गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

एक बोतल कोल्ड्रिंक और दस रुपये का अपमान

तहलका के आप बीती स्तम्भ में इस बार जो संस्मरण छापा गया है वो संयोग से मेरा है।
शब्द संख्या बढ़ाने के लिए इसमें बाद में 2-3 पंक्तियाँ बढ़ा दी गयीं पर मूल लेख 95℅ वैसा ही है।

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               -दस रूपए और एक गिलास कोल्ड्रिंक-

 

 

जीवन में किसी चीज़ की कीमत उतनी ही होती है जितनी हमारे मन में होती है। बुज़ुर्गों की भाषा में हम इसे 'सब मन का धन है' कहकर भी समझ सकते हैं और बचपन के दिनों में जब गुब्बारे और टॉफी सोने के गहनों से ज़्यादा कीमती होते हैं तब कुछ बातें हमेशा हमेशा के लिए दिल पर छाप छोड़ जाती हैं।

 

बात 90के  दशक के बीच की है और मै उस समय कक्षा 5 या 6 का छात्र था और एक आम मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे की तरह मेरे लिए भी गर्मी की छुट्टी का अर्थ नानी या मौसी के यहाँ कम से कम बीस दिन बिताना ही था। मेरे लिए मौसी का घर बाकी सब जगहों से बेहतर हॉलिडे डेस्टिनेशन था क्योंकि उनके बड़े से घर और जॉइंट फैमिली के कारण वहाँ और कई हमउम्र बच्चे और खेलने की पर्याप्त जगह होती थी।

 

उस साल किसी वजह से मै अकेले ही मौसी के घर झांसी गया था, या यूँ कहें कि मुझे पहुँचा दिया गया था। मौसा जी की तरफ से एक अन्य रिश्तेदार का एक हमउम्र लड़का 'छोटू' भी वहाँ था और हम दोनों की ही छुट्टियाँ wwf और शक्तिमान की चर्चाओं में मज़े से कट रहीं थीं। एक दिन मौसाजी की एक और रिश्तेदार जो उसी शहर के दुसरे कोने में रहती थीं आई और हम दोनों को उनके घर आने का न्योता दे गयीं। मै पहले भी कई बार उनके घर जा चुका था तो कोई समस्या नही थी और छोटू तो उनका सगा भांजा था ही।

 

एक दिन 11 बजे नाश्ता कर के हम दोनों घर से निकले इधर से बेसिक पर फोन कर दिया गया कि बालक आ रहे हैं। रस्ते का नक्शा रटवाकर, बर्फ का गोला खाने के लिए अतिरिक्त 2-2₹ देने के बाद किसी से फालतू बात ना करने की हिदायत दे कर ही हमें छोड़ा गया। जून का महीना, झांसी शहर और आधे घंटे धूप में सफ़र, हम दोनों का क्या हाल हुआ होगा आप समझ सकते हैं।

 

"अरे तुमलोग आ गए", "कितना लंबा होगया है ये", "कुछ खाया कर दुबला हो रहा है" जैसे हर बार दोहराये जाने वाले जुमलों के साथ बाकी के परिवार के साथ मुलाकात हुई। कुछ देर बैठने और बातें करने के बाद वापस चल दिए। वापस पहुँच कर थोड़ी देर सुस्ताकर जब मौसी से कहा खाना लाओ तो मौसी ने चौंककर पूछा,

वहाँ नही खाया?

नही!

मैंने बड़े आराम से कहा।

"पर छोटू(मेरे साथ वाला लड़का) तो बता रहा था कोल्ड्रिंक क्रीम वाले बिस्कुट और चिप्स खाये थे दस रुपए कहाँ हैं जो वहाँ वाली मौसी ने दिए थे?"

एक साँस में मौसी ने जब इतना कुछ पूछा तो समझ आया कि जब बाहर बैठक में हम से बाकी लोग सवाल जवाब कर रहे थे तो उसी समय छोटू के किचन में जाने का क्या अर्थ था। उस छोटी सी उम्र में एक गिलास कोल्ड्रिंक को लेकर ठगा जाना ज़्यादा बुरा नही लगा ना ही उन दस रुपयों के ना मिलने का, जिनसे सुपर कमांडो ध्रुव की 5 और कॉमिक्स किराये पर लाई जा सकती थीं मगर बड़े लोगों के इस छोटे व्यवहार ने एक ही दिन में मुझे थोडा बड़ा बना दिया।

 

उसके बाद साल बीतते गए, छुट्टियाँ कभी प्रतियोगिताओं की तैयारी में बीतने लगीं तो कभी समर कोर्स करने में और धीरे धीरे मौसी के यहाँ जाना भी कम होता गया। आज लगभग 20 साल बीत चुके हैं इस छोटी सी बात को जो ना तो छोटू को याद है, ना मौसी को, ना ही किसी और को मगर उस दिन के बाद से जब कभी भी उस घर में जाने का मौका आया न जाने क्यों मै बस टालता ही रहा। हालाँकि मैंने कई बार कोशिश भी की है इन मामूली चीज़ों को भूल जाऊं और उनके घर भी हो आऊँ मगर हर बार एक सवाल इतना बड़ा हो जाता है कि इसके आगे कोई कुछ सोच ही नही पाता।-

आखिर उस एक गिलास कोल्डड्रिंक और और दस रुपये की कीमत कितनी बड़ी थी?


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