बुधवार, 30 जुलाई 2014

इतिहास्य- हो जा रंगीला रे

पिछली बार की मुमताज़ महल और ताज महल की बातों से निकल इस बार कुछ छुटपुट बातें करते हैं।
दुनिया के अलग अलग बादशाहों ने अपने दरबार में अलग अलग कायदे तय कर रक्खे थे इनमे से कुछ तो बहुत चर्चित हैं जैसे, किल्योपेत्रा का गधी के दूध से नहाना मगर कुछ कम चर्चित हैं।

सबसे पहले बात 'बलवन' की, सुलतान गयासुद्दीन बलवन की वैसे तो बलवन साहब अपने कई कामों की वजह से जाने जाते हैं मगर इनकी खास आदत थी अपने आप को ऊपर वाले का डायरेक्ट एजेंट समझने की और इस वजह से इनका ख़ास हुकुम था की कोई भी इनके सामने खड़ा नही हो सकता था और सिर्फ ज़मीन की तरफ ही देख सकता था। जैसे ही मियां बलवन किसी के सामने हाज़िर होते उसे सब काम छोड़ कर हुज़ूर के पैर चूमने पड़ते थे।भूल कर भी अगर किसी ने साहब के चेहरे की ओर देख लिया तो बलवन साहब खुश हो जाते थे। खुश बोले तो मोगाम्बो खुश हुआ वाला खुश, ना कि मन में लड्डू फूटा वाला खुश, समझे जनाब।
वैसे एक कहावत है *** चाटना, ये शायद इन्ही महानुभाव की दें हो क्या पता।


दुसरे साहब हैं मोहम्मद शाह उर्फ़ रंगीले बादशाह ये साहब मेल निम्फोमैनिअक कहे जासकते हैं। अगर आप को इस शब्द का अर्थ नही पता तो गूगल देवता की शरण में जाइये और साथ में एक जानकारी और कि हमारी मशहूर पेंटर अमृता शेरगिल भी इसी बीमारी का शिकार थीं।


खैर रंगीले साहब की एक ही आदत थी की वो दरबार में अचानक निर्वस्त्र हो कर नाचने और दौड़ने लगते थे और उनकी कई दासियों को भी उनका साथ कुछ ऐसे ही देना पड़ता था। विष अमृत का यह 18+ रूप पूरे महल में रोज चलता था और तब तक जब तक नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला नही किया और 3 घंटे में 1 लाख लोगों की हत्या करवा दी।

ये मुहम्मद शाह की दें थी कि कोह-ए-नूर और दरया-ए-नूर जैसे हीरे, मयूर सिंहासन हिंदुस्तान से विदा हो गए और ऐसा होना लाज़मी ही था।

वैसे मुहम्मद शाह साहब के बारे में पढ़ कर यही लगता है कि आप और हम बिना बात के श्रीमती सनी लियोनी को दोष देते रहे हैं।


आज के लिए इतना ही जाइये गाना सुनिए बेबी डॉल वाला या फिर हो जा रंगीला रे भी सुन सकते हैं।

रविवार, 27 जुलाई 2014

आज की मसाला चाय

हिन्दुस्तान कैसे चीज़ों को अपनाता है,
कैसे वो चीज़ों का भारतीयकरण करता है
इसे आप चाय से समझ सकते हैं।

100 -125 साल पहले जिस बला का नाम नही सूना होगा वो आज इंडियन होने की पहचान है।
चाय की खासियत उसका आम होना है
चाय और चायवालों के इस दौर में 'मसाला चाय'
भी हाथ आई।
दिव्य प्रकाश दुबे जी की मसाला चाय ।

मै और मेरा दोस्त अक्सर आपस में बातें करते थे
कि हिंदी में कोई ऐसी कहानी की किताब नही मिलती
जिसे याद रखा जाये, जो अपनी सी लगे बनावटी नही।

हम अक्सर हिन्दुस्तान को भारत और india में बाँट देते हैं मगर एक हिस्सा ऐसा भी है जो इन दोनों के बीच झूलता है और मसाला चाय इस तबके की कहानियाँ कहती है।

घर से सुबह पूजा का प्रसाद लेकर निकलने वाला लड़का शाम को दारू पार्टी करता है।
सावन के सोमवार का व्रत करने वाली कोई Ms xyz
Weekends पर किसी को फील करती है।
दिव्य ने बिना judgement दिए इन सारी बातों को कहानियों में पिरोया है।

अगर साहित्य समाज का दर्पण होता है तो ये कहानियाँ आप को आज की पीढ़ी की सीधी इमेज दिखा रहा है।

Love you forever की गरिमा, fill in the blank की कावेरी या ऐसा कोई और किरदार मैंने अक्सर अपने पास से गुज़रते देखा है।

up बोर्ड से पढ़कर आने वाले बच्चों के साथ english improvement के नाम पर जो शोषण और मजाक होता हैं उसे भी झेला है।

और दिव्य की मिस बजाज की बात से पूरी तरह सहमत हूँ की इंग्लिश सिर्फ पर्सनालिटी का एक पार्ट है मगर लोग शायद ही समझते हों।

इंग्लिश से एक और बात भी आई दिमाग में इस किताब में इंग्लिश का इस्तेमाल, तो भाई खाने के साथ अचार के हद तक ये सही है बस ये ध्यान रहे की आगे जाके हिंगलिश ना हो जाये।

और ज्यादा लिखने का कोई तुक नही किताब पढ़िए फिर सोचिये, मै चला मेरी चाय ठंडी हो रही है
बाय

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

आज फिर पहली बारिश है

खिड़की के शीशे पर
कुछ बारीक सी
बूंदों को फिसलते देखा
तो याद आया
साल गुज़र आया है
अब उस पहली बारिश को

सूखे गमले की मिटटी था मन
जब कुछ बूंदों ने
दहका दिया था अचानक

कई शब्द, शेर, जुमले, किस्से
तोड़े, जोड़े, उठा कर गढ़े
और अधूरे छोड़े,

उस नए अहसास को
बाँधने में हर रूपक
पुराना लगा था
चाँद का हर दाग भी
मीर के हर्फ़ सा
सुहाना लगा था।

फिर अचानक ही
चाय के प्याले से उंगलियों
को गर्म करते करते
वो नज़र मिलगयी
जिसने
एक मुस्कान को
एक धड़कन बना दिया।

आज फिर
वो पहली बारिश है
और बालकनी में
अखबार की लकीरों
में खोया नज़र उठाकर
ढूंढता हूँ कि
यहीं कहीं
और किसी और छत
के मुंडेर पर दो नन्हे अंकुर
खिल रहे होंगे

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

इतिहास्य- मुमताज और महल

भले ही आपने ताजमहल सामने से न देखा हो मगर ताजमहल छाप चाय पत्ती का विज्ञापन ज़रूर देखा होगा और उसमे ताजमहल की फोटो भी देखी होगी
और हम-आप भले ही आगरा जाने के अर्थ से एक विशेष प्रकार के अस्पताल की याद कर मुस्कुरा उठते हों मगर दुनिया भर के लोग इस संगेमरमरी  मकबरे को इश्क का प्रतीक मान कर इसे देखने आते हैं।

गुरुदेव टैगोर ने जिस ताजमहल को काल के कपोल पर ठहरा हुआ प्रेम का आंसू कह कर संबोधित किया था, उस ताज का ज़िक्र
'मुमताज' के बिना नही पूरा हो सकता ।

मुमताज यानि की मुमताज महल। मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की एक बेगम।

मगर आज ध्यान मुमताज से ज्यादा उसके नाम में लगे महल  शब्द पर दीजियेगा।

हजरत महल, मुमताज महल, जीनत महल आदि के नाम में लगा महल शब्द कोई उपनाम नही है
अपितु यह एक पद (रैंक) है।
और इस रैंक की कहानी कुछ यूँ है

हर बादशाह के हरम में हर साल कई बांदियाँ खरीदी जाती थीं जिनके काम अलग अलग होते थे। कुछ बेगमों की खिदमत में लगी रहती थीं कुछ जहाँपनाह की।
और कुछ का काम बादशाह की ख़ास टाइप की सेवा करना होता था।
दरअसल उस दौर में सनी लियॉन के विडिओ और शर्लिन चोपड़ा की फोटो तो मिलते नही थे तो कुछ ख़ास बांदियाँ इन्ही के जैसी अवस्था में बादशाह सलामत की खिदमत में लगी रहती थीं।

और जब किसी दासी को एक रात के लिए बादशाह के बिस्तर पर बेगम की जगह सोने का हुकुम मिलता तो वह बाँदी से परी कहलाने लगती थी।
अगर ये सौभाग्य एक साल में दो बार या ज्यादा मिलता तो ये परी, हुस्न परी कहलाने लगतीं थी।

और अगर किसी परी की कोख में शाही वारिस आ जाये तो उसका पद महल हो जाता था।
चाहे हजरत महल हों या कोई और सब की कहानी यहीं से शुरू होती है।


मगर मुमताज की कहानी में कुछ और भी झोल हैं

अंजुमन बानो नाम की कम उम्र की लड़की हरम में आई और 2-3 सालों में ही पारी बनकर मुमताज महल कहलाने लगी।

दर्जन भर ऑफिसियल सौतनों के साथ मिले
14 साल के वैवाहिक जीवन में वो 14 बार माँ बनी
और आखिरी बच्चे के जन्म के साथ ही उसका इन्तेकाल होगया।

इसके बाद शाहजहाँ को उसकी इतनी याद आई की उसने तुरंत ही उसकी छोटी बहन से निकाह पढवा लिया (शायद वो भी मुमताज़ भाभी जैसी बिरयानी पकाती हो)

खैर ! अगली बार जब आपकी गर्लफ्रेंड आपसे कहे की
शोना मेरे लिए ताजमहल बनवाओगे क्या ?
तो उसकी आँखों में आँखें डाल कर .............

खुद ही समझाना यार मुझे मत फंसाओ इनसब में

अगला किस्सा भी तो तैयार करना है।

बुधवार, 16 जुलाई 2014

हास्य की इति अर्थात इतिहास

कारण तो मुझे ठीक ठीक नही पता पर सामान्य रूप से एक धारणा है जिसमें हमारे राजाओं को बड़ा रोमांटिक और बहादुर टाइप दिखाया जाता है।


पृथिवी राज और संयोगिता की कथा से लेकर मुग़ल खानदान, राजपूतों और नवाबों के किस्सों को ऐसे पेश किया जाता है जैसे


अकबर ने बचपन में ही कभी खुशी कभी गम 101 बार देख रक्खी हो ।

या शालीमार बाग़ नूरजहाँ - जहाँगीर का जोगर्स पार्क हो

शाहजहाँ मुमताज़ तो शाहरुख़ और काजोल से कम नही बताये जाते

किसी भी मुस्लिम बादशाह के आने की खबर से ही हर राजपूत औरत जौहर कर लेती हो

वगैरह वगैरह.......


मगर इन प्रेम कहानियों के इतिहास में कुछ हास्य की इति भी हुई है
जो शायद आपने न सुना हो आज तक

सोचिये क्यों मुमताज़, जीनत, हज़रत सब के नाम में महल शब्द लगा है।

क्या कुछ राजाओं के 500 बीवियां थीं

मुहम्मद शाह कितना रंगीला था

संयोगिता और पृथ्वीराज की प्रेम कहानी......

और आखिर ये सब है कितना पुराना

और भी बहुत कुछ जो कई जगहों से इकठ्ठा होगया
एक प्रयास है
इन सब को कुछ किस्सों की शकल में आप तक पहुँचाने का

अगर आप पढ़ते रहेंगे तो श्रंखला चलती रहेगी......

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

अब दिल को अच्छा लगता है

अब ना तो
"लिखती हूँ ख़त खून से स्याही मत समझना
जैसे प्रेम पत्र लिखे जाते हैं,

ना ही कोई
आग का दरिया जैसी बातें करता है।

भले ही ये दिल एक मंदिर से
ग़ुस्ताख और बदतमीज़ हो गया हो
मगर
ये धड़कता आज भी है।
कोशिश की है आज के इश्क की बात करने की
--++++-------+++++------+++++



अब दिल को अच्छा लगता है



ना तीर ए नज़र चले
ना इज़हार ए इश्क हुआ
मगर
उसका आस पास होना
अब
दिल को अच्छा लगता है,



ना ही चाँद तारे दिए
ना कसमे वादे किये
मगर
एक पेन के बदले
शुक्रिया सुनना
अब
दिल को अच्छा लगता है,



ना मन्नतें की कोई
ना मांगी दुआ कोई
मगर
रोज़ शाम मंदिर जाना
अब
दिल को अच्छा लगता है,



ना कोई तासीर बदली
ना कोई ख़वाब बदला
मगर
बंद कमरे में रेडियो सुनना
अब
दिल को अच्छा लगता है,



ना आरज़ू पाने की कुछ
ना रास्ता बढ़ने का है
मगर
कुछ किस्सों का
यूँ ही खिंचते जाना
अब
दिल को अच्छा लगता है



रविवार, 6 जुलाई 2014

आज फिर पहली बारिश है

खिड़की के शीशे पर
कुछ बारीक सी
बूंदों को फिसलते देखा
तो याद आया
साल गुज़र आया है
अब उस पहली बारिश को

सूखे गमले की मिटटी था मन
जब कुछ बूंदों ने
दहका दिया था अचानक

कई शब्द, शेर, जुमले, किस्से
तोड़े, जोड़े, उठा कर गढ़े
और अधूरे छोड़े,

उस नए अहसास को
बाँधने में हर रूपक
पुराना लगा था
चाँद का हर दाग भी
मीर के हर्फ़ सा
सुहाना लगा था।

फिर अचानक ही
चाय के प्याले से उंगलियों
को गर्म करते करते
वो नज़र मिलगयी
जिसने
एक मुस्कान को
एक धड़कन बना दिया।

आज फिर
वो पहली बारिश है
और बालकनी में
अखबार की लकीरों
में खोया नज़र उठाकर
ढूंढता हूँ कि
यहीं कहीं
और किसी और छत
के मुंडेर पर दो नन्हे अंकुर
खिल रहे होंगे

बुधवार, 2 जुलाई 2014

मुझे याद रहेगी तुमसे वो मुलाकात ऑरकुट

#-1-#

मुझे आज भी याद है
कोचिंग के आखिरी दिनों में
जब स्लैम बुक भरी जाती थीं
और मुंबई वाली दीदी से बतियाने बंटी
शहर के इकलौते कैफे में जाता था।

#-2-#

उसी ने तुम्हारा ज़िक्र किया कई बार
तो हम भी बिल्लू, राहुल और मोंटी
के साथ गए थे
तुमसे पहली मुलाकात को और
120₹ और 2 घंटे में
ऑरकुटिया के ही लौटे थे।

#-3-#

उसने क्लास में तो कभी
देखा भी न था ढंग से
पर
चैटिया के जो hiiiiii
कहा तो समोसे की पार्टी
दी थी सबको।

#-4-#

वो पतली पिन के नोकिया पर
तुम्हारा घंटों में खुलना,
फोटो स्टूडियो से cd बनवाकर
तुमपर अपलोड करना
गूगल से कॉपी कर स्क्रैप भेजना
ये सब चलता रहा और कॉलेज
के दिन गुज़रते रहे।

#-5-#

न जाने कहाँ से जेब के मोबाईल
में फेसबुक आगया।
तस्वीरें उसपर भी जाने लगीं।
फ़ोन के बटन कम होते रहे
और तुम्से फासले बढ़ते रहे


#-6-#


टैग और स्टेटस के नशे में
तुम्हारा अहसास ही
धुंधला सा गया।

आज तुम्हारे जाने की
खबर बस एक
मुक़द्दस खामोशी दे गई
है और कुछ नही

अलविदा orkut !