गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

महिषासुर शहादत दिवस- दलितों के साथ भद्दा मजाक दलित विमर्श के नाम पर

महिषासुर शहादत दिवस की बात करने से पहले आज आप को इतिहास की एक घटना सुनाता हूँ।वैसे तो यह बात ncert की इतिहास की किताबों में भी दर्ज है मगर मेरे एक दोस्त ने मुझसे इसका ज़िक्र यहाँ करने के लिए कहा है।

आज़ादी से काफी पहले की बात है। मैसूर के पास एक रियासत थी त्रावनकोर स्टेट, यहाँ दो जातियां रहती थीं, नायर और नादार। एक अपने क्षेत्र की सर्वोच्च ब्राम्हण और दूसरी दलित।दलित और ब्राह्मण में कोई तो फरक होना चाहिए था सो पंडितों ने कहा या कहें कि एक रिवाज़ बनाया कि दलितों में कोई भी, स्त्री-पुरुष दोनोंकमर से ऊपर कोई कपड़ा आदि नही पहनेंगे।
जी हाँ पूरे गाँव की हर दलित महिला ऐसे ही मालिक लोगों की सेवाएं करती थी। इन सेवाओं में ऐसी बहुत सी सेवाएं थीं जिनकी आप इस समय कल्पना कर रहे होंगे।
ऐसे मे कुछ मिशनरी लोगों ने नयी पीढ़ी के लोगों को समझाया कि वो दलित से इसाई बन जाएँ तो पंडित जी के नियमों को मानने की ज़रुरत ख़त्म।
लोग मान गए और महिलाओं ने ब्लाउज पहनना शुरू किया। सवर्णों को क्या लगा उसे बताने की यहाँ ज़रुरत नही मगर उन्होंने दलितों की पूरी बस्ती जला दी, उन्हें मारा-पीटा और और भी जो कुछ वो वहाँ कर सकते थे किया।मामला अदालत में गया और न्यायाधीश(रियासत के) ने कहा कि सवर्ण स्त्रियों के सामान अपने शरीर के उपरी हिस्से को ढक कर इन्होने बहुत बड़ा पाप किया है और इसका दंड इन्हें मिलना ही चाहिए था।

ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं जिन्हें पढ़कर मुझे इस जातीय अस्मिता से घृणा हो गयी है।शायद आप कहें कि आज ऐसा नही होता है। ये तो पिछली सदी की बाते हैं। आज सब बराबर है।
तो कभी शहर उस हिस्से में जाइये जहाँ पिछड़ी या दलित कही जाने वाली जातियां रहतीं हैं। मै गया हूँ, यकीन मानिए जो सोच भी नही सकते हैं हम आप उन सुविधाओं के बिना वो रहते हैं। ये भी ना हो तो ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन या तुलसीराम की मुर्दाहिया पढ़ कर देखिएगा, सच मानिए हिल जायेंगे।

वैसे एक बात और बताऊं, मेरे एक और ठाकुर मित्र के ही एक रिश्तेदार काफी गर्व से मुझे बता चुके हैं कि, उनके गाँव में दलितों की कोई ऐसी लड़की नही रही जो 'ठाकुरों, से होकर ना गयी हो.' और जब एक बार इनलोगों(दलितों) ने अपने दूल्हे की बारात कार में निकाली तो गाँव के ज़िम्मेदार लोगों ने पूरी बारात को पीटा, दूल्हे को मुर्गा बनाया साथ में पूरे खाने में मिट्टी मिला दी।

खैर!

मेरा आज की इस पोस्ट का उद्देश्य ये नही था और मै इस पोस्ट के हेडिंग को बिलकुल भूला नही हूँ। मेरी समस्या यह है कि गीता की 'धर्म वही है जो लोक कल्याण करे' वाली सीख को मैंने कुछ ज्यादा ही सीरियसली ले लिया इस लिए मै ना दक्षिणपंथी बन सका न वामपंथी।

दक्षिणपंथ के मेरे मित्रों के पास आज कल गायों को पूजने और पकिस्तान के हिन्दुओं की चिंता करने से ही समय नही है कि वो नारकीय जीवन जी रहे भारतीय लोगों के बारे में सोचें।सड़क के आदमी की बात करने का ठेका अब वामपंथियों ने ले रखा है।इन्डिया गेट पर सरफरोशी की तमन्ना, ओ री चिरय्या गाकर और फेसबुक पर पेज बनाकर इन प्रगतिशीलों ने गरीबों और दलितों की खूब मदद की।ऐसे ही एक मदद की घटना में एक उत्सव शुरू करने की कोशिश की गयी महिषासुर शहादत दिवस, इस उत्सव के पीछे की कथा संक्षेप में कुछ यूँ है,

'''महिषासुर भैंस चरानेवालों का सरदार था। देवताओं को यह बात पसंद नही आई और उन्होंने दुर्गा
(आप देवी दुर्गा कह सकते हैं) को भेजा दुर्गा ने महिषासुर के साथ 8 दिन उसके शयनकक्ष(bed room) में उसके साथ बिताये 
और नवें दिन शराब पीने के बाद खंजर से उसका सीना चीर दिया।''

इस कथा के पीछे कोई रिसर्च नही की गयी, ना कोई तर्क या प्रमाण दिया गया। यहाँतक कि जो संथाली लोककथा इस का आधार बताई गयी उसके जानकारों ने उस कथा में ऐसी कोई बात होने से इनकार कर दिया।

मै एक बार को इस पूरी कल्पना को सच मानने को तैयार हूँ बिना किसी तर्क के, पर मेरा सवाल है कि इससे मेरे शहर में सर पर मैला ढोनेवाली उस औरत के जीवन में क्या फर्क आएगा?
उन बच्चों को क्या मिलेगा उससे, जो स्कूल ना जाकर कूड़े के ढेर से कचरा उठाते हैं?
क्या ढाबे पर झूठी प्लेट धोता छोटू अगर 'महिषासुर की जय' बोल देगा तो मालिक उसकी तनखाह बढ़ा देगा?
या आप के ये साबित कर देने से की दुर्गा ने 8 दिन महिषासुर के बिस्तर पर गुज़ारे थे, gb रोड जैसे इलाकों में लाई गई औरतें अपनी जिंदगी जी पाएंगी?
जवाब आप भी जानते हैं और मै भी!

दरअसल चाहे गले में लाल मफलर डालकर सिगरेट फूंकने वाले कामरेड हों या हर बात में अपनी संस्कृति और भावना के आहत हो जाने वाले भक्तजन या फिर वो लोग भी जिन्हें हर बात में सियासी साजिश, अमरीका के नापाक इरादे या ऐसा ही कुछ दिखता रहता हैं ये सब धूमिल की कविता के वही तीसरे आदमी हैं जो ना रोटी पकाते हैं न खाते हैं पर रोटी के साथ खेलते हैं और सबसे ज्यादा कमाते हैं।

वैसे जाते जाते बता दूँ कि फॉरवर्ड प्रेस ने इस महिषासुर उत्सव पर जो पत्रिका निकाली थी उसकी सभी कॉपी पुलिस ने जब्त कर लीं और मामला कोर्ट में है। मेरे पास वो चित्र हैं जो इस पत्रिका में छापे गए हैं पर मै उन्हें यहाँ नही दे सकता। फॉरवर्ड प्रेस के बेचारे लोगों का कहना है कि ये उनकी धार्मिक तथा अभिव्यक्ति की स्वंत्रता पर हमला है और भले ही वापस त्रावन्कोर की तरह एक और संघर्ष हो जाए पर महिषासुर की पूजा तो होनी ही चाहिए।

आप भी सोचिये कि पिछली सदी से आज तक हम एक समाज के रूप में कितना परिपक्व हुए हैं।
मंगल तक राकेट सुनने में अच्छा लगता है मगर इससे मंगल कितना होगा पता नही।



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कर सकें तो मुझे अच्छा लगेगा, क्योंकि लिखते रहने के दीपक में फीडबैक का तेल पड़ते रहना चाहिए**

©अनिमेष

1 टिप्पणी:

  1. "MAHISHASUR = The Martyred King" {Jesus}. Church plantation drive in action through JNU.
    "association with a local (national face) by an outsider CHURCH PLANTER is necessary, to gain legitimacy" - Thom Wolf [Ref. Confessions of a church planter] [Trojan Horse technique].
    Forward Press is one of the tools to stimulate caste organisations using "Social Justice" movement's trope, to acculturate and antagonize SC/ST/OBC, with the assumed enemy "Brahmins and their supporter castes", is a "War Game" simulation, using military and intelligence skills to annihilate India, as a nation- state.
    Missionaries are auxiliaries of a World Super Power in this game-plan.
    [Tehelka Report, 2004].
    भारत में महिषासुरों का उदय व्यापक पैमाने पर हो रहा है जिसका ताज़ा उदहारण बरवाल –हिसार –हरियाणा का सतलोक आश्रम जहाँ से रामपाल की गिरफ़्तारी हुई है. लेकिन दुर्भाग्य है की जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के महिषासुरों की अभीतक कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई है. जबकि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय महिषासुरों उत्पादन का केंद्र है. सतलोक आश्रम में कंडोम, अश्लील साहित्य, यौन ताकत बढ़ाने वाली दवाएं तथा बंदूके, पिस्टल, पेट्रोल बम, मिर्ची बम तथा अन्न सामग्री मिली है. सबसे बड़ी बात यह है की बाबा ने अपने साहित्य “ज्ञान गंगा”, (जिसका निःशुल्क वितरण जे एन यू में 6 जुलाई 2014 को किया गया) “गहरी नज़र गीता में” व “देवी भागवत” में जो विश्लेषण बाबा ने किया है जिसमे माँ दुर्गा व माँ सरस्वती को एक वस्तु (सेक्स) के रूप में प्रदर्शित किया गया है. शिव, विष्णु व ब्रह्मा को कामी के रूप में दिखाया गया है. बाबा का सनातन धर्म की कि व्याख्या या विश्लेषण जिस प्रकार की यही है ठीक उसी प्रकार की व्याख्या जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में निःशुल्क में वितरित होने वाली मासिक पत्रिका “फॉरवर्ड प्रेस” तथा उनके द्वारा लिखे दो महानतम ग्रन्थ “महिषासुर एक पुनरपाठ” व “महिषासुर” में भी माँ दुर्गा को “वेश्या” “सुन्दर कन्या” व “गणिका” व ‘sex worker” के रूप में विश्लेषित किया गया. इनका पूरा साहित्य जिसमे “वेद”, “गीता” व “उपनिषद” की व्याख्या अपने हिसाब से की गयी है. जिसमे बताया गया है की “वेद”, “गीता” व उपनिषद तथा रामायण को ब्राह्मण द्वारा रचित बताया गया है की ब्राह्मणों ने अपनी काली करतूतों को छिपाने के लिए ये सब ग्रन्थ लिखे हैं और ये सब आर्य बहार से आये हैं इन्होने हम अनार्यों (मूल निवासी जैसा की बिहार के मुख्य मंत्री जीतन राम मांझी ने कहा है की भारत की SC/ST/OBCs वर्ग- जातियां ही भारत के मूल निवासी हैं उच्च वर्ग-जातियों बाहर से आये हैं वे विदेशी है ) को बल व छल से हम लोगो के ऊपर अधिकार कर लिया है.इसलिए हम लोग इनकी (आर्यों) संस्कृति को नहीं मानते हैं. वे इतिहास को पुनह परिभाषित व विश्लेषित कर रहे हैं. हमारे पास इस बात के ठोस प्रमाण है की इस सबके पीछे इसाई मिशनरीज एक सोची साची साजिस के तहत काम कर रही है. जिनका परम लक्ष्य भारत को अस्थिर करना व गृह युध्य करवाना है. इसीलिए इसाई मिशनरीज ने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय को चुना है जहाँ पर साल 2011 लगातार महिषासुर सहादत दिवस के रूप में मनाया जा रहा है जिसमे प्रत्येक साल माँ दुर्गा के बारे में अपमान जनक साहित्य वितरित किया जाता है. इस साल 2014 में माँ दुर्गा को के अश्लील चित्र छपे गए जिन्हें मै यहाँ दे नहीं सकता. और ये सब हो रहा है उनकी धार्मिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर. भारत देश का कुख्यात व विख्यात विश्वविद्यालय जहाँ पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कश्मीर की आज़ादी की बात की जाती है उत्तरपूर्व की स्वतंत्रता की बात की जाती है, मानवाधिकार के नाम पर अफज़ल गुरु को सहादत के रूप में पेश किया जाता है तथा नक्सलबाड़ी एक ही रास्ता की बात की जाती है. इन सब को वैद्यता प्रदान करने के लिए जे एन यू के कुख्यात प्रोफेसर पब्लिक डिस्कोर्स की संजा देते है और यही कुछ मामला ज्यादा बढ़ा तो इसे वंचितों की आवाज़ का नाम देते हैं. अगर ये सब चीजे समय रहते नहीं रोकी गयी तो एक दिन भारत में गृह युध्य होना तय है. और शायद भारत के नियति में यही हो. क्योकि जिस संस्थान व विश्वविद्यालय का काम देश का उत्थान होना चाहिए वह विश्वविद्यालय आज “द्वेष हिन्दू” –“भारत विखंडन” का एक मात्र केंद्र बना हुआ है.
    अम्बा शंकर वाजपेयी

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