बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

मुझे चेतन भगत पसंद हैं पर मै उन्हें पढता नही हूँ

इस दिवाली पर हिंदी साहित्य की बात से बात शुरू करता हूँ। अब ये मत सोचियेगा कि हिंदी की बात हिंदी दिवस पर ही की जा सकती।

हिंदी साहित्य बिकता नही, हिंदी में ऐसा साहित्य लिखा नही जा रहा जिसे पढ़ा जाए। हिंदी टिपिकल है, ये सारी बातें कही जाती हैं और इन्हें ख़ारिज भी नही किया जा सकता। अब कुछ तथ्य देखिये।
चेतन भगत के अलावा अंग्रेजी के सारे फिक्शन राइटर मिला लीजिये-

रविंदर सिंह, दुर्जोय दत्ता, अरविन्द अडिगा सब को मिला कर उनके फेसबुक पेज के लाइक जोड़ लीजिये और 10 से गुणा कर दीजिये फिर भी कुमार विश्वास के लाइक्स से आधे ही रहेंगे।
चेतन भगत को फेसबुक पर 58लाख लोगों ने लिखे कर रखा है और कुमार को 23 लाख, जबकि चेतन की कई किताबों के सामने कुमार के गिने चुने मुक्तक हैं।

हिंदी के ठीक-ठाक कवियों का एक पेमेंट चेक किसी mba फ्रेशर के महीने भर के वेतन से टक्कर लेता है।

दैनिक जागरण एक दिन में 16 लाख कॉपी बेचता है।

इन सब तथ्यों के साथ आप को ये शक नही होना चाहिए कि हिंदी का पाठक पैसे खर्च नही करता या हिंदी में लोग पढ़ते नही हैं।फिर ऐसा क्या है कि हिंदी की किसी किताब (अनुवाद नही) की 500 कॉपी बिकना खबर बन जाती है।इसे समझने के लिए अपने बचपन में वापस जाइये।

स्कूल के दिनों में कोर्स की किताबों में प्रेमचंद की ईदगाह से शुरू कर के हाईस्कूल में वसीयत जैसी कहानी ने हमारी आज के पीढ़ी को चम्पक, सरिता, कदिम्बिनी से लेकर शेखर एक जीवनी तक का पाठक बनाया। ऐसे में हम जब बस अड्डों पर मिलने वाली मोटी स्लेटी पन्नों की किताबों को देखा करते थे तो घर वालों की हिदायत,
"गंदी किताबे हैं।अच्छे घरों के बच्चे नही पढ़ते"
हमें इन किताबों के लिए एक अलग तरह की गाँठ हमारे मन में डालती गयी।

कुछ समय बीता और फिर mba कर के आये एक शख्स ने अपनी कामचलाऊ अंग्रेजी में एक किताब लिखी "5 point someone- what not to do in IIT"
इस टाइटल में जो iit वाली बात लिखी हुई थी उसने मुझे और मेरे साथ के हर युवा के दिल में छुपे सपने को खरोंचा और किताब की लाखों कॉपी बिक गईं।इस किताब ने एक बात और सिखाई कि बिना डरे अंग्रेजी का पूरा उपन्यास भी पढ़ा जा सकता है और उसमें मज़ा भी आता है

अब अतीत से बाहर आइये।
आज की आम धारणा है हिंदी के मठाधीश साहित्यकार और प्रकाशक मिलकर घिसीपिटी किताबें ऊंचे दाम पर छापते हैं और सरकारी लाइब्रेरी के अलावा उन्हें कहीं पाया नही जाता।
छपनेवाली कवितायेँ ऐसी होती हैं जिन्हें समझने के लिए कोई अलग तरह की गोली खानी पड़ती है।
ये बातें सही हैं मगर पूरी तरह नही। कुछ लोग हैं जो इस बात को बदलने में लगें हैं। इनका धंधा साहित्य की दूकान चलाना नही है बल्कि ये उसी mba,बी टेक वाली पढाई से आये हैं जिसके साथ ढंग का पैकेज मिल ही जाता है और इन्हें ढंग की अंग्रेज़ी भी आती है।किन्तु जैसे समोसे को अंग्रेजी में पैटीज़ कहने से स्वाद चला जाता है वैसे ही जो पैनापन हिंदी में बात कहने से आता है वो अंग्रेजी में नही आता।

ललित कुमार के पोर्टल Kavitakosh.org पर जाइये हिंदी-उर्दू, के लगभग हर कवि(पुराने से नए सब) की कविता आपको मुफ्त में मिलेंगी इस पूरे सर्वर को चलाने से लेकर लाखों कविताओं को अपलोड करने तक पूरी प्रक्रिया इनके तथा इनकी छोटी सी टीम के प्रयास हैं और  इसके बदले में इन्हें शुभकामनाओं और टेंशन के आलावा कुछ भी नही मिलता।

दूसरी तरफ शैलेश भारतवासी अपने हिन्दयुग्म प्रकाशन से अकेले ही कई नए लेखकों को बेस्ट सेलर बना चुके हैं। इनके प्रकाशन में iim के हाई पैकेज वाली टीम नही है और ना ही चेतन भगत की तरह सलमान खान इनकी किताब की तारीफ करते हैं।

ऐसे और कई लेखक और संस्थाएं हैं जिन का दिमागी फितूर उन्हें इन कामों में लगाये रहता है।
तो अगर आप को लगता है कि आप को पढने का शौक है तो इस दिवाली एक नयी किताब ऑनलाइन आर्डर कीजिये। हिंदी के सिस्टम की वजह से ये अभी ऑनलाइन ही उपलब्ध हैं। आपके शहर के रेलवे स्टेशन तक आते आते इन्हें समय लगेगा। 100₹ की किताब अगर पसंद ना आये तो मेरे जैसे किसी को गिफ्ट कर दें।

यहाँ पर किताब या लेखक का नाम बस इसलिए नही दिया कि कुछ नाम लिखने में कई छूट सकते हैं।

मैंने अपनी किताब आर्डर कर दी है और 3-4 दिन बाद 100₹ कैश ऑन डिलीवरी देकर एक नया नियम शुरू कर रहा हूँ,दिवाली पर ज्ञान का दिया जलाने का। आप भी करिए और लोगों को भी करवाइए।अगर कोई भी मदद चाहिए तो मै हाज़िर हूँ।

इस पोस्ट को शेयर करने का अनुरोध सिर्फ इसलिए है कि अगर आप एक विचार से सहमत हैं तो वो दूसरों तक पहुंचे वरना हिन्दी ब्लॉग के गूगल पैसे नही देता।

ज्ञान के दीपक जलाने की आशा के साथ शुभ दीपावली।

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

महिषासुर शहादत दिवस- दलितों के साथ भद्दा मजाक दलित विमर्श के नाम पर

महिषासुर शहादत दिवस की बात करने से पहले आज आप को इतिहास की एक घटना सुनाता हूँ।वैसे तो यह बात ncert की इतिहास की किताबों में भी दर्ज है मगर मेरे एक दोस्त ने मुझसे इसका ज़िक्र यहाँ करने के लिए कहा है।

आज़ादी से काफी पहले की बात है। मैसूर के पास एक रियासत थी त्रावनकोर स्टेट, यहाँ दो जातियां रहती थीं, नायर और नादार। एक अपने क्षेत्र की सर्वोच्च ब्राम्हण और दूसरी दलित।दलित और ब्राह्मण में कोई तो फरक होना चाहिए था सो पंडितों ने कहा या कहें कि एक रिवाज़ बनाया कि दलितों में कोई भी, स्त्री-पुरुष दोनोंकमर से ऊपर कोई कपड़ा आदि नही पहनेंगे।
जी हाँ पूरे गाँव की हर दलित महिला ऐसे ही मालिक लोगों की सेवाएं करती थी। इन सेवाओं में ऐसी बहुत सी सेवाएं थीं जिनकी आप इस समय कल्पना कर रहे होंगे।
ऐसे मे कुछ मिशनरी लोगों ने नयी पीढ़ी के लोगों को समझाया कि वो दलित से इसाई बन जाएँ तो पंडित जी के नियमों को मानने की ज़रुरत ख़त्म।
लोग मान गए और महिलाओं ने ब्लाउज पहनना शुरू किया। सवर्णों को क्या लगा उसे बताने की यहाँ ज़रुरत नही मगर उन्होंने दलितों की पूरी बस्ती जला दी, उन्हें मारा-पीटा और और भी जो कुछ वो वहाँ कर सकते थे किया।मामला अदालत में गया और न्यायाधीश(रियासत के) ने कहा कि सवर्ण स्त्रियों के सामान अपने शरीर के उपरी हिस्से को ढक कर इन्होने बहुत बड़ा पाप किया है और इसका दंड इन्हें मिलना ही चाहिए था।

ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं जिन्हें पढ़कर मुझे इस जातीय अस्मिता से घृणा हो गयी है।शायद आप कहें कि आज ऐसा नही होता है। ये तो पिछली सदी की बाते हैं। आज सब बराबर है।
तो कभी शहर उस हिस्से में जाइये जहाँ पिछड़ी या दलित कही जाने वाली जातियां रहतीं हैं। मै गया हूँ, यकीन मानिए जो सोच भी नही सकते हैं हम आप उन सुविधाओं के बिना वो रहते हैं। ये भी ना हो तो ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन या तुलसीराम की मुर्दाहिया पढ़ कर देखिएगा, सच मानिए हिल जायेंगे।

वैसे एक बात और बताऊं, मेरे एक और ठाकुर मित्र के ही एक रिश्तेदार काफी गर्व से मुझे बता चुके हैं कि, उनके गाँव में दलितों की कोई ऐसी लड़की नही रही जो 'ठाकुरों, से होकर ना गयी हो.' और जब एक बार इनलोगों(दलितों) ने अपने दूल्हे की बारात कार में निकाली तो गाँव के ज़िम्मेदार लोगों ने पूरी बारात को पीटा, दूल्हे को मुर्गा बनाया साथ में पूरे खाने में मिट्टी मिला दी।

खैर!

मेरा आज की इस पोस्ट का उद्देश्य ये नही था और मै इस पोस्ट के हेडिंग को बिलकुल भूला नही हूँ। मेरी समस्या यह है कि गीता की 'धर्म वही है जो लोक कल्याण करे' वाली सीख को मैंने कुछ ज्यादा ही सीरियसली ले लिया इस लिए मै ना दक्षिणपंथी बन सका न वामपंथी।

दक्षिणपंथ के मेरे मित्रों के पास आज कल गायों को पूजने और पकिस्तान के हिन्दुओं की चिंता करने से ही समय नही है कि वो नारकीय जीवन जी रहे भारतीय लोगों के बारे में सोचें।सड़क के आदमी की बात करने का ठेका अब वामपंथियों ने ले रखा है।इन्डिया गेट पर सरफरोशी की तमन्ना, ओ री चिरय्या गाकर और फेसबुक पर पेज बनाकर इन प्रगतिशीलों ने गरीबों और दलितों की खूब मदद की।ऐसे ही एक मदद की घटना में एक उत्सव शुरू करने की कोशिश की गयी महिषासुर शहादत दिवस, इस उत्सव के पीछे की कथा संक्षेप में कुछ यूँ है,

'''महिषासुर भैंस चरानेवालों का सरदार था। देवताओं को यह बात पसंद नही आई और उन्होंने दुर्गा
(आप देवी दुर्गा कह सकते हैं) को भेजा दुर्गा ने महिषासुर के साथ 8 दिन उसके शयनकक्ष(bed room) में उसके साथ बिताये 
और नवें दिन शराब पीने के बाद खंजर से उसका सीना चीर दिया।''

इस कथा के पीछे कोई रिसर्च नही की गयी, ना कोई तर्क या प्रमाण दिया गया। यहाँतक कि जो संथाली लोककथा इस का आधार बताई गयी उसके जानकारों ने उस कथा में ऐसी कोई बात होने से इनकार कर दिया।

मै एक बार को इस पूरी कल्पना को सच मानने को तैयार हूँ बिना किसी तर्क के, पर मेरा सवाल है कि इससे मेरे शहर में सर पर मैला ढोनेवाली उस औरत के जीवन में क्या फर्क आएगा?
उन बच्चों को क्या मिलेगा उससे, जो स्कूल ना जाकर कूड़े के ढेर से कचरा उठाते हैं?
क्या ढाबे पर झूठी प्लेट धोता छोटू अगर 'महिषासुर की जय' बोल देगा तो मालिक उसकी तनखाह बढ़ा देगा?
या आप के ये साबित कर देने से की दुर्गा ने 8 दिन महिषासुर के बिस्तर पर गुज़ारे थे, gb रोड जैसे इलाकों में लाई गई औरतें अपनी जिंदगी जी पाएंगी?
जवाब आप भी जानते हैं और मै भी!

दरअसल चाहे गले में लाल मफलर डालकर सिगरेट फूंकने वाले कामरेड हों या हर बात में अपनी संस्कृति और भावना के आहत हो जाने वाले भक्तजन या फिर वो लोग भी जिन्हें हर बात में सियासी साजिश, अमरीका के नापाक इरादे या ऐसा ही कुछ दिखता रहता हैं ये सब धूमिल की कविता के वही तीसरे आदमी हैं जो ना रोटी पकाते हैं न खाते हैं पर रोटी के साथ खेलते हैं और सबसे ज्यादा कमाते हैं।

वैसे जाते जाते बता दूँ कि फॉरवर्ड प्रेस ने इस महिषासुर उत्सव पर जो पत्रिका निकाली थी उसकी सभी कॉपी पुलिस ने जब्त कर लीं और मामला कोर्ट में है। मेरे पास वो चित्र हैं जो इस पत्रिका में छापे गए हैं पर मै उन्हें यहाँ नही दे सकता। फॉरवर्ड प्रेस के बेचारे लोगों का कहना है कि ये उनकी धार्मिक तथा अभिव्यक्ति की स्वंत्रता पर हमला है और भले ही वापस त्रावन्कोर की तरह एक और संघर्ष हो जाए पर महिषासुर की पूजा तो होनी ही चाहिए।

आप भी सोचिये कि पिछली सदी से आज तक हम एक समाज के रूप में कितना परिपक्व हुए हैं।
मंगल तक राकेट सुनने में अच्छा लगता है मगर इससे मंगल कितना होगा पता नही।



अगर पोस्ट को शेयर या कमेंट
कर सकें तो मुझे अच्छा लगेगा, क्योंकि लिखते रहने के दीपक में फीडबैक का तेल पड़ते रहना चाहिए**

©अनिमेष

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

मुझे खिसियाहट होती है इन त्योहारों से

इस पोस्ट को पढ़कर यदि आपकी भावनाएं आहत होती हैं तो मै पहले ही आपसे माफी मांग लेता हूँ और सभी पढ़नेवालों से मेरा अनुरोध है कि इस पोस्ट के नीचे अपने कमेंट अवश्य दें।
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मुझे करवाचौथ से खिसियाहट आती है।
जी हाँ!
मेरा स्पष्ट मत है और अगर आप ये कहें कि मै भारतीय संस्कृति का सम्मान नही करता तो मै बता दूँ की इतनी ही खिसियाहट मुझे वैलेंटाइन डे पर भी होती है।

वैसे मूल रूप से तो ये त्यौहार पश्चिमी उत्तरप्रदेश और पंजाब के वैश्य और ब्राम्हणों का त्यौहार था मगर यशचोपड़ा की फिल्मों ने nri मेनिया के फैलाव के साथ इसे पूरे हिन्दोस्तान में फैलाया।आज के दौर में मैंने भारत और इंडिया दोनों जगह इसे अलग-अलग ढंग से मनाये जाते देखा गया है।बात को आगे बढाने से पहले दो घटनाएं सुनिए दोनों मेरे पड़ोस की हैं और वास्तविक है।

एक सरकारी नौकरी में 40,000 महीने कमाने वाली महिला हैं जिनके पति मुश्किल से 10,000 कमाते हैं। मैडम ऑफिस के बाद सीधे मंदिर जाती हैं, हर पूरनमासी को वृन्दावन जाती हैं और घर की सारी ज़िम्मेदारी पति की होती है और अगर कोई गलती हो जाये तो चप्पल से सर जी की पिटाई जायज़ है क्योंकि भगवान की भक्ति में बाधा डालने वाले को दंड तो मिलना चाहिए।

दूसरी तरफ एक भाई साहब हैं जो ठीक ठाक कमाते हैं और पत्नी भी कमाती है। बीवी की सारी कमाई पुत्र लेकर माँ को दे आता है और फिर बीवी अपनी ही तनख्वाह पूरे हिसाब के साथ लोन की तरह मांगती फिरती है। वो पड़ोस में भी जा नही सकती। उसे मैगी पसंद है पर महिने भर की मेहनत और 10,000 रुपए के बाद भी वो एक पैकेट मैगी नही खा सकती क्योंकि सासू माँ को बाज़ार का खाना अच्छा नही लगता।मगर दोनों परिवारों में करवाचौथ अनिवार्य है।

अपने जीवनसाथी की लम्बी उम्र मांगने में कोई बुराई नही है मगर टीवी चैनल की कवरेज और शाहरुख़ खान की फिल्मों से आज यह लगने लगा है कि अगर आपने करवाचौथ पर पत्नी के साथ बोले चूड़ियाँ नही गाया तो आप में कोई कमी है। मेरे घर में इस त्यौहार के लिए कोई स्थान नही है पर नयी पीढ़ी की मेरी भाभियाँ मेरी माँ पर तंज़ कसती दिख जाती हैं कि आप क्या चाचा से प्यार नही करतीं? आप को रखना ही चाहिए।

मेरा सवाल ये है कि ये कौन सी ठेकेदारी है जो ये सर्टिफिकेट दिए जाते हैं आप ऐसा नही करते तो आपने प्रेम नही किया। इसके आलावा बाज़ार के इशारों पर नाचते मीडिया ने जैसे वैलेंटाइन डे पर अकेले फिल्म देखने जाने को अघोषित गुनाह बना दिया है वैसे ही करवाचौथ पर लगता है कि अगर आपने अपनी पत्नी को बच्चन साहब की तरह हीरे के कंगन नही दिए तो जा कर डूब मारिये चुल्लू भर पानी में और विज्ञापन वाली बहनजी सिर्फ 3.5लाख तो ऐसे कहती हैं जैसे सब्जी वाले से 2 गड्डी धनिया मुफ्त में लेने को कह रहीं हों।

3सरी सबसे बड़ी दिक्कत मेरे उन भाइयों से मुझे है जो खुद व्रत रखने लगें हैं। इस दिक्कत का कारण मेरा 'मेल ईगो' नही है। अरे भाई बीवी को भूखा नही देख सकते तो उसे कहो कि व्रत ना रखे या फिर कहो कि जैसे नवरात्रि के या किसी और व्रत में आप सिंघाड़े के आटे की पूड़ी खाने की जुगाड़ कर सकते हैं वैसे वो भी कर ले। मगर आप नही करेंगे क्योंकि आप पति हैं भगवान नही और आप अपनी लम्बी लाइफ के कुछ कीमती साल कम होने का रिस्क कैसे ले सकते हैं। यहाँ पर मुझे 'दिव्य प्रकाश दुबे' की कहानी 'विद्या कसम' याद आ रही जिसमे लड़का कहता है कि सबसे सेफ भगवान की कसम है क्योंकि भगवान् मरते नही हैं।

खैर इस सामूहिक मैरिज अनिवेर्सेरी की शुभकामनाएं लीजिये।मेरे लिए ये राहत की बात है की मुझे जीते जी अपनी पूजा करवाने की ज़िम्मेदारी नही मिली है तो मै थोड़ा-बहुत पापी बना रह सकता हूँ। जाने से पहले जो भी हो कमेंट ज़रूर डालें, सहमत और असहमत दोनों में से जो लगे उसका, आपको आपकी वाली या वाले की कसम।

©अनिमेष

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

हैदर यानी सीरियस सिनेमा की छीछालेदर?


अगर मै लेफ्टिस्ट नही हूँ तो मै आर्टिस्ट नही हूँ। विशाल भरद्वाज के यही शब्द थे जो मैकबेथ की चुडैलों की तरह मेरे ऊपर छाए रहे और to be or not to be के द्वन्द मे फंसे रहने की जगह फिल्म देख ही ली। हैदर की पब्लिसिटी इसके एन्टी नेशनल और सेना के खिलाफ होने को लेकर की जा रही है और औसत स्तर की सफलता से ज्यादा विशाल भरद्वाज के अरुंधती रॉय स्कूल ऑफ़ थॉट्स वाले बयानों ने लगभग हर बौधिकनुमा व्यक्ति को इसके बारे में चर्चा करने को बाध्य किया है।
मेरे लिए हैदर की दो स्तर पर चर्चा अनिवार्य है।
पहली एक फिल्म के रूप में और दूसरी इसकी भावना को लेकर।

अगर फिल्म की बात करें तो जब हैदर अपने पिता की मौत का बदला लेने की कसम खाता है और कहता है की वो रामाधीर सिंह की कह के लेगा और अपनी प्रेमिका से कहता है एक बार जो मैंने कमिटमेंट कर दी तो.......?

क्या हुआ?

आप को जो लगा वही मुझे भी लगा जब 'हमरा फैजल' की जगह बार-बार 'बेटा हैदर!आँख में गोली मारना' डायलाग सुना।

हैदर को भले ही वर्ल्ड सिनेमा देखने वालो के लिए कश्मीर समस्या पर नयी नज़र डालने वाली फिल्म कहा जा रहा हो मगर इसे देखते हुए आप को शिंडलर लिस्ट या एस्केप फ्रॉम सोबिबोर याद नही आएगी, वो तो छोड़िये बैंडिट क्वीन में जिस बदले के जूनून और आग को दिखाया गया है उसका 10-20%  भी फिल्म में नही दिखाया गया है। यदि आप भी इस मुगालते में हैं कि इससे पहले कभी सेना और मानवाधिकार वाला मुद्दा किसी फिल्म में नही उठाया गया है तो इन्ही मेनन साहब की *शौर्य* देखिएगा।


इंटरवल के बाद हद से ज्यादा धीमी होती फिल्म में एक mla के इशारे पर लड़ती सेना की टुकड़ियाँ देख कर तो आश्चर्य तो होता ही है। आतंकी मुठभेड़ के बीच आम लोगों का आते जाते रहना भी हड़ता है। कश्मीरियों का मज़ाक उड़ाते उच्चारण वाली लड़की जो एक लाइन भी सही अंग्रेजी नही बोल पाती है एक अंग्रेजी अखबार के लिए आर्टिकल लिखा करती है।और 1995 में सलमान खान के फैन(वैसे तो यह फैन वाली प्रथा 'तेरे नाम' के बाद शुरू हुई) तुरंत की हिट 'हम आपके हैं कौन' को छोड़ कर 'मैंने प्यार किया' लेकर ही अटके होते हैं। इन सब के बीच कहानी की विद्या बागची की तरह पिता को ढूंढते हुए हैदर बदले और इंतकाम में फँस जाता है। फिल्म का कश्मीर समस्या से जोड़ना एक चुत्स्पा भर लगा।(यह शब्द फिल्म देख कर ही समझ आएगा)

यह आज़ादी की कहानी नही बल्कि बदले की कहानी है और इसका बैक ड्राप कश्मीर की जगह कुछ और भी होता तो खास फर्क नही पड़ता। (कुछ जगहों पर फिल्म में मणिपुर की घटनाओं को कश्मीर का बता कर पेश भी किया गया है)

हालाँकि फिल्म के क्राफ्ट में हैदर से कुछ ज्यादा निराशा इस वजह से हुई क्योंकि मैंने इसे 'बैंग-बैंग' से अलग सीरियस सिनेमा समझ कर देखा। मगर इससे अलग एक दूसरी समस्या है फिल्म के साथ, जिस रूप में फिल्म को प्रोजेक्ट किया जा रहा है वह सही नही है। दिक्कत हैदर में अस्फ्पा की बात को लेकर नही है ना सेना की नकारात्मक छवि को लेकर। सिस्टम के स्याह पक्ष को दिखाने वाली 'प्रहार, शौर्य धूप जैसी फिल्में पहले भी आती रहीं है मगर यहाँ ये ब्रांडिंग सिर्फ फिल्म बेचने के लिए है।

फिल्म का मूलसन्देश हिन्दुस्तान और गाँधी के पक्ष में जाता है मगर फिल्म सेना को एक विलेन के रूप में दिखाती है वो भी बिना ठोस तर्कों के, मसलन आतंकवादी रूह्दार का किरदार इरफ़ान खान के पास है जो अपने शांत और शायराना अंदाज़ में दिल जीतते हैं पर आर्मी ऑफिसर का रोल, विलेन की इमेज लिए हुए आशीष विद्यार्थी के पास है। तीन आतंकवादी बुड्ढों का मजे से गाना गाते हुए कब्र में लेटना और दर्शन की बातें करना उनके लिए मन में सहानुभूति और रोमांस पैदा करता है। फिल्म की शुरुआत में यह मानने को कहा जाता है कि यह 1995 की कहानी है मगर कपड़ों से लेकर सेना की गाड़ियाँ, हथियार सब 2010 के बाद के हैं और एक बेसिक फ़ोन के अलावा ऐसी कोई चीज़ नही जो 1995 के साथ जुडती हो, जिससे एक आम दर्शक यही इमेज लेकर बाहर निकलता है कि कश्मीर में हालत आज भी यही हैं।

आज के दौर में सीरियस सिनेमा को भी बाज़ार के रूप में पकड़ कर utv जैसी कम्पनियाँ हिन्दी सिनेमा की क्रिएटिविटी को ख़त्म करती जा रही हैं और क्रिएटिविटी और क्लास सिनेमा का स्कोप हिंदी सिनेमा से खतम हो रहा है। पिछले साल आई भाग मिल्खा भाग को भी क्लासिक का दरजा दे दिया गया जबकि उसमे फरहान अख्तर से ज्यादा उनके ट्रेनर की मेहनत दिखाई दी थी। वहीँ धनुष की राँझना को ज़बरदस्ती दुसरे हाफ में खींच कर एक अच्छी भली फिल्म को औसत दर्जे की फिल्म में बदल दिया गया।

अगर आप को मेरे तर्क पर विश्वास ना हो रहा हो तो याद करके बताइए विकी डोनर, वासेपुर, कहानी जैसे एक दो नामों के अलावा ऐसी कितनी फिल्में हैं जिन्हें आप आज की तारिख में एक बार फिर देख सकते हैं।

विशाल भरद्वाज के कश्मीर प्रवचनों और प्रोडक्शन हाउस की क्रिएटिविटी के लिए एक बार तो हैदर देख सकते हैं वैसे दोबारा देखने का रिस्क इसे क्लासिक कहने वाले लोग उठाएंगे की नही पता नही।


हाँ! फिल्म के गाने और लिरिक्स अच्छे हैं ख़ास तौर पर बिस्मिल बुलबुल वाला, बस फिल्म के बीच में क़र्ज़ के एक हसीना थी की तरह इस्तेमाल नही होता तो और अच्छा लगता।

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

मोदी, गाँधी, गाँधी-शास्त्री जयंती और गाँधीवाद

दशहरे की पूर्व संध्या के साथ-साथ आज गाँधी और शास्त्री जयंती है और हमारे प्रधान-सेवक नरेन्द्र मोदी जी सड़कों पर झाड़ू लगा रहे हैं। मुझे पता नही या यूँ कहूँ मै पता नही करना चाहता हूँ कि इस काम से लोग कितना सफाई पसंद बनेंगे।मगर एक दूसरा पहलू भी है जिसने मुझे आज बड़ा विचलित किया।

गांधी जयंती पर गाँधी का अनुयायी होने का दंभ भरने वाले लोग इस सफाई अभियान का उपहास कर रहे हैं।वो गाँधी को क्या समझते हैं पता नही पर मुझे इतना पता है कि गाँधी ने कहा था "पाप से घृणा करो पापी से नही।"
हो सकता है ये एक प्रचार का हथकंडा हो मगर इस से प्रेरित हो कर हम अपने अपने परिवेश को तो सुधार सकते हैं।

दूसरी समस्या मुझे अपने कई पूर्व सहपाठियों से लगी जो शायद अपने दिमागी स्तर के निचले पायदान पर ठहरे हुए हैं।सुबह से पोस्ट को अनटैग करने में काफी समय बर्बाद किया जिनका सार यह था कि गाँधी से गया बीता कोई नही इस देश में।
मै गाँधीवादी नही हूँ, मगर 100 में से 80 बार वही सही साबित होते हैं।
जब दिल्ली की एक सर्द सुबह इन्साफ मांगते लोगों पर पुलिस हड्डियों को कंपा देने वाला पानी डालती है और लोग अगले दिन वापस आकर खड़े हो जाते हैं और शांति से कहते हैं कि बिना इन्साफ के वो नही हटेंगे, तो बापू की तस्वीर मानो कहती है की एक गाल के बाद दूसरा गाल सामने कर दो।

जब अबूझमाल जैसे किसी गाँव से कुछ निर्दोषों के मारे जाने की खबर आती है तो फिर अहिंसा याद आती है।
जब लोग चीन से जीतने के लिए उसकी वस्तुओं का बहिष्कार करने की बात करते हैं तो मुझे भी लगे रहो के मुन्ना की तरह बापू की गांधीगिरी समझ आती है।

ऐसा नही है कि मोहन दास करमचंद गांधी भगवान थे जो कभी गलत नही हुए या उनकी हर बात को बिना परखे ही माना जाना चाहिए मगर वो उस बेईज्ज़ती के भी पात्र नही जो उन्हें हर कदम पर मिलती है। आज के तमाम नेताओं की तमाम कमियों के बाद भी लोग उनके चरणों में लोटते हैं मगर सबसे ज्यादा गाली एक ही नेता को देते हैं, गाँधी से ज्यादा अश्लील चुटकुले शायद ही किसी और नेता पर बने हों।

आप गोडसे को संत का दर्ज दीजिये या नही मुझे फर्क नही पड़ता मगर जिस आदमी ने देश के लिए काफी कुछ किया या करने की कोशिश की उसे इज्ज़त तो दीजिये।

दूसरी बात आज की एक पोस्ट के लिए जिसमे शास्त्री जी को हिंदुत्व और जातीय अस्मिता के नाम पर याद किया गया था। जिस आदमी ने कभी अपने सरनेम का प्रयोग नही किया सिर्फ इस वजह से कि उसकी जातीय पहचान का बोध ना हो उसे ही याद करने के बहाने जातीय समीकरण तलाशे जा रहे हैं।

इस उम्मीद के साथ कि भक्तगण आज के दिन नवरात्र को होने वाली प्लास्टिक की प्लेट्स वाली गंदगी को कम करने का प्रयास करेंगे और मोदी की सफाई की शुरुआत को नाटक कहने वाले लोग खुद नालों में उतर कर सफाई करेंगे।

शुभ विजया!

बोलो दुर्गा माई की जय
आस्चे बोछोर आबार होबे
(अगली साल फिर से उत्सव होगा)


बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

मैनेजमेंट वाला प्यार, हिंदी वाली कविता के साथ

पहले mba की पढ़ाई फिर हिंदी साहित्य का छात्र बनना, दोनों का प्रभाव कहीं न कहीं लेखन में आता है।
नयी पत्रिका साहित्य दर्शन ने अपने प्रवेशांक में मेरी जिन दो कविताओं को जगह दी है उन्हें पढ़ कर आप को भी मुझसे सहमत होना पड़ेगा।

#1#

दो कमरे बनवाए हैं
दिल की छत पर
कुछ लम्हे
वक़्त से लोन लेकर,
इनमे
ज़रा यादें छोड़ जाओ
तो कब्ज़ा हो जाए।

#2#

हर बात
जिंदगी के
उसी मोड़ पर ठहरी हुई है,
पर क्या करूँ
ऊधव!
"मन दस-बीस नही होते"

©अनिमेष