और आप अपनी लम्बी लाइफ के कुछ कीमती साल कम होने का रिस्क कैसे ले सकते हैं। यहाँ पर मुझे 'दिव्य प्रकाश दुबे' की कहानी 'विद्या कसम' याद आ रही जिसमे लड़का कहता है कि सबसे सेफ भगवान की कसम है क्योंकि भगवान् मरते नही हैं।

खैर इस सामूहिक मैरिज अनिवेर्सेरी की शुभकामनाएं लीजिये।मेरे लिए ये राहत की बात है की मुझे जीते जी अपनी पूजा करवाने की ज़िम्मेदारी नही मिली है तो मै थोड़ा-बहुत पापी बना रह सकता हूँ। जाने से पहले जो भी हो कमेंट ज़रूर डालें, सहमत और असहमत दोनों में से जो लगे उसका, आपको आपकी वाली या वाले की कसम।

©अनिमेष

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

हैदर यानी सीरियस सिनेमा की छीछालेदर?


अगर मै लेफ्टिस्ट नही हूँ तो मै आर्टिस्ट नही हूँ। विशाल भरद्वाज के यही शब्द थे जो मैकबेथ की चुडैलों की तरह मेरे ऊपर छाए रहे और to be or not to be के द्वन्द मे फंसे रहने की जगह फिल्म देख ही ली। हैदर की पब्लिसिटी इसके एन्टी नेशनल और सेना के खिलाफ होने को लेकर की जा रही है और औसत स्तर की सफलता से ज्यादा विशाल भरद्वाज के अरुंधती रॉय स्कूल ऑफ़ थॉट्स वाले बयानों ने लगभग हर बौधिकनुमा व्यक्ति को इसके बारे में चर्चा करने को बाध्य किया है।
मेरे लिए हैदर की दो स्तर पर चर्चा अनिवार्य है।
पहली एक फिल्म के रूप में और दूसरी इसकी भावना को लेकर।

अगर फिल्म की बात करें तो जब हैदर अपने पिता की मौत का बदला लेने की कसम खाता है और कहता है की वो रामाधीर सिंह की कह के लेगा और अपनी प्रेमिका से कहता है एक बार जो मैंने कमिटमेंट कर दी तो.......?

क्या हुआ?

आप को जो लगा वही मुझे भी लगा जब 'हमरा फैजल' की जगह बार-बार 'बेटा हैदर!आँख में गोली मारना' डायलाग सुना।

हैदर को भले ही वर्ल्ड सिनेमा देखने वालो के लिए कश्मीर समस्या पर नयी नज़र डालने वाली फिल्म कहा जा रहा हो मगर इसे देखते हुए आप को शिंडलर लिस्ट या एस्केप फ्रॉम सोबिबोर याद नही आएगी, वो तो छोड़िये बैंडिट क्वीन में जिस बदले के जूनून और आग को दिखाया गया है उसका 10-20%  भी फिल्म में नही दिखाया गया है। यदि आप भी इस मुगालते में हैं कि इससे पहले कभी सेना और मानवाधिकार वाला मुद्दा किसी फिल्म में नही उठाया गया है तो इन्ही मेनन साहब की *शौर्य* देखिएगा।


इंटरवल के बाद हद से ज्यादा धीमी होती फिल्म में एक mla के इशारे पर लड़ती सेना की टुकड़ियाँ देख कर तो आश्चर्य तो होता ही है। आतंकी मुठभेड़ के बीच आम लोगों का आते जाते रहना भी हड़ता है। कश्मीरियों का मज़ाक उड़ाते उच्चारण वाली लड़की जो एक लाइन भी सही अंग्रेजी नही बोल पाती है एक अंग्रेजी अखबार के लिए आर्टिकल लिखा करती है।और 1995 में सलमान खान के फैन(वैसे तो यह फैन वाली प्रथा 'तेरे नाम' के बाद शुरू हुई) तुरंत की हिट 'हम आपके हैं कौन' को छोड़ कर 'मैंने प्यार किया' लेकर ही अटके होते हैं। इन सब के बीच कहानी की विद्या बागची की तरह पिता को ढूंढते हुए हैदर बदले और इंतकाम में फँस जाता है। फिल्म का कश्मीर समस्या से जोड़ना एक चुत्स्पा भर लगा।(यह शब्द फिल्म देख कर ही समझ आएगा)

यह आज़ादी की कहानी नही बल्कि बदले की कहानी है और इसका बैक ड्राप कश्मीर की जगह कुछ और भी होता तो खास फर्क नही पड़ता। (कुछ जगहों पर फिल्म में मणिपुर की घटनाओं को कश्मीर का बता कर पेश भी किया गया है)

हालाँकि फिल्म के क्राफ्ट में हैदर से कुछ ज्यादा निराशा इस वजह से हुई क्योंकि मैंने इसे 'बैंग-बैंग' से अलग सीरियस सिनेमा समझ कर देखा। मगर इससे अलग एक दूसरी समस्या है फिल्म के साथ, जिस रूप में फिल्म को प्रोजेक्ट किया जा रहा है वह सही नही है। दिक्कत हैदर में अस्फ्पा की बात को लेकर नही है ना सेना की नकारात्मक छवि को लेकर। सिस्टम के स्याह पक्ष को दिखाने वाली 'प्रहार, शौर्य धूप जैसी फिल्में पहले भी आती रहीं है मगर यहाँ ये ब्रांडिंग सिर्फ फिल्म बेचने के लिए है।

फिल्म का मूलसन्देश हिन्दुस्तान और गाँधी के पक्ष में जाता है मगर फिल्म सेना को एक विलेन के रूप में दिखाती है वो भी बिना ठोस तर्कों के, मसलन आतंकवादी रूह्दार का किरदार इरफ़ान खान के पास है जो अपने शांत और शायराना अंदाज़ में दिल जीतते हैं पर आर्मी ऑफिसर का रोल, विलेन की इमेज लिए हुए आशीष विद्यार्थी के पास है। तीन आतंकवादी बुड्ढों का मजे से गाना गाते हुए कब्र में लेटना और दर्शन की बातें करना उनके लिए मन में सहानुभूति और रोमांस पैदा करता है। फिल्म की शुरुआत में यह मानने को कहा जाता है कि यह 1995 की कहानी है मगर कपड़ों से लेकर सेना की गाड़ियाँ, हथियार सब 2010 के बाद के हैं और एक बेसिक फ़ोन के अलावा ऐसी कोई चीज़ नही जो 1995 के साथ जुडती हो, जिससे एक आम दर्शक यही इमेज लेकर बाहर निकलता है कि कश्मीर में हालत आज भी यही हैं।

आज के दौर में सीरियस सिनेमा को भी बाज़ार के रूप में पकड़ कर utv जैसी कम्पनियाँ हिन्दी सिनेमा की क्रिएटिविटी को ख़त्म करती जा रही हैं और क्रिएटिविटी और क्लास सिनेमा का स्कोप हिंदी सिनेमा से खतम हो रहा है। पिछले साल आई भाग मिल्खा भाग को भी क्लासिक का दरजा दे दिया गया जबकि उसमे फरहान अख्तर से ज्यादा उनके ट्रेनर की मेहनत दिखाई दी थी। वहीँ धनुष की राँझना को ज़बरदस्ती दुसरे हाफ में खींच कर एक अच्छी भली फिल्म को औसत दर्जे की फिल्म में बदल दिया गया।

अगर आप को मेरे तर्क पर विश्वास ना हो रहा हो तो याद करके बताइए विकी डोनर, वासेपुर, कहानी जैसे एक दो नामों के अलावा ऐसी कितनी फिल्में हैं जिन्हें आप आज की तारिख में एक बार फिर देख सकते हैं।

विशाल भरद्वाज के कश्मीर प्रवचनों और प्रोडक्शन हाउस की क्रिएटिविटी के लिए एक बार तो हैदर देख सकते हैं वैसे दोबारा देखने का रिस्क इसे क्लासिक कहने वाले लोग उठाएंगे की नही पता नही।


हाँ! फिल्म के गाने और लिरिक्स अच्छे हैं ख़ास तौर पर बिस्मिल बुलबुल वाला, बस फिल्म के बीच में क़र्ज़ के एक हसीना थी की तरह इस्तेमाल नही होता तो और अच्छा लगता।

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

मोदी, गाँधी, गाँधी-शास्त्री जयंती और गाँधीवाद

दशहरे की पूर्व संध्या के साथ-साथ आज गाँधी और शास्त्री जयंती है और हमारे प्रधान-सेवक नरेन्द्र मोदी जी सड़कों पर झाड़ू लगा रहे हैं। मुझे पता नही या यूँ कहूँ मै पता नही करना चाहता हूँ कि इस काम से लोग कितना सफाई पसंद बनेंगे।मगर एक दूसरा पहलू भी है जिसने मुझे आज बड़ा विचलित किया।

गांधी जयंती पर गाँधी का अनुयायी होने का दंभ भरने वाले लोग इस सफाई अभियान का उपहास कर रहे हैं।वो गाँधी को क्या समझते हैं पता नही पर मुझे इतना पता है कि गाँधी ने कहा था "पाप से घृणा करो पापी से नही।"
हो सकता है ये एक प्रचार का हथकंडा हो मगर इस से प्रेरित हो कर हम अपने अपने परिवेश को तो सुधार सकते हैं।

दूसरी समस्या मुझे अपने कई पूर्व सहपाठियों से लगी जो शायद अपने दिमागी स्तर के निचले पायदान पर ठहरे हुए हैं।सुबह से पोस्ट को अनटैग करने में काफी समय बर्बाद किया जिनका सार यह था कि गाँधी से गया बीता कोई नही इस देश में।
मै गाँधीवादी नही हूँ, मगर 100 में से 80 बार वही सही साबित होते हैं।
जब दिल्ली की एक सर्द सुबह इन्साफ मांगते लोगों पर पुलिस हड्डियों को कंपा देने वाला पानी डालती है और लोग अगले दिन वापस आकर खड़े हो जाते हैं और शांति से कहते हैं कि बिना इन्साफ के वो नही हटेंगे, तो बापू की तस्वीर मानो कहती है की एक गाल के बाद दूसरा गाल सामने कर दो।

जब अबूझमाल जैसे किसी गाँव से कुछ निर्दोषों के मारे जाने की खबर आती है तो फिर अहिंसा याद आती है।
जब लोग चीन से जीतने के लिए उसकी वस्तुओं का बहिष्कार करने की बात करते हैं तो मुझे भी लगे रहो के मुन्ना की तरह बापू की गांधीगिरी समझ आती है।

ऐसा नही है कि मोहन दास करमचंद गांधी भगवान थे जो कभी गलत नही हुए या उनकी हर बात को बिना परखे ही माना जाना चाहिए मगर वो उस बेईज्ज़ती के भी पात्र नही जो उन्हें हर कदम पर मिलती है। आज के तमाम नेताओं की तमाम कमियों के बाद भी लोग उनके चरणों में लोटते हैं मगर सबसे ज्यादा गाली एक ही नेता को देते हैं, गाँधी से ज्यादा अश्लील चुटकुले शायद ही किसी और नेता पर बने हों।

आप गोडसे को संत का दर्ज दीजिये या नही मुझे फर्क नही पड़ता मगर जिस आदमी ने देश के लिए काफी कुछ किया या करने की कोशिश की उसे इज्ज़त तो दीजिये।

दूसरी बात आज की एक पोस्ट के लिए जिसमे शास्त्री जी को हिंदुत्व और जातीय अस्मिता के नाम पर याद किया गया था। जिस आदमी ने कभी अपने सरनेम का प्रयोग नही किया सिर्फ इस वजह से कि उसकी जातीय पहचान का बोध ना हो उसे ही याद करने के बहाने जातीय समीकरण तलाशे जा रहे हैं।

इस उम्मीद के साथ कि भक्तगण आज के दिन नवरात्र को होने वाली प्लास्टिक की प्लेट्स वाली गंदगी को कम करने का प्रयास करेंगे और मोदी की सफाई की शुरुआत को नाटक कहने वाले लोग खुद नालों में उतर कर सफाई करेंगे।

शुभ विजया!

बोलो दुर्गा माई की जय
आस्चे बोछोर आबार होबे
(अगली साल फिर से उत्सव होगा)


बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

मैनेजमेंट वाला प्यार, हिंदी वाली कविता के साथ

पहले mba की पढ़ाई फिर हिंदी साहित्य का छात्र बनना, दोनों का प्रभाव कहीं न कहीं लेखन में आता है।
नयी पत्रिका साहित्य दर्शन ने अपने प्रवेशांक में मेरी जिन दो कविताओं को जगह दी है उन्हें पढ़ कर आप को भी मुझसे सहमत होना पड़ेगा।

#1#

दो कमरे बनवाए हैं
दिल की छत पर
कुछ लम्हे
वक़्त से लोन लेकर,
इनमे
ज़रा यादें छोड़ जाओ
तो कब्ज़ा हो जाए।

#2#

हर बात
जिंदगी के
उसी मोड़ पर ठहरी हुई है,
पर क्या करूँ
ऊधव!
"मन दस-बीस नही होते"

©अनिमेष

रविवार, 28 सितंबर 2014

साहित्य और संगीत का गला हम उसके प्रेम के नाम पर दबा रहे हैं

संस्कृत की एक कहानी हम सभी ने बचपन में पढ़ी है, जिसमें एक राजा एक बन्दर को सेवक बनाकर रखता है। यह सेवक एक दिन अपनी ज़रुरत से ज्यादा सेवा के चाकर में राजा की ही नाक काट देता है। यह कहानी आज एक कार्यक्रम से लौटने के बाद रह रह कर याद आ रही है।

फर्रुखाबाद हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का घराना है और ठुमरी के बड़े विशेषज्ञ स्व० ललन पिया की भूमि भी रही है।

आज ललन पिया जन्मतिथि है और शास्त्रीय संगीत का एक कार्यक्रम शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में था। आज की तारीख में शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में लोग कितनी रूचि लेते हैं इस पर तो किसी को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए मगर लोगों की कुछ बातें दिल को गहरा दर्द दे गयीं तो आप सब से बाँट रहा हूँ। और यह समस्या सिर्फ आज के कार्यर्क्रम की नही कई जगह की है

एक सामान्य श्रोता को नही पता कि भैरवी और खमाज में क्या फर्क है अगर आप एक ही ताल में एक ही जैसी चीज़ सुनाये जा रहे हैं तो सामान्य आदमी के लिए वह एक बोरिंग रिपीटेशन से ज्यादा कुछ नही है।क्या सूफी, ग़ज़ल, कुछ अच्छे भजनों के साथ मिलाकर यदि कुछ विशुद्ध शास्त्रीय कार्यक्रम भी पेश किये जाएँ तो मेरा ख्याल है एक सामान्य व्यक्ति अपने आप को वहां फंसा हुआ नही पायेगा।

दूसरी समस्या मुझे शुद्धतावाद के नाम से होती है, क्या करेंगे हम शुद्धता का जब विधा ही लुप्त हो जाएगी।कभी पंडित रविशंकर को किसी विदेशी कार्यक्रम में बजाते सुनिए, वो इतनी तेज़ी से और आकर्षक ढंग से शुरू करते थे कि सुनने वाला एक पल के लिए चौंकजाता और फिर बिना सुने नही रह पाता था। ऐसा ही कुछ उस्ताद राशिद खान, अमज़द अली खान और शुभा मुद्गल की प्रस्तुति में भी होता है।

शुद्धता की इसी बीमारी ने हिंदी को हास्यास्पद बना डाला है। और सही भी है जब ट्रेन के स्थान पर लौहपथ गामिनी अग्नि रथ शब्द की बात करी जाये तो ना हंसने वाले के साथ निश्चित ही समस्या होगी। ठीक वैसे ही हनी सिंह के गाने सुनने के आदी लोगों को एकदम से 3 घंटे बैठाकर के ख्याल सुनाकर उनकी संगीत में रूचि पैदा करने की कोशिश भी कितनी कारगर है हमें सोचना चाहिए।

आज के तथाकथित बड़े बड़े लेखक साहित्यकार ऎसी हिंदी की कहानियाँ, कविता लिखते हैं जिन्हें समझने के लिए साहित्यिक अल्फा-बीटा, थीटा आदि की ज़रुरत पढ़ती है और अगर किसी का लिखा ज्यादा लोगों को समझ आजाये तो उसका साहित्य की बिरादरी से हुक्का पानी बंद हो जाता है और अंत में रोना पीटना होता है,
"साब आजकल हिंदी को कोई पूछता नही, क्लासिकल को तो कोई सुनना नही चाहता"।

सच बात तो यह है कि लोग सुनाना नही चाहते।
मैंने लगभग हर कवि सम्मलेन में देखा है और आज यहाँ भी देखा कि परफॉरमेंस से पहले कई बड़े कलाकार अपनी फोटो खिंचवाने में लगे रहते हैं और अपना काम निपटते ही उन्हें कोई अर्जेंट काम याद आ जाता है। जब आप खुद ही अपने साथी को सुनना नही चाहते हो हमें काहे सुनने को बोल रहे हो भाई। हमारा सन्डे क्या सन्डे नही है क्या?

बड़ा बुरा लगता है जब कई निस्वार्थ रूप से समर्पित लोगों के कई प्रयासों पर कुछ गलत परम्पराएँ हावी हो जाती हैं।
इन सारी चीज़ों ने इस देश को और इसकी बौद्धिक विरासत को काफी नुक्सान पहुँचाया है। बड़ी ग्लानी होती है जब यह कहना पड़ता है कि फर्रुखाबाद घराने का अब कोई भी फर्रुखाबाद में नही है। मुझे अन्दर से लगता भी है ये सूरत बदलनी भी चाहिए किन्तु इस तरह की हरकतों से(जो आज के कार्यक्रम में देखीं) तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी के मन में अपने साहित्य और शास्त्रीय संगीत के प्रति एक खौफ पैदा कर रहें हैं।

अगर आप इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं और आप साहित्य या संगीत से जुड़े हैं तो कोशिश करिए की उसे सभी के समझने लायक बनायें और यकीन मानियें ऐसा आप उसकी क्वालिटी को गिराए बिना भी कर सकते हैं।

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

दीपिका पादुकोण और टाइम्स ऑफ़ इंडिया, कपड़ों और भाषा से परे यहाँ सब गुंडे हैं

एक सज्जन ट्रेन में जा रहे थे और सो गए किसी ज़रूरतमंद आदमी ने उनकी जेब से उनका मोबाइल निकाल लिया। जब वह उठे तो बड़ा दुखी हुए मुझसे मांगकर फोन बीवी को लगाया था और फोन उठाते ही उससे बोले

"तुम्हारी गलती से आज मोबाईल चोरी हो गया।
घर आकर बताता हूँ तुझे!"

मेरे कुछ पूछने से पहले खुद ही बताया कि , साहब बीवी ने सुबह पेट भर कर आलू के पराठे खिला दिए तो नीद आगई, न वो पेट भर कर खिलाती न ये नुक्सान होता।

हिन्दुस्तान में हर गलत बात औरतों से शुरू और ख़त्म होती है।लव जिहाद के कारण धर्म के खतरे में आने से लेकर विराट कोहली के रन ना बनाने तक की ज़िम्मेदार सिर्फ महिलाएं ही होती हैं। एक सुन्दर सी पुलिस अफसर को उसका बॉस छेड़ता है तो गलती उस महिला की(अरुणा राय), एक नेशनल शूटर किसी उच्चवर्ग के पुरुष के प्रेम में पड़ कर उससे शादी करती है और वह व्यक्ति धोख़ेबाज निकलता है तो लड़की की (तारा शाहदेव) गलती ऐसे बताई जाती है कि जैसे अरेंज मैरिज में तो कोई झूठ बोलता नही।

पिछले दिनों टाइम्स ऑफ़ इंडिया के और दीपिका पादुकोण के बीच चल रहे विवाद ने हम सबके दिमागों में पल रही उस मानसिकता को उजागर किया जिसमें वह सिर्फ एक वस्तु है। टाइम्स सहित कई अखबार तथा चैनल अपने ऑनलाइन माध्यमों में हीरोइनों के फोटो को सनसनीखेज शीर्षकों के साथ प्रस्तुत कर के ही अपनी दुकान चलाते हैं और जो लोग कल तक बस स्टाल पर कोई राजनितिक पत्रिका उठाने के बहाने से मनोहर कलियाँ या मैक्सिम को कनखियों से देखा करते थे, आज अपने फ़ोन की स्क्रीन पर उसे जी भर कर देख कर खुश होतें हैं।
इस पूरे व्यापर के डिमांड और सप्लाई वाले तर्क के कारण इस पर आपत्ति करने का कोई औचित्य नही है मगर मुझे सबसे ज्यादा हैरानी हुई टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एडिटोरियल को पढ़ कर।

एक अभिनेत्री के किसी पुराने विडियो को जिसमे उसके अन्तःवस्त्र गलती से दिख रहे हैं या साडी का आँचल अपनी जगह से हट गया है को आपने ज़ूम कर उसपर लाल घेरा बनाकर आपने उसे खबर बनाकर पेश किया। इस पर जब आपत्ति की हुई तो आपने लिखा की यह तो सुन्दरता का कॉम्पलिमेंट है।
क्या यही कॉम्पलिमेंट आपकी माँ, पत्नी या बहन को दिया जाये तो चलेगा?
इस पर जब फिर से दीपिका ने आपत्ति की और अपने फ़िल्मी किरदारों से अपने निजी जीवन को  अलग जाताया तो टाइम्स की प्रतिक्रिया ऎसी ही थी जैसे कि गली का कोई गुंडा किसी लड़की को छेड़ता है उसे प्रोपोज करता है और लड़की के ना कहने पर उसपर तेजाब फेंकता है या उसके चरित्र को लेकर ऊँगली उठाता है। जो चित्र साथ में टाइम्स ने छापे और जिन शब्दों के साथ कहा कि "हमने आप के *और * की बात तो नही की थी", उन्हें हिंदी में लिखने पर यह ब्लॉग 18+ की श्रेणी में चला जायेगा।

इस देश में एक विडम्बना है कि आप अगर अंग्रेजी बोलना सीख लें फिर बोआ की किताब 'the second sex' और जेन ऑस्टिन की pride and prejudice  पढ़ लें तो आप प्रगतिशील हो गए और इन सबके बीच यदि आपने इंडिया गेट पर ओरी चिरय्या जैसे गाने गा लिए तो फिर आपको एक्टिविस्ट का तमगा मिलना तय है। पिछले साल सोमा जी को याद करिए, कैसे तरुण तेजपाल जी के महिला अधिकारों को एडजस्ट किया था। यही मोहतरमा आसाराम के खिलाफ बगावत का झंडा बुलन्द करे थीं।


किसी का भी पेशा ऐसी चीज़ों की डिमांड करता है जो शायद उसे व्यक्तिगत जीवन में पसंद ना हों। और हर व्यक्ति अपने जीवन में अलग अलग घेरे बना कर रखता है। ऑफिस में बहुत सख्त बॉस प्रेमिका के सामने दयनीय हो सकता है तो सास ससुर के सामने साडी में रहने वाली महिला पति के साथ किसी बीच पर शॉर्ट्स में आराम से घूम सकती है।यह हिप्पोक्रेसी नही अपने अपने कम्फर्ट जोन का मामला है।

कोई भी कोई काम क्यों चुनता है और कैसे करता है इस बात से किसी को कोई समस्या नही होनी चाहिए और किसी के दैनिक जीवन से (विशेष रूप से लड़की के) उसे शर्मिंदा करने वाली बातें ढूंढ कर उसपर झगडा करना कहीं से भी पत्रकारिता नही है। पश्चिम के पपराजी जो घिनौनी चीज़े पत्रकारिता के नाम पर करते हैं उन्ही को हिन्दुस्तान में लागू करने की यह घटिया कोशिश है।(अगर आप को याद हो पिछले साल केट मिडल्टन की छुप कर ली गयी तस्वीरों से उन्हें कैसे शर्मिंदा करा गया था)

टाइम्स ऑफ़ इंडिया का यह आर्टिकल बताता है कि भाषा, बोलचाल, कपड़ों आदि के अंतर के बाद भी लोग अन्दर से एक जैसे ही हैं, घटिया और जंगली।
अपनी ही लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं

"तुम्हारे लिबास
कम ज्यादा
आधे पूरे
चमकते सादा
चाहे जो हों
फर्क नही!
इस शहर की
तहजीब है
तमाशा देखना" -©अनिमेष

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

साहित्य के सफ़र में जानकीपुल पर कुछ पल

पिछले दिनों जब ABP news ने घोषणा की कि हिंदी के ब्लॉगर सम्मानित किये जाएँगे तो मेरी पहली प्रतिक्रिया थी "जानकीपुल का नम्बर पक्का है!"

यूँ तो हिंदी ब्लॉग और ब्लॉगर, साहित्य के पर्वर्दिगारों की नज़र में अक्सर टाइमपास ही होते हैं और "फेसबुक आपको समाज और अच्छे लोगों से काटता है" जैसी धारणा सोशल मीडिया पर लिखे गए हर दूसरे लेख में दिखाई दे जाती है मगर पिछले कुछ समय में मैंने अपने आस पास इन दोनों तथ्यों को गलत साबित होते देखा है।

जानकीपुल से पहला संपर्क किसी मित्र की वाल पर हुआ जिसमें मुजरे और गाने वाली बाई जी को लेकर लिखे गए एक पोस्ट को शेयर किया गया था।वहीँ प्रभात रंजन जी से संपर्क भी इसी पुल के माध्यम से हुआ।

जानकीपुल पर ही पढ़े गए लेख के कमेंट से दिव्यप्रकाश दुबे और उनकी मसाला चाय से पहचान हुई और जो धीरे धीरे और गहरा गयी तो iit के छात्र के द्वारा लिखे गए सिनेमा के नौ रसों को पढ़ कर अपने आप को सोच में पड़ा पाया।

आज कल अधिकतर साहित्यिक पत्रिकाओं में कविता पन्ने भरने के काम ज्यादा आती है नए कलेवर को दिखने में कम। मगर कई दिनों बाद सुभम श्री का लिखा-

"बिल्लू हार नही माना रार नयी ठाना"

अपने आप जुबां पर आकर बैठ गया। प्रभात जी आपने जिस खूबसूरती से केदारनाथ अगरवाल से लेकर आज के कवियों लेखकों को मंच दिया है वो तो प्रशंसनीय है ही। हम जैसे पाठकों और साहित्य के छात्रों की जो मदद आपके इस जानकीपुल से हुई है वो भी बड़ा महत्वपूर्ण है।
भारतेंदु जी पर लेख हो या मिश्र बंधुओं के द्वारा स्थापित की गयी आलोचना के ऊपर प्रकाश डालती पोस्ट ये सब मिलकर कुछ एक्स्ट्रा नंबर तो दिलाएंगे ही।


बस यही वजह रहीं कि जब ABP के सम्मान की फोटो प्रभात जी के वाल पर देखी तो उसमे एक टुकड़ा अपना भी नज़र आया।

अगर अच्छे हिंदी साहित्य में आप की भी रूचि है तो एक बार इस लिंक को देख ही डालिये।

www.jankipul.com

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

मध्य वर्ग के सुन्दर काण्ड

        

 

आप के जीवन में कुछ ऐसे कार्यक्रमों के निमंत्रण आते ही हैं जिनमे जाने के लिए शादी से पहले आपकी माँ तथा शादी के आपकी पत्नी लम्बा भाषण पिलाती है और अंत में दोस्तों से, "अबे शुक्ला के घर की बात है, जाना पड़ेगा" की स्वीकृति के बाद आप को जाना ही पड़ता है। एक इतवार की शाम को मुझे भी ऐसे ही आयोजन में जाना पड़ा।

 

वैसे तो ये सुन्दरकाण्ड का पाठ था मगर आप इस नाम की जगह माता की चौकी, जगराता, साईं संध्या या ऐसा ही कुछ नाम रख सकते हैं और हिंदी भाषी भारत की कोई भी गली, मोहल्ला, कालोनी को स्थान मान सकते हैं।

 

अब सवाल ये कि ये आयोजन क्यों?

तो इसका सीधा सा जवाब है कि भारतीय मिडिल क्लास परिवार की श्रद्धा ऐसे आयोजनों के लिए दो कारणों से जागती है।

 

पहला जब पड़ोस के सक्सेना साहब और गुप्ता जी  ने तरक्की मिलने पर ऐसा कोई आयोजन करवा दिया हो

या फिर ग्वालियर वाली बुआ के देवर के लड़के का iit में सिलेक्शन ऐसी ही किसी मनौती के बाद हुआ हो।

 

मगर विविध भाषा वाले देश में कुछ ऐसे मूल तत्व हैं जो हर परिस्थिति में अटल रहते हैं।

 

सरकारी स्कूल में आधे से ज्यादा टाइम स्टाफ रूम में बिताने वाले हिंदी या संस्कृत के गुरूजी इतवार की शाम और अपने ज्ञान का समुचित उपयोग कर अतिरिक्त पुण्य और पैसा दोनों कमा लेते हैं।

इंडियन आइडल की लाइन में लगे रहने वाले कई घरेलू पॉप स्टार अपनी गाने की भड़ास को फ़िल्मी धुनों के भजनों से पूरा करलेते है और बीच बीच में कुछ दोहे चौपाई बड़े ही कलात्मक ढंग से गुलाम  अली स्टाइल में सुना कर आपकी धार्मिकता को भी जिलाए रखते हैं।

 

मेजबान mr शर्मा छप्पन इंच की मुस्कान के साथ स्वागत में दिख जाते हैं वहीँ mrs शर्मा अपने नए अनारकली सूट में फोटोशूट कर फेसबुक पर पोस्ट करती रहती हैं ।

 

एक कोने पर कॉलेज जाने वाली पार्टी कूल होकर नाचती झूमती दिखती है।

आप कह सकते हैं की अगर ये लोग हनी सिंह की जगह हनुमान चालीसा पर झूम रहे हैं तो इससे भारतीय संस्कृति का भला हो रहा है मगर यकीन मानिये कि जब से हर शादी में dj अनिवार्य हुआ है लोग मुन्नी और शीला क्या जनरेटर की आवाज पर भी नाच सकते हैं।

 

वैसे इस भीड़ में कुछ लोग ऐसे भी दिख जाते हैं जो किसी कोने में बैठकर अपनी बाकी बच गयी आस्था को किसी तरह जोड़तोड़ कर अपना ध्यान लगाने की कोशिश कर रहे होते हैं ओर दूसरी तरफ मेरे जैसे बीच में उठ आने वाले भी होते हैं जिनके लिए कहा जाता है कि, "पढ़ लिख कर ज्यादा मॉडर्न होगए हैं।"

 

वास्तव में संगीत और धर्म का बैर नही है।

भक्ति में जितनी साधना और तपस्या है उतना ही परम आनन्द का उत्सव भी है।

वृन्दावन और ऐसी ही कई जगहों के कुछ मंदिरों में आज भी वह भावपूर्ण कीर्तन होता मिलजाता है कि मन होता है सब कुछ भूल कर उसी में खो जाएँ।मगर जो इन तथाकथित धार्मिक आयोजनों में हो रहा है वह माध्यमवर्गीय समाज के द्वारा अपने आप को बाकियों से बेहतर साबित करने की कोशिशों पर चढ़ाया गया धर्म का मुल्लमा मात्र है।

तभी तो चीनी का खर्च महीने में 10 ₹ बढ़ जाने पर हंगामा करने वाले लोग माइक पर अपने नाम से अरदास सुनने के लिए 100₹ हँस कर देते हैं।

 

इन सबके बीच मेरी भगवान से यही प्रार्थना है की ऐसे आयोजनों से बचाते हुए वह मेरी आस्था को बचाए रखे।


मंगलवार, 2 सितंबर 2014

लव और जिहाद दोनों को अलग अलग ही रखो भाई

जैसे गुलाब और जामुन दोनों मिलकर जब गुलाब जामुन बन जाते हैं तो उसका अर्थ कुछ और ही होजाता है। ऐसा ही आज कल चर्चा में आये दो शब्दों के साथ है।
लव अर्थात प्रेम और जिहाद अर्थात अपने आप के साथ किया गया संघर्ष, किन्तु जब दोनों मिलकर साथ आते हैं तो यह लव जिहाद एक दुसरे ही अर्थ में सुनाई देता है।


ये लव जिहाद वास्तविक है या राजनितिक कल्पना इसका उत्तर मेरे पास न है न मुझे चाहिए मगर कुछ बातें मै दोनों पक्षों (सेक्युलर vs हिंदुत्व) से पूछना चाहता हूँ।

तारा सहदेव के साथ जो कुछ भी हुआ क्या वैसी हिंसा किसी और लड़की, चाहे उसकी शादी कैसे भी हुई हो, के साथ नही होती।

अगर आपकी बहन, बेटी इतनी बेवकूफ है कि किसी भी लड़के के पास में एंड्राइड फ़ोन या पल्सर मोटरसायकिल देख कर उसके साथ चल दे तो उसको पढ़ाइये लिखाइये ना कि लड़कों के पीछे पड़ जाइये।

जब हिंदुत्व को बचाने के नाम पर 5-10 बच्चे पैदा करने की बात करी जाती है तो क्या यह समाज और राष्ट्रद्रोह नही है।(संसाधनों और जनसँख्या के कारण)

आपने कितने मुस्लिमों को देखा है जो एक से ज्यादा बीवियाँ रखते हैं।मेरी जानकारी में ऐसा कोई नही है।

और फेसबुक और whatsapp पर आने वाले sms कि फलानी जगह मंदिर गिराया जा रहा है उस जगह मस्जिद को नुक्सान पहुँचाया गया, क्या ये इतने छोटे मामले हैं कि सिर्फ sms में सिमट जाएँ।याद रखिये कि एक मस्जिद गिरी थी तो देश आजतक भुगत रहा है।


मोरल ऑफ़ स्टोरी ये है कि लव भी करिए और अपने आप के साथ जिहाद भी करिये (कृष्ण ने भी कहा है युद्ध करो पार्थ!) मगर दोनों को अलग अलग अलग रखिए।

नोट- यह पोस्ट रोज रोज आने वाले स्पैम sms के लिए लिखी है जो धीरे धीरे कैंडी क्रश की जगह ले रहें हैं।

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

इश्क़ में और इश्क के होने का अहसास, पढ़ कर देखिये

इश्क़ तुम्हे हो जाएगा, इस किताब का ज़िक्र करने की कई कोशिशें नाकाम रहीं।हर बार लगता कि थोड़ा सा और डूब कर देखूं थोड़ा और बारीकी से समझूँ।


एक समस्या और आती है, न सिर्फ मेरे और अनुलता जी के नाम के पहले दो अक्षर एक जैसे हैं कई जगहों पर नज्मों को बुनने का सलीका और तरीका भी एक जैसा है।

खैर!,,,,,

सबसे सुकून देने वाली किताबें वो होती हैं जिन्हें हम पीछे से पलटना शुरू करते हैं और जब बैक कवर पर आप पढ़ते हैं की

तुम पर लिखी नज्मों की स्याही से रंगे हुए हैं हाँथ मेरे
तुमसे इश्क़ का सीधा इलज़ाम है मुझपर
एक सजा ख़त्म हो तो नयी नज़्म लिखूं ,

तो ये किताब भी डबलबेड के सिराहने रखने वाली किताब बन जाती है।पापा के लिए लिखी गयी कविता अनजाने ही मन को थोड़ा सा तरल कर देती है। चिता में प्रेमपत्र जलाकर यादों का पिंडदान करने की बात एक अलग nostalgia का अहसास लिए है तो सुबह हरसिंगार के फूल चुनती वो खुद ही चाँद है पढ़ कर जलन सी होती है दिल में काश! हमने भी ऐसा सोचा होता कभी।

इस किताब को पढने से पहले कहा गया था कि इसे ख़ामोशी से पढोगे तो इश्क तुम्हे हो जायेगा और हो भी गया। वही 7 मकामों वाला इश्क गुलज़ार का हल्का हलका नमकीन वाला इश्क या ग़ालिब का दिले नादां वाला इश्क़।

आप भी कुछ टुकड़े इस इश्क के चखिए और रूमानी होकर देखिये।

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सो लौटा दिया मैंने वो तूफ़ान वापस समंदर को
बस रह गए कुछ मोती, अटके मेरी पलकों पर
जो लुढ़क आते हैं गालों तक
कि नाकाम इश्क़ की निशानियाँ भी कहीं सहेजी जाती हैं।

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तुमने कहा
मेरी आँखों में बसी हो तुम
मैंने कहा
कहाँ? दिखती तो नही
तुमने कहा
दिल में उतर गई
अभी-अभी

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न मोहब्बत
न नफरत
न सुकून
न दर्द
कमबख्त कोई अहसास तो हो
एक नज़्म लिखे जाने के लिए।

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वहम
शंकाएँ
तर्क-वितर्क
ग़लतफहमियाँ
सहमे अहसास
लगता है मोहब्बत को
रिश्ते का नाम मिल गया।
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####


ये तो चन्द अहसास हैं बाकी के लिए आप भी पिछली तरफ से पन्ने पलटना शुरू करिए।
©अनिमेष


रविवार, 17 अगस्त 2014

कृष्ण अर्थात कष्ट में रह कर इंसान बने रहना

कृष्ण अर्थात, जिसकी हत्या की ज़िम्मेदारी खुद  उसके पिता ने उसके जन्म से पहले ही ले रखी हो।

कृष्ण अर्थात, जिसे पैदा होते ही बाढ़ में उफनती नदी पार करनी पड़ी हो।

कृष्ण अर्थात, जिसे बचपन से ही जिसे रोज मार दिए जाने के खतरे से जूझना पड़ता हो।

कृष्ण अर्थात, जिसे देह के रंग के भेदभाव से रोज़ चिढाया जाता हो।

कृष्ण अर्थात, 12 साल की उम्र में सत्ता से सीधा टकराव।


कृष्ण अर्थात, 16000 शारीरिक शोषण की मारी लड़कियों को संरक्षण देना, दासी नही रानी के रूप में और वो भी बिना अग्निपरीक्षा लिए।

इन सबके बाद भी वो नटखट, सलोने बने रह पाते हैं। बाँसुरी पर ललित, मालकोंस, भैरवी के आलाप के लिए समय निकाल पाते हैं। श्रीदामा की बांह पकड़कर उसे धमका भी लेते हैं। यशोदा के सामने भोले बनकर दाऊ की शिकायत करते हैं और नन्द से सवाल भी पूछ लेते हैं-
"बिना कारण इंद्र की पूजा क्यों बाबा"?
किताबों के ढेर को ज्ञान समझने वाले ऊधव को बड़े मज़े से ढाई आखरों का महत्त्व समझाने वाले माधव अपनी ही बहन को उसकी जबरदस्ती की arrange marriage तुड़वा कर उसे जाने देते हैं, उसके crush के साथ।

महाभारत के तीरों और दिव्यास्त्रों के बीच यूँ ही बिना किसी सुरक्षा और हथयार के मुस्कुराते हुए आते जाते कृष्ण जिस ऊंचाई से गीता के उपदेश देते हैं उसी तत्परता से रथ में जुटे घोड़ों को भी सहलाते हैं।

कृष्ण होना अर्थात पत्तल उठाने और सम्मानित होने में भेद ना करना।कृष्ण होना अर्थात जिस दुशासन को पूरी सभा न रोक पाई हो वो सिर्फ कृष्ण का नाम लेने से डर कर रुक जाए।कृष्ण होने का अर्थ है हर विषमता और ईश्वरत्व के बाद भी मानव बने रहना।

अतः जब कभी भी कहें कि वो करें तो रासलीला हम करें तो.....
तो एक बार फिर से सोचें।

जाते जाते स्वर्गीय देवल आशीष की कुछ अमर पंक्तियाँ-


विश्व को मोहमयी महिमा के असंख्य स्वरुप
दिखा गया कान्हा,
सारथी तो कभी प्रेमी बना तो
कभी गुरु धर्म निभा गया कान्हा,
रूप विराट धरा तो धरा तो धरा हर लोक पे छा गया कान्हा,
रूप किया लघु तो इतना के यशोदा की गोद में आ गया कान्हा,
चोरी छुपे चढ़ बैठा अटारी पे चोरी से
माखन खा गया कान्हा,
गोपियों के कभी चीर चुराए
कभी मटकी चटका गया कान्हा,
घाघ था घोर बड़ा चितचोर था चोरी में नाम कमा गया कान्हा,
मीरा के नैन की रैन
की नींद और राधा का चैन चुरा गया कान्हा,
राधा नें त्याग का पंथ बुहारा तो पंथ पे फूल बिछा गया कान्हा,
राधा नें प्रेम की आन निभाई तो आन का मान बढ़ा गया कान्हा,
कान्हा के तेज को भा गई राधा के रूप को भा गया कान्हा,
कान्हा को कान्हा बना गई राधा तो राधा को राधा बना गया कान्हा,
गोपियाँ गोकुल में थी अनेक परन्तु गोपाल को भा गई राधा,
बाँध के पाश में नाग नथैया को काम विजेता बना गई राधा,
काम विजेता को प्रेम प्रणेता को प्रेम पियूष पिला गई राधा,
विश्व को नाच नाचता है जो उस श्याम को नाच नचा गई राधा,
त्यागियों में अनुरागियों में बडभागी थी नाम लिखा गई
राधा,
रंग में कान्हा के ऐसी रंगी रंग कान्हा के रंग
नहा गई राधा,
प्रेम है भक्ति से भी बढ़ के यह बात
सभी को सिखा गई राधा,
संत महंत तो ध्याया किए माखन चोर को पा गई राधा,
ब्याही न श्याम के संग न द्वारिका मथुरा मिथिला गई राधा,
पायी न रुक्मिणी सा धन वैभव
सम्पदा को ठुकरा गई राधा,
किंतु उपाधि औ मान गोपाल की रानियों से बढ़ पा गई राधा,
ज्ञानी बड़ी अभिमानी
पटरानी को पानी पिला गई राधा,
हार के श्याम को जीत गई अनुराग का अर्थ बता गई राधा,
पीर पे पीर सही पर प्रेम
को शाश्वत कीर्ति दिला गई राधा,
कान्हा को पा सकती थी प्रिया पर
प्रीत की रीत निभा गई राधा,
कृष्ण नें लाख कहा पर संग में न गई तो फिर न गई राधा.

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

बिहार में एक कहावत है "औकात चवन्नी भर का भी नाहीं अउर भोकाल डालर भर का" इसी के समांनांतर एक शब्द up के पूर्वी अंचलों में प्रचलित है चुतिअमसल्फेट, इन दोनों शब्दों को यहाँ पर प्रयोग करने के पीछे मेरा क्या आशय है उसे समझने के लिए स्कूल के दिनों से जुडी एक घटना सुनिए।

गुरूजी ने कहा "सूरदास तब विहंसी जसोदा लै उर कंठ लगायो" इस पंक्ति की व्याख्या करो-

छात्र बोला "सर! सूरदास जी ने खुश होकर के यशोदा को गले से लगा लिया"

अब आप सोच रहें होंगे इन बातों का आपस में सम्बन्ध क्या है? और इन बातों को आज यहाँ कह्मे का तुक क्या है?

तो जनाब ये चवन्नी भर वाले लोग हैं हमारे कई फेसबुकिये राष्ट्रवादी साहित्यकार और जिस कविता की वो व्याख्या कर रहे हैं वह है हमारा राष्ट्रगान। पिछले कुछ दिनों में मैंने कई लोगों को अपने अपने तरह से गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर और राष्ट्रगान का मजाक देशभक्ति के नाम पर उड़ाते देखा। और तर्क भी इतने हास्यास्पद और गए बीते कि कपिल शर्मा के शो में नारी अस्मिता का मज़ाक भी पीछे छूट जाये। एक सज्जन तो अपना लिखा हुआ नया राष्ट्रगान तक ले आये समाधान के तौर पर।पहले ज़रा तर्क सुनिये-


गरमपंथी तिलक के नेतृत्व में वन्देमातरम गाते थे और नरमपंथी जन गण मन और 1941 में तिलक ने जन गण मन का विरोध किया था।
जबकि तथ्य यह है कि तिलक जी की मृत्यु 1920 में ही हो चुकी थी।

नेहरू जी ने इसकी धुन बनवाई क्योंकि यह ऑर्केस्ट्रा में बज सकता था।
वास्तविकता यह है कि इसकी धुन आज़ाद हिन्द फौज के लिए कप्तान राम सिंह जी ने बनायीं और इसे मिलिट्री बैंड के लिए चुना गया था।

इसको बनाने के कारण टैगोर जी को नोबेल मिला। जबकि गुरुदेव के नोबेल पुरूस्कार के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने खुद अपनी रचनाओं का अनुवाद किया जिससे उनका स्तर बना रहा।

और ब्रम्हास्त्र टाईप का तर्क कि यह जॉर्ज पंचम का स्तुति गान है।तो बाकी बातें छोड़ कर सीधे सीधे आते हैं राष्ट्र गान की बात पर।

राष्ट्रगान के ऊपर एक विशेष आरोप लगता है कि यह जॉर्ज पंचम की स्तुति है।
किन्तु यह आरोप तय करते समय हम इसके पूरे गीत को न लेकर सिर्फ पहले बंध की ही व्याख्या करते हैं।
अगर पूरा जन गण मन पढ़ें तो पायेंगे कि यह कुरुक्षेत्र में खड़े कृष्ण का आवाहन है कि वह देश के सोये हुए अर्जुनों को जगाएं।

मेरे लिए इस समय पूरे राष्ट्रगान की व्याख्या लिखना संभव नही है परन्तु इसमें आये दो शब्द चिर-सारथि और तव शनख्धवनि बाजे से आप इश्वर के साथ इसका सम्बन्ध जोड़ सकते हैं।

जाते जाते महाकवि टैगोर के बारे में दो बातें
जो शायद आप की जानकारी में ना हो जिस बंद गले के कोट को आप भारतीयपन दिखाने के लिए पहनते हैं वह इन्ही की डिजाईन है और भारतीय स्त्रियाँ पहले साड़ी के साथ ब्लाउज नही पहनती थीं यह चलन भी इन्ही के प्रयासों से शुरू हुआ। और इसका विरोध आज जीन्स या मिनी स्कर्ट पहनने से ज्यादा हुआ था।


साथ ही सम्पूर्ण राष्ट्रगान और डॉ शिवोम अम्बर की किताब गवाक्ष का एक लेखांश

जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा
द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मागे
गाहे तव जय गाथा
जन गण मंगल दायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे
अहरह तव आह्वान प्रचारित
शुनि तव उदार वाणी
हिन्दु बौद्ध शिख जैन
पारसिक मुसलमान
खृष्टानी
पूरब पश्चिम आशे
तव सिंहासन पाशे
प्रेमहार हय गाँथा
जन गण ऐक्य विधायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे
अहरह:
निरन्तर; तव:
तुम्हारा
शुनि: सुनकर
आशे: आते हैं
पाशे: पास में
हय गाँथा:
गुँथता है
ऐक्य: एकता
पतन-अभ्युदय-बन्धुर-पंथा
युगयुग धावित यात्री,
हे चिर-सारथी,
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माझे
तव शंखध्वनि बाजे,
संकट-दुख-त्राता,
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
अभ्युदय: उत्थान;
बन्धुर: मित्र का
धावित: दौड़ते हैं
माझे:
बीच
में
त्राता:
जो मुक्ति दिलाए
परिचायक: जो परिचय
कराता है
घोर-तिमिर-घन-निविड़-
निशीथे
पीड़ित मुर्च्छित-देशे
जाग्रत छिल तव अविचल मंगल
नत-नयने अनिमेष
दुःस्वप्ने आतंके
रक्षा करिले अंके
स्नेहमयी तुमि माता,
जन-गण-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
निविड़: घोंसला
छिल: था
अनिमेष: अपलक
करिले: किया; अंके:
गोद में
रात्रि प्रभातिल उदिल रविछवि
पूर्व-उदय-गिरि-भाले,
गाहे विहन्गम, पुण्य
समीरण
नव-जीवन-रस ढाले,
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा,
जय जय जय हे, जय राजेश्वर,
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

क्योंकि गुलज़ार बस गुलज़ार हैं

गुलज़ार साहब पर लिखना ज़रूरी है।
इसलिए भी कि उनका जन्मदिन आ रहा है,
इसलिए भी कि "oh hindi!" जैसे जुमलों के बीच वो चुपके से ज़री वाले आसमान से हो कर हिंदी गीत के लिए ऑस्कर ले आते हैं,

इसलिए भी कि 'पिछले पन्ने' में लिखे गए उनके संस्मरण साहिर, जादू और गोरख पाण्डेय को जिंदगी का हिस्सा सा बना देते हैं, और इसलिए भी कि दिमाग घर पर रखकर देखी गयी साज़िद खान की हमशक्ल के टॉर्चर के बीच उनकी अंगूर की errorless comedy याद आती है,

इसलिए भी बड़ी गंभीर सी कोई नज़्म समझाते समझाते अचानक वो रटवा देते हैं कि "चड्डी पहन के फूल खिला है", और इसलिए की चार बोतल वोडका के बाद एक ही चीज़ नाचने को मजबूर करती है "सपने में मिलती है कुड़ी मेरी।"

कभी जिगर से जलती बीड़ी, कभी नमक इश्क़ का तो, कभी "लटों से उलझी-लिपटी रात हुआ करती थी" या फिर कभी "बैठें हैं तस्सुवरे जाना किये हुए" जैसे गीतों से हर बार प्रेम को एक नया रूपक देने के बाद भी शायद साहित्य के महाग्रंथों में भले ही इन गीतों को जगह ना मिले मगर आने वाले कई गीतकार, शायर, लेखक जिनमें चाहे आलोक श्रीवास्तव जैसे बड़े उम्दा नाम हों या मेरे जैसे बेहद मामूली और गुमनाम छात्र इनसे ही द्रोणाचार्य और एकलव्य की तरह तालीम लेते रहेंगे।

गुलज़ार साहब से दो चीजें मैंने भी सीखी है।
(ये नही पता अमल में कितनी आई)
घटनाओं के बीच में एक पल को जब दुनिया ठहर जाती है उस लम्हे को शब्दों में कैद करना, जैसे वो
कहते हैं
"फितूर है मेरा मगर फिर भी
मोहल्ले वालों की नज़र बचाकर
उस खम्बे से पूछा करता हूँ,
मेरे जाने के बाद वो आई थी क्या"?

या घर के किसी भी कोने से कोई शब्द उठा कर उसे एक ताज़ा नज़्म बना देना, वरना रिक्शा, सीली सीली रात, बीड़ी और चिमटा को शायद ही कभी कविता में कोई और गीतकार जगह देता।


खैर जब किसी ने मेरी कविता
"वक्त तुम्हारे संग
मखमल सा गुज़रता है,
कुछ पुराना सामान है घर में
हटा लूं, तो यही बसा लूं तुम्हे"

या

"बाढ़ पैरों से बहाकर लगई
तान के छतरी खड़े से रह गये"

पढ़ कर पूछा कि, गुलज़ार को पढ़ कर लिखा है?
तो जो अहसास हुआ उसे बयाँ नही कर सकता।

शुक्रिया गुलज़ार साहब हम सबको गुलज़ार करने के लिए।

बुधवार, 6 अगस्त 2014

प्राण चाचा चौधरी और हम

दूरदर्शन पर शक्तिमान और कैप्टेन व्योम के आने से पहले गर्मी की छुट्टियों में दो चीज़ें हर बच्चे के लिए ज़रूरी थीं एक छुट्टी छुट्टी प्रोग्राम और दूसरा किराए की कॉमिक्स, यकीन मानिए अगर 80-90 के दौर के किसी बच्चे ने कॉमिक्स नही पढ़ी तो उसने बचपन नही बचपना ही देखा है।
इन कॉमिक्स में हमारी पसंद ध्रुव और नागराज होते थे और घर वालों के चाचा चौधरी।

चाचा चौधरी और साबू के साथ पढ़ते सीखते अखंड ज्योति, नंदन, बालहंस हाथ आई और देखते ही देखते कादम्बिनी समझ में आने लगी।

ग्लोबल होती दुनिया ने प्रेमचंद से इतर किसी को शेखर एक जीवनी की लत लगायी तो किसी को नरेन्द्र कोहली की रामकथा की, अलकेमिस्ट के साथ अंतर्राष्ट्रीय हुए ना जाने कितने पाठक आज फेस्बुकिये कलमकार से लेकर युवा साहित्यकार बन चुकें हैं।

आज के समय में कार्टून में शिन्चैन जब अपनी माँ को ऐ बुढ़िया कह कर बुलाता है या क्लास 11-12 के बच्चे स्कूल के पुस्तकालय से 11 मिनट्स या ट्वाईलाईट सागा की मांग करते हुए 50 शेड्स ऑफ़ ग्रे की हसरत लिए दीखते हैं तो ऐसा लगता है हमसे ठीक पहले और हमने कुछ ऐसा छोड़ा ही नही है कि हमारी अगली पीढ़ी बचपन से थोडा थोडा कर के अपनी आत्मा, अपनी जड़ों से जुड़ सके।

हालांकि प्राण और चाचा चौधरी दोनों ही रिटायरमेंट के दिन काट रहे थे मगर आज प्राण साहब के जाने के बाद अब कोई नही है जो सरल और क्रिएटिव रहते हुए भी रोचक रहे और देसी भी। जिसकी कहानियों में ना बैटमैन की तरह ना खौफ की चादर हो ना सुपरमैन की तरह रोज रोज दुनिया ख़त्म होने की झिकझक।आज के लगभग सभी युवा रचनाकारो के पढने की शुरुआत यहीं से हुई है मगर फिर भी जब शाम को टीवी पर
इन सबके ऊपर कोई कवरेज नही दिखती, कभी किसी सम्मान के लिए प्राण साहब का नाम नही सुनाई पड़ता तो अहसास होता है ये सब बातें तो पिछली सदी की थीं और हिंदी की थीं तो out of date हो चुकी हैं।

मगर इन सब के बाद भी प्राण अंकल थैंक्यू!मेरी गर्मी की छुट्टियों को कई सालों तक इंटरेस्टिंग बनाने के लिए। I will really miss you.

रविवार, 3 अगस्त 2014

परसों से दो दिन पहले

बात दोस्ती के लाइफ साइकिल की,

कैसे शुरू में सीक्रेट बता कर बाद में 'कहना मत' का भरोसा लेने वाली दोस्ती 7 बजते ही अपने आप 2 कप चाय मंगवाने वाली रोज़ की मुलाकात में बदलती है और फिर फेसबुक के पन्नों से लटकती तस्वीर में बदल जाती है।

गौर फरमाइए


        

ये बात

 

परसों से दो दिन पहले की ही तो है

 

जब,

 

रोज़ के सुनसान चेहरे से हट कर

 

एक रोज़

 

डरी डरी सी मुस्कान दी थी तुमने,

 

और फिर बातों बातों में


 पता चला कि,

 

'कागज़ के फूल' तुम्हे भी पसंद हैं

 

और अमृता से 'रसीदी टिकट'

 

तुमने भी ले रखा था

 

हर इतवार,

 

नुक्कड़ की जलेबी के साथ छनकर

 

कई किस्से मीठे हुए

 

मगर पिछले मोड़ पर जब

 

रास्ते घूमे

 

तो,

 

घर तक का सफ़र

 

कुछ तनहा सा हो गया था,

 

अब जब कभी खिड़की से

 

बाहर झांक लेता हूँ

 

तो,

 

उन गलियों में कतरा कतरा,

 

हम दोनों को छूटा सा पता हूँ



1- कागज़ के फूल -> गुरुदत्त वाली

2-अमृता प्रीतम की किताब रसीदी टिकट

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

एक ख़त का आना

लिखने के कई फायदे हैं इनमे सबसे बड़ा साइड बेनिफिट् है कि अनजान लोग अचानक से आकर आप से कुछ ऐसा कह जाते हैं कि उससे मिलने वाली ख़ुशी कभी कभी बॉस के दिए सैलरी इन्क्रीमेंट से भी नही मिलती।



10 फरवरी को प्रणय पर्व् (वैलेंटाइन डे) के उपलक्ष्य में दैनिक जागरण ने मेरी दो छोटी सी कवितायेँ पुनर्नवा में छापी।

इसके बाद कई लोगों के ख़त आये जो मन को छु गए और जो अंकल अक्सर कहा करते थे, "बेटा! इन सब की कोई वैल्यू नही है ।" वो अब ज़रा कम मिला करते हैं।

खैर 6 महीने के बाद अचानक से एक ख़त आज फिर आया और ख़त पढने के बाद दिन भर की सारी थकान और टेंशन गायब हो गयी।


नीरज कुमार गौतम जी के लिखे इस पत्र की शैली और भाषा किसी भी श्रेष्ठ कविता से कम नही है और अगर आप को लगता हो की ढंग का लेखन सिर्फ फेसबुक पर ही बचा है तो कृपया इस पत्र को पढ़ कर एक बार फिर से विचार करिए।



जाते जाते वो दो कवितायेँ भी दे दे रहा हूँ।


सुरमई से आकाश में

तुम्हारी बातों की

ये नादान मिलावट,

मानों,

कृष्ण की बांसुरी पर

राधिका के नूपुरों ने

ताल दी हो।




स्कूल की नोटबुक के पीछे

एक नाम

लिखकर के काटा था,

आज नन्ही बिटिया को

उसी नाम से पुकारता हूँ।

बुधवार, 30 जुलाई 2014

इतिहास्य- हो जा रंगीला रे

पिछली बार की मुमताज़ महल और ताज महल की बातों से निकल इस बार कुछ छुटपुट बातें करते हैं।
दुनिया के अलग अलग बादशाहों ने अपने दरबार में अलग अलग कायदे तय कर रक्खे थे इनमे से कुछ तो बहुत चर्चित हैं जैसे, किल्योपेत्रा का गधी के दूध से नहाना मगर कुछ कम चर्चित हैं।

सबसे पहले बात 'बलवन' की, सुलतान गयासुद्दीन बलवन की वैसे तो बलवन साहब अपने कई कामों की वजह से जाने जाते हैं मगर इनकी खास आदत थी अपने आप को ऊपर वाले का डायरेक्ट एजेंट समझने की और इस वजह से इनका ख़ास हुकुम था की कोई भी इनके सामने खड़ा नही हो सकता था और सिर्फ ज़मीन की तरफ ही देख सकता था। जैसे ही मियां बलवन किसी के सामने हाज़िर होते उसे सब काम छोड़ कर हुज़ूर के पैर चूमने पड़ते थे।भूल कर भी अगर किसी ने साहब के चेहरे की ओर देख लिया तो बलवन साहब खुश हो जाते थे। खुश बोले तो मोगाम्बो खुश हुआ वाला खुश, ना कि मन में लड्डू फूटा वाला खुश, समझे जनाब।
वैसे एक कहावत है *** चाटना, ये शायद इन्ही महानुभाव की दें हो क्या पता।


दुसरे साहब हैं मोहम्मद शाह उर्फ़ रंगीले बादशाह ये साहब मेल निम्फोमैनिअक कहे जासकते हैं। अगर आप को इस शब्द का अर्थ नही पता तो गूगल देवता की शरण में जाइये और साथ में एक जानकारी और कि हमारी मशहूर पेंटर अमृता शेरगिल भी इसी बीमारी का शिकार थीं।


खैर रंगीले साहब की एक ही आदत थी की वो दरबार में अचानक निर्वस्त्र हो कर नाचने और दौड़ने लगते थे और उनकी कई दासियों को भी उनका साथ कुछ ऐसे ही देना पड़ता था। विष अमृत का यह 18+ रूप पूरे महल में रोज चलता था और तब तक जब तक नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला नही किया और 3 घंटे में 1 लाख लोगों की हत्या करवा दी।

ये मुहम्मद शाह की दें थी कि कोह-ए-नूर और दरया-ए-नूर जैसे हीरे, मयूर सिंहासन हिंदुस्तान से विदा हो गए और ऐसा होना लाज़मी ही था।

वैसे मुहम्मद शाह साहब के बारे में पढ़ कर यही लगता है कि आप और हम बिना बात के श्रीमती सनी लियोनी को दोष देते रहे हैं।


आज के लिए इतना ही जाइये गाना सुनिए बेबी डॉल वाला या फिर हो जा रंगीला रे भी सुन सकते हैं।

रविवार, 27 जुलाई 2014

आज की मसाला चाय

हिन्दुस्तान कैसे चीज़ों को अपनाता है,
कैसे वो चीज़ों का भारतीयकरण करता है
इसे आप चाय से समझ सकते हैं।

100 -125 साल पहले जिस बला का नाम नही सूना होगा वो आज इंडियन होने की पहचान है।
चाय की खासियत उसका आम होना है
चाय और चायवालों के इस दौर में 'मसाला चाय'
भी हाथ आई।
दिव्य प्रकाश दुबे जी की मसाला चाय ।

मै और मेरा दोस्त अक्सर आपस में बातें करते थे
कि हिंदी में कोई ऐसी कहानी की किताब नही मिलती
जिसे याद रखा जाये, जो अपनी सी लगे बनावटी नही।

हम अक्सर हिन्दुस्तान को भारत और india में बाँट देते हैं मगर एक हिस्सा ऐसा भी है जो इन दोनों के बीच झूलता है और मसाला चाय इस तबके की कहानियाँ कहती है।

घर से सुबह पूजा का प्रसाद लेकर निकलने वाला लड़का शाम को दारू पार्टी करता है।
सावन के सोमवार का व्रत करने वाली कोई Ms xyz
Weekends पर किसी को फील करती है।
दिव्य ने बिना judgement दिए इन सारी बातों को कहानियों में पिरोया है।

अगर साहित्य समाज का दर्पण होता है तो ये कहानियाँ आप को आज की पीढ़ी की सीधी इमेज दिखा रहा है।

Love you forever की गरिमा, fill in the blank की कावेरी या ऐसा कोई और किरदार मैंने अक्सर अपने पास से गुज़रते देखा है।

up बोर्ड से पढ़कर आने वाले बच्चों के साथ english improvement के नाम पर जो शोषण और मजाक होता हैं उसे भी झेला है।

और दिव्य की मिस बजाज की बात से पूरी तरह सहमत हूँ की इंग्लिश सिर्फ पर्सनालिटी का एक पार्ट है मगर लोग शायद ही समझते हों।

इंग्लिश से एक और बात भी आई दिमाग में इस किताब में इंग्लिश का इस्तेमाल, तो भाई खाने के साथ अचार के हद तक ये सही है बस ये ध्यान रहे की आगे जाके हिंगलिश ना हो जाये।

और ज्यादा लिखने का कोई तुक नही किताब पढ़िए फिर सोचिये, मै चला मेरी चाय ठंडी हो रही है
बाय

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

आज फिर पहली बारिश है

खिड़की के शीशे पर
कुछ बारीक सी
बूंदों को फिसलते देखा
तो याद आया
साल गुज़र आया है
अब उस पहली बारिश को

सूखे गमले की मिटटी था मन
जब कुछ बूंदों ने
दहका दिया था अचानक

कई शब्द, शेर, जुमले, किस्से
तोड़े, जोड़े, उठा कर गढ़े
और अधूरे छोड़े,

उस नए अहसास को
बाँधने में हर रूपक
पुराना लगा था
चाँद का हर दाग भी
मीर के हर्फ़ सा
सुहाना लगा था।

फिर अचानक ही
चाय के प्याले से उंगलियों
को गर्म करते करते
वो नज़र मिलगयी
जिसने
एक मुस्कान को
एक धड़कन बना दिया।

आज फिर
वो पहली बारिश है
और बालकनी में
अखबार की लकीरों
में खोया नज़र उठाकर
ढूंढता हूँ कि
यहीं कहीं
और किसी और छत
के मुंडेर पर दो नन्हे अंकुर
खिल रहे होंगे

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

इतिहास्य- मुमताज और महल

भले ही आपने ताजमहल सामने से न देखा हो मगर ताजमहल छाप चाय पत्ती का विज्ञापन ज़रूर देखा होगा और उसमे ताजमहल की फोटो भी देखी होगी
और हम-आप भले ही आगरा जाने के अर्थ से एक विशेष प्रकार के अस्पताल की याद कर मुस्कुरा उठते हों मगर दुनिया भर के लोग इस संगेमरमरी  मकबरे को इश्क का प्रतीक मान कर इसे देखने आते हैं।

गुरुदेव टैगोर ने जिस ताजमहल को काल के कपोल पर ठहरा हुआ प्रेम का आंसू कह कर संबोधित किया था, उस ताज का ज़िक्र
'मुमताज' के बिना नही पूरा हो सकता ।

मुमताज यानि की मुमताज महल। मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की एक बेगम।

मगर आज ध्यान मुमताज से ज्यादा उसके नाम में लगे महल  शब्द पर दीजियेगा।

हजरत महल, मुमताज महल, जीनत महल आदि के नाम में लगा महल शब्द कोई उपनाम नही है
अपितु यह एक पद (रैंक) है।
और इस रैंक की कहानी कुछ यूँ है

हर बादशाह के हरम में हर साल कई बांदियाँ खरीदी जाती थीं जिनके काम अलग अलग होते थे। कुछ बेगमों की खिदमत में लगी रहती थीं कुछ जहाँपनाह की।
और कुछ का काम बादशाह की ख़ास टाइप की सेवा करना होता था।
दरअसल उस दौर में सनी लियॉन के विडिओ और शर्लिन चोपड़ा की फोटो तो मिलते नही थे तो कुछ ख़ास बांदियाँ इन्ही के जैसी अवस्था में बादशाह सलामत की खिदमत में लगी रहती थीं।

और जब किसी दासी को एक रात के लिए बादशाह के बिस्तर पर बेगम की जगह सोने का हुकुम मिलता तो वह बाँदी से परी कहलाने लगती थी।
अगर ये सौभाग्य एक साल में दो बार या ज्यादा मिलता तो ये परी, हुस्न परी कहलाने लगतीं थी।

और अगर किसी परी की कोख में शाही वारिस आ जाये तो उसका पद महल हो जाता था।
चाहे हजरत महल हों या कोई और सब की कहानी यहीं से शुरू होती है।


मगर मुमताज की कहानी में कुछ और भी झोल हैं

अंजुमन बानो नाम की कम उम्र की लड़की हरम में आई और 2-3 सालों में ही पारी बनकर मुमताज महल कहलाने लगी।

दर्जन भर ऑफिसियल सौतनों के साथ मिले
14 साल के वैवाहिक जीवन में वो 14 बार माँ बनी
और आखिरी बच्चे के जन्म के साथ ही उसका इन्तेकाल होगया।

इसके बाद शाहजहाँ को उसकी इतनी याद आई की उसने तुरंत ही उसकी छोटी बहन से निकाह पढवा लिया (शायद वो भी मुमताज़ भाभी जैसी बिरयानी पकाती हो)

खैर ! अगली बार जब आपकी गर्लफ्रेंड आपसे कहे की
शोना मेरे लिए ताजमहल बनवाओगे क्या ?
तो उसकी आँखों में आँखें डाल कर .............

खुद ही समझाना यार मुझे मत फंसाओ इनसब में

अगला किस्सा भी तो तैयार करना है।