गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हिन्दी में आया VPP युग, क्या अपनी किताब बेचना गुनाह है

हिंदी भाषा में कुछ संबोधन हैं जिन्में सामने वाले की परवाह ना करने के लिए कहा जाता है कि मै उसे अपने शरीर के एक विशेष हिस्से पर रखने लायक समझता हूँ। मेरी समस्या है कि मुझसे ऐसी भाषा का इस्तेमाल नही होता पर कल मेरा मन हुआ बिलकुल यही कहने का। परेशान न हों मेरे साथ कुछ नही हुआ पर जो हो रहा है एक आम पढ़ने वाले के लिए उसे जानना ज़रूरी है।

पिछले कुछ दिनों से कुछ दिनों से हिंदी की चिंता करने वाले कुछ लोग चिंतित हैं। हिंदी के एक नए रचनाकार 'बिमलेश त्रिपाठी' की नयी किताब ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। 'कैनवास पर प्रेम' नाम की इस किताब के प्रचार के लिए विमलेश ने अपने फेसबुक मित्रों को इनबॉक्स में msg भेजा यदि वो उनकी किताब खरीदना चाहें तो उन्हें अपना पता भेज दें, किताब VPP से भेज दी जाएगी। जिन लोगों ने पता भेजा उन्हें किताब भेज दी गई। और जब पोस्टमैन ने उनसे 200 ₹ झटक लिए तब हिंदी साहित्य की इन महान विभूतियों को पता चला कि VPP का VIP से कोई सम्बन्ध नही और इसी के साथ हिंदी मे vpp युग की शुरुआत हुई।

मै विमलेश को नही जानता, ना मैंने उनकी किताब पढ़ी है पर उनके और मेरे 73 मुचुअल फ्रेंड्स से पता चल गया कि मामला क्या है। हिंदी के जो तथाकथित महान लोग रुदाली बने फिर रहे हैं उनकी समस्या है कि अगर हिंदी की किताबें सच में बिकने लगीं तो ऐसे मठों का अस्तित्व ही ख़त्म हो जायेगा जो हर साल 14सितम्बर को कुछ फेसबुक और कुछ किसी सरकारी दफ्तर के कार्यक्रम में रो पीट कर एक शाल और हरी पत्ती ले आते हैं। हिन्दी की सेवा के नाम पर विदेशी दौरों में घूम कर मुफ्त की किताबें, साहित्य इकठ्ठा करते हैं और कस्टम के टोकने पर शान से उसे डस्टबिन में फेंक देते हैं। क्या गलत किया कि अगर किसी लेखक ने कह दिया कि मेरी किताब खरीदना चाहें तो अपना पता बता दें। अगर एक महीने मे 250 से कुछ ज्यादा किताबें बिकने से अगर हिंदी साहित्य बाजारू और दयनीय बन गया हो तो ऐसे साहित्य को मिट ही जाना चाहिए और बिक्री का ये आंकड़ा तब है जब किताब ज्ञानपीठ जैसे स्थापित प्रकाशन से छापी गयी है।

पिछले कुछ दशकों से हिंदी के ठेकेदार वो बने हुए हैं जिन्हें हिन्दी से कुछ लेना देना ही नही है। किसी तरह से आप सालों की मेहनत से एक किताब लिखिए फिर उसे पैसे खर्च कर के छपवाइए, उसके बाद एक कार्यक्रम रखिये और बेटी के बाप की तरह बस सब के सामने हाथ जोड़े खड़े रहिये। मुफ्त की जॉनी वाकर के आचमन से प्रसन्न होकर आप को आशीर्वाद दिया जाएगा कि, "आप की किताब हिंदी साहित्य की धारा बदल देगी, इससे दुनिया बदल जाएगी आदि।" ऐसे लोग रिव्यु भी लिखते हैं और कहने की ज़रुरत नही कि इस रिव्यु में किताब की चर्चा लिखने वाले की जुगाड़ लगवाने की औकात देख कर होती है। पिछले साल हिन्दी के एक बड़े साहित्यकार की बड़ी औसत दर्जे की किताब आयी थी मगर हर रिव्यु वाले भाई साहब ने उसकी हर कमी को साहित्य के साथ नया प्रयोग बताया। एक बात और किताब की बिक्री का किसी भी रिव्यु से सम्बन्ध एक संयोग मात्र ही होता है।

बाबू देवकी नन्दन खत्री, इब्ने सफ़ी, गुलशन नंदा से लेकर हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला और कुमार विश्वास के मुक्तकों तक को हिंदी साहित्य के एक समूह में अछूत घोषित कर के रखा गया है। कोई भी गीतकार ज़रा सा प्रसिद्द हुआ तो उसे 'मंचीय' नामक बौधिक गाली दी जाने लगती है।सिर्फ इस वजह से कि लोगों ने इनको पढ़ा

क्या लेखक को उसकी किताब की कीमत मिलना गुनाह है?

कुछ समय पहले मैंने इसी ब्लॉग में 2 किताबों की बात की थी। एक मसाला चाय दूसरी इश्क़ तुम्हे हो जाएगा। कुल मिला कर 25 से 30 लोग मेरी जानकारी में हैं जिन्होंने मेरी बात को इतनी तवज्जो दी कि या तो किताब खरीद कर या मांग कर पढ़ी। हो सकता है कि ये संख्या आप को छोटी लगे मगर जहां 300 से ज्यादा कॉपी बिकना बेस्ट सेलर मानने का आधार हो वहाँ ये आंकड़े कुछ तो महत्त्व रखते ही हैं।मज़े की बात तो ये है कि अंग्रेजी की बड़ी पत्रिका और समाचार पत्र हिंदी के इस नए उभरते समूह के ऊपर आर्टिकल छाप रहे हैं(किताब पढ़ कर) मगर हिंदी में इसकी आलोचना ही हो रही है।

हिंदी पट्टी पढ़ती नही ये आरोप पूरी तरह से गलत है चेतन भगत की किताबें अंग्रेजी से ज्यादा हिन्दी में बिकी हैं, उर्दू का हर शायर अपना दीवान देवनागरी में ही छपवाता है और लाखों की रॉयल्टी बटोरता है। पिछले दिनों मैंने अंग्रेजी के 2 बेस्ट सेलिंग लेखकों को पढ़ा दोनों की अब तक 10-10 लाख से ज्यादा कॉपी बिक चुकी हैं। एक किताब पर अगर 5₹ की रॉयल्टी भी रख लें तो दोनों को कोई और काम करने की ज़रुरत नही पड़ेगी। क्या हिंदी के हर कवि लेखक को निराला की तरह भूख और पागलपन से लड़ते हुए मरना चाहिए?
नही साहब! फेसबुक, whatsapp और ट्विटर पर सबको बात कहने और सुनने का हक़ है, यहाँ ऐसा नही कि गुरूजी की चरणवन्दना के बिना कोई मौका नही मिलेगा छपने का। आप 200₹ के लिए कितना भी चुतस्पाह कर लें मगर याद रखिये कि हर चीज़ एक एक्सपायरी डेट के साथ आती है और जिस तरह से हिंदी की नई पीढ़ी ऑनलाइन होती जा रही है पुरानी धारणाओं के स्विच ऑफ होने का समय पास आता जा है।
©अनिमेष

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