शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

अगर आप फेसबुक और whatsapp दोनों प्रयोग करते है तो ज़रूर पढ़िए।

सेल्फ़ी, फेसबुक और व्हाटसएप्प ये तीन शब्द हम सभी के लिए सहज हैं और ज़्यादातर लोग इन्हें बड़ा हलके ढंग से प्रयोग करते हैं। मेरा हमेशा से मानना रहा है जैसे सोशल ऐतिकेट्स होते हैं, फ़ोन पर बात करने की कुछ तहज़ीब होती है वैसे ही सोशल मीडिया के भी कुछ तौर-तरीके हैं जिन्हें आप को बड़ी ही सावधानी से सीखना चाहिये।बात शुरू करने से पहले एक चीज़ समझ लिजिये फेसबुक एक सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट है और WhatsApp एक मैसेंजर, दोनों का काम करने का तरीका, इस्तेमाल, फायदे और नुक्सान एक दुसरे से बिलकुल उल्टा है और हम में से ज्यादातर लोग इन दोनों के इस्तेमाल में ठीक उलटे ढंग से करते हैं, यानी जो फेसबुक पर करना चाहिए वो whatsapp पर और जो whatsapp पर करना चाहिए वो फेसबुक पर।

एक मोहतरमा जो 23-24 साल की होंगी और एक कंपनी में नौकरी करती हैं ने अपनी फेसबुक प्रोफाइल को बहुत निजी रखा है यहाँ तक की अपनी फोटो भी नही लगायी है(पहली गलती)।वो whatsapp भी इस्तेमाल करती हैं और अक्सर अपनी whatsapp, viber पर फ़ोटो सेल्फ़ी के रूप मे खींचकर लगाती रहती हैं(दूसरी गलती)। उनके किसी दीवाने ने मैडम का नंबर अपने मोबाइल में सेव कर लिया अब उस एकतरफा आशिक़ ने (जो शायद लड़की के आसपास से ही है) वो सारी फ़ोटो लंबे समय तक अपने फोन में सेव कीं। मैडम ने अपने फ़ोन में कोई कोड नही डाला था(एक और गलती) और सेल्फ़ी के शौक में अपने घर की, सो के उठकर, कम(नाममात्र के)कपड़ों में तस्वीरें ले रखीं थीं(सबसे बड़ी गलती)
किसी तरह से वो तस्वीरें उस बन्दे ने अपने फ़ोन में ट्रान्सफर की(याद रखें उत्पीड़न के 50फीसदी मामले अपनों के द्वारा ही होते हैं) और फेसबुक पर उसी लड़की के नाम और तस्वीर से एक प्रोफाइल बनाकर अपलोड कीं। इसके बाद एक एक कर के वो तस्वीरें भी आना शुरू हुई जिनका सामने आना कोई अपराध तो नही पर शर्मनाक ज़रूर था। इसके बाद उसी व्यक्ति ने खुद अपने आसपास उस लड़की के बारे में बाते फैलाना शुरू किया।
आज उस व्यक्ति की पहचान और शिकायत भी कर दी गयी है शायद उसपर कार्यवाही भी हो पर जो नुकसान हो चुका उसकी भरपाई मुशकिल है इस घटना से आप को कुछ सबक ज़रूर सीखने चाहिए।

फेसबुक कोई चैटिंग पोर्टल नही है और यहां आज वास्तविक प्रोफाइल की संख्या फेक प्रोफाइल से ज़्यादा है अतः या तो आप इस पर अकाउंट बनाइये मत और अगर बनाइये तो कम एक वास्तविक फ़ोटो डालिए। वरना कल को आप के नाम से कोई फेक प्रोफाइल बनाएगा तो आप के शुभचिंतक आपके बिना तस्वीर वाले असली अकाउंट को ही नही पहचान पाएंगे।

whatsapp का इस्तेमाल भारत में 7करोड़ लोग करते हैं और इनमें किसी को आप की तस्वीर तक पहुँचने के लिए सिर्फ आप का फ़ोन नंबर चाहिए होता है तो यहाँ अपनी तस्वीर बार बार न बदला करें।(उसपर लाइक भी नही मिलते)

फेसबुक पर अपने बच्चों की तस्वीर और उनके स्कूल के प्रोग्राम की डिटेल कभी ना डालें आप के बच्चे निश्चित ही प्यारे हैं पर लाइक और कमेंट पाने की चीज़ नही हैं।(ह्यूमन ट्रैफिकिंग, किडनैपिंग की ज़्यादातर घटनाओं में जानकारी अब यहीं से उपलब्ध होती है)

आप कहीं घूमने जा रहे हैं, हवाईजहाज, ट्रेन में अकेले सफ़र कर रहे हैं तो इसको स्टेटस में अपडेट ना करें वापस आकर फ़ोटो शेयर करें(आप के घर को अकेला जानकार कौन हाथ साफ कर जाए,कौन आपकी अकेली पत्नी, बच्ची पर........)


अपने फ़ोन में पैटर्न लॉक ज़रूर डालें (आपके फोन में आप के ही नही दूसरों की पर्सनल चीज़ें जैसे उनके नंबर आदि भी होते हैं साथ ही साथ आप की हर id बैंक अकाउंट की डिटेल वगरह भी सेव रहती है यदि आप इंटरनेट से खरीददारी करते हैं तो ये स्थिति और खतरनाक होजाती है)।

आखिरी और सबसे ज़रूरी बात जिसे शायद आपने भी किया या देखा हो कई लोग अपनी पत्नी, प्रेमिका के साथ कुछ व्यक्तिगत तस्वीरें खींचते हैं, लड़कियाँ अपने व्यक्तिगत आनंद के लिये टॉवेल शॉर्ट्स वगैरह में सेल्फ़ी खींचती हैं अगर ऐसी तस्वीर सामने आना आप के लिए असहज है तो तस्वीर मत खींचिए क्योंकि मेमोरी कार्ड से डिलीट होने के बाद भी डेटा रिकवर किया जा सकता है और तस्वीर सबसे आसानी से रिकवर होने वाली वस्तु है।(इसे करने के लिए किसी बड़े तामझाम की आवश्यकता भी नही पड़ती और कितनी भी पुरानी मेमोरी हो तस्वीर 100 में 90 बार वापस आ जाती है) और साइबर क्राइम की सब बातों के बाद भी आप उस तस्वीर को फेक साबित नही कर पाएंगे।

सोशलमीडिया और इंटरनेट बहुत कमाल की चीज़ है। इसे कायदे के साथ इस्तेमाल करिये, बहुत फायदा मिलेगा। अपनी लापरवाही से अपने आपको इस खूबसूरत चीज़ से महरूम मत करिये।

अगर सही जानकारी लगी हो तो इस लेख को आगे शेयर कर दें।


©अनिमेष
तस्वीर इंटरनेट से साभार

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

रिश्ते,फेसबुक से झांकती ज़िन्दगी की किताब

आज जिस किताब की बात मै यहाँ कर रहा हूँ वो बड़ी खास है।ख़ास इसलिए कि उसे मैंने और मेरे जैसे कई लोगो ने रोज़ सुबह परत दर परत बुने जाते देखा है। पिछले एक साल से संजय सिन्हा जी हर सुबह एक बड़ा सा(लम्बा नही) स्टेटस लिखते हैं और इस खूबी से लिखते हैं कि मै और मेरे जैसे लगभग 5,000 लोग सुबह की चाय के साथ अखबार की जगह फेसबुक का ये स्टेटस पढ़ते हैं। मिसेज़ शर्मा बच्चों और हस्बेंड का टिफिन पैक करती जाती हैं और बीच बीच में अपने स्मार्ट फ़ोन को देखती जाती हैं स्टेटस आया की नही, शुक्ला भाईसाहब को तो खुद चाय बनानी पड़ती है क्योंकि भाभी जी ने भी अब महंगा वाला फ़ोन ले लिया है। और संजय भाई अपने इस भरेपूरे परिवार की उम्मीदों को कंधे पर उठाये रोज न जाने कहाँ से किस्से निकाल लाते हैं और इन्ही 365 किस्सों में से कुछ चुने हुए किस्सों का संकलन है प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित किताब 'रिश्ते'

इस किताब को किसी एक खांचे में बांधना मुश्किल है। रिश्ते एक संस्मरण भी है तो एक दस्तावेज भी, jp के आंदोलन और 'इंदिरा हटाओ इंद्री बचाओ' जैसे नारों की बात करते करते ये आपको नॉस्टेलजिया में ले जाकर अचानक से आमिर खान की टैक्सी और केजरीवाल की दिल्ली के बीच ले आती है।"पूरी ज़िन्दगी एक फेसबुक है" या "फेसबुक एक प्रोडक्टिव काम है" जैसे नए दर्शन और सुखी जीवन के सूत्रों की जगह जगह बात करने वाली ये किताब रिश्तों को एक अलग मतलब देती है।

ढेर सारी बातें हैं कहने को रिश्ते नाम की इस किताब और उसके लिखनेवाले के लिए मगर आज समय की दिक्कत और कुछ अलग समस्याएं हैं जो ज़्यादा लिखने की फिलहाल इजाज़त नही दे रहे। कम शब्दों में इतना ही कहूँगा कम से कम एक बार ज़रूर पढ़ें इस किताब को, ज़िन्दगी की कुछ नयी परिभाषाओं को जानने के लिए और आज ही अमेजॉन.कॉम पर जाकर आर्डर करें और अगर यकीं ना हो मेरी बात पर तो संजय सिन्हा जी की वाल पर मन भर कर पोस्ट पढ़ें।
वैसे शाहरुख़ खान ने भी लिख कर दिया है कि किताब ज़रूर पढ़नी चाहिए

https://m.facebook.com/sanjayzee.sinha

©अनिमेष


गुरुवार, 13 नवंबर 2014

किताबों की दुनिया की वासेपुर, नमक स्वादानुसार

हिंदुस्तान के समाज की एक खासियत है कि हम हर चीज़ को एक ही रंग में पेंट करने की कोशिश करने लगते हैं। मसलन किसी ने एक पार्टी की तारीफ कर दी तो वो कम्युनिस्ट हो गया और किसी ने किसी और की बड़ाई की तो वो भक्त बन गया। कुछ मामलों में ये सही हो सकता है मगर हरजगह इस तरह के मापदंड नही चल सकते हैं और खास कर कला-साहित्य में तो कतई नही। मगर हिंदी साहित्य में ऐसा ही होता है अगर आप पॉपुलर हैं तो घिसेपिटे हैं और नहीं बिके तो महान।

कुछ समय से हिंदी में कुछ नए लेखक आए हैं जिनहोने हिंदी की 3 अंकों की बिक्री के रिकॉर्ड को तोड़ा है और इसी के साथ इन्हें पल्प फिक्शन कहने का चलन शुरू हो गया है। वैसे ये थोड़ा संयोग और बहुत सी मेहनत है शैलेश भारतवासी की जो इनमें से अधिकतर किताबें हिन्दयुग्म के खजाने से निकलीं हैं।

आज मै जिस किताब की बात कर रहा हूँ उस पर लिखने का मेरा कोई विचार नही था पर किताब पढ़ने के बाद मुझ पर भी बुखार चढ़ा कि इसके बारे में कुछ बोला जाए।2013 में आई निखिल सचान की किताब 'नमक स्वादानुसार'का।
नमक नामक इस किताब सच में नमकीन है। इसमें न मसालों का चटपटापन है ना कोई मीठी सी प्रेम कहानी, बस सादा नमक है जिसे आप अपने हिसाब से मिलाइये।

90के दशक के ग्रामीण बच्चे और अमिताभ बच्चन की फ़िल्म अजूबा के लिए उनकी दीवानगी, सुपर कमांडो ध्रुव से परमाणु की तुलना कर देना ही पाप है या 'साले' गाली नही है, बड़े कम लेखक हैं आज जो हिंदी में इतना सटीक ऑब्जरवेशन देते है (अंग्रेजी में तो है ही नही)। हीरो और मुग़ालते जैसी कहानी बड़े चुपके से सेंटी कर जाती है तो 'सुहागरात' बिना किसी स्टीरियोटाइप स्त्री बिमर्श के पुरुषप्रधान समाज की औकात बता जाती है।

इन सब के बाद में जो चीज़ किताब को एक अलग ट्विस्ट देती है वो है टट्टी पर लिखी गयी कहानी। जी हाँ! दो लड़के खेत में साथ बैठ कर हग रहे हैं और यहां से कहानी निकलती है। हो सकता है ये बात आप को सो कॉल्ड हाई क्लास न लगे पर ये सामूहिक शौचालय आज भी देश के कई गाँवों की नियमित दिनचर्या का हिस्सा हैं और उनका भी अपना एक सामाजिक स्थान है।

किताब को क्यों पढ़ना चाहिए और क्यों नही? इन दोनों बातों का जवाब एक ही लाइन में दिया जा सकता है, "ये कहानी की दुनिया की गैंग्स ऑफ़ वासेपुर है।" यहाँ गालियाँ भी हैं और बदतमीज़ी भी, चूतियापा भी और हरामीपना भी, मगर एक मज़ा भी है गाँव की कच्ची महक का। अपने रिस्क पे पढ़िए और अपने हिसाब से नमक मिलाइये मुझे दूसरी किताब शुरू करनी है।

©अनिमेष

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हिन्दी में आया VPP युग, क्या अपनी किताब बेचना गुनाह है

हिंदी भाषा में कुछ संबोधन हैं जिन्में सामने वाले की परवाह ना करने के लिए कहा जाता है कि मै उसे अपने शरीर के एक विशेष हिस्से पर रखने लायक समझता हूँ। मेरी समस्या है कि मुझसे ऐसी भाषा का इस्तेमाल नही होता पर कल मेरा मन हुआ बिलकुल यही कहने का। परेशान न हों मेरे साथ कुछ नही हुआ पर जो हो रहा है एक आम पढ़ने वाले के लिए उसे जानना ज़रूरी है।

पिछले कुछ दिनों से कुछ दिनों से हिंदी की चिंता करने वाले कुछ लोग चिंतित हैं। हिंदी के एक नए रचनाकार 'बिमलेश त्रिपाठी' की नयी किताब ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। 'कैनवास पर प्रेम' नाम की इस किताब के प्रचार के लिए विमलेश ने अपने फेसबुक मित्रों को इनबॉक्स में msg भेजा यदि वो उनकी किताब खरीदना चाहें तो उन्हें अपना पता भेज दें, किताब VPP से भेज दी जाएगी। जिन लोगों ने पता भेजा उन्हें किताब भेज दी गई। और जब पोस्टमैन ने उनसे 200 ₹ झटक लिए तब हिंदी साहित्य की इन महान विभूतियों को पता चला कि VPP का VIP से कोई सम्बन्ध नही और इसी के साथ हिंदी मे vpp युग की शुरुआत हुई।

मै विमलेश को नही जानता, ना मैंने उनकी किताब पढ़ी है पर उनके और मेरे 73 मुचुअल फ्रेंड्स से पता चल गया कि मामला क्या है। हिंदी के जो तथाकथित महान लोग रुदाली बने फिर रहे हैं उनकी समस्या है कि अगर हिंदी की किताबें सच में बिकने लगीं तो ऐसे मठों का अस्तित्व ही ख़त्म हो जायेगा जो हर साल 14सितम्बर को कुछ फेसबुक और कुछ किसी सरकारी दफ्तर के कार्यक्रम में रो पीट कर एक शाल और हरी पत्ती ले आते हैं। हिन्दी की सेवा के नाम पर विदेशी दौरों में घूम कर मुफ्त की किताबें, साहित्य इकठ्ठा करते हैं और कस्टम के टोकने पर शान से उसे डस्टबिन में फेंक देते हैं। क्या गलत किया कि अगर किसी लेखक ने कह दिया कि मेरी किताब खरीदना चाहें तो अपना पता बता दें। अगर एक महीने मे 250 से कुछ ज्यादा किताबें बिकने से अगर हिंदी साहित्य बाजारू और दयनीय बन गया हो तो ऐसे साहित्य को मिट ही जाना चाहिए और बिक्री का ये आंकड़ा तब है जब किताब ज्ञानपीठ जैसे स्थापित प्रकाशन से छापी गयी है।

पिछले कुछ दशकों से हिंदी के ठेकेदार वो बने हुए हैं जिन्हें हिन्दी से कुछ लेना देना ही नही है। किसी तरह से आप सालों की मेहनत से एक किताब लिखिए फिर उसे पैसे खर्च कर के छपवाइए, उसके बाद एक कार्यक्रम रखिये और बेटी के बाप की तरह बस सब के सामने हाथ जोड़े खड़े रहिये। मुफ्त की जॉनी वाकर के आचमन से प्रसन्न होकर आप को आशीर्वाद दिया जाएगा कि, "आप की किताब हिंदी साहित्य की धारा बदल देगी, इससे दुनिया बदल जाएगी आदि।" ऐसे लोग रिव्यु भी लिखते हैं और कहने की ज़रुरत नही कि इस रिव्यु में किताब की चर्चा लिखने वाले की जुगाड़ लगवाने की औकात देख कर होती है। पिछले साल हिन्दी के एक बड़े साहित्यकार की बड़ी औसत दर्जे की किताब आयी थी मगर हर रिव्यु वाले भाई साहब ने उसकी हर कमी को साहित्य के साथ नया प्रयोग बताया। एक बात और किताब की बिक्री का किसी भी रिव्यु से सम्बन्ध एक संयोग मात्र ही होता है।

बाबू देवकी नन्दन खत्री, इब्ने सफ़ी, गुलशन नंदा से लेकर हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला और कुमार विश्वास के मुक्तकों तक को हिंदी साहित्य के एक समूह में अछूत घोषित कर के रखा गया है। कोई भी गीतकार ज़रा सा प्रसिद्द हुआ तो उसे 'मंचीय' नामक बौधिक गाली दी जाने लगती है।सिर्फ इस वजह से कि लोगों ने इनको पढ़ा

क्या लेखक को उसकी किताब की कीमत मिलना गुनाह है?

कुछ समय पहले मैंने इसी ब्लॉग में 2 किताबों की बात की थी। एक मसाला चाय दूसरी इश्क़ तुम्हे हो जाएगा। कुल मिला कर 25 से 30 लोग मेरी जानकारी में हैं जिन्होंने मेरी बात को इतनी तवज्जो दी कि या तो किताब खरीद कर या मांग कर पढ़ी। हो सकता है कि ये संख्या आप को छोटी लगे मगर जहां 300 से ज्यादा कॉपी बिकना बेस्ट सेलर मानने का आधार हो वहाँ ये आंकड़े कुछ तो महत्त्व रखते ही हैं।मज़े की बात तो ये है कि अंग्रेजी की बड़ी पत्रिका और समाचार पत्र हिंदी के इस नए उभरते समूह के ऊपर आर्टिकल छाप रहे हैं(किताब पढ़ कर) मगर हिंदी में इसकी आलोचना ही हो रही है।

हिंदी पट्टी पढ़ती नही ये आरोप पूरी तरह से गलत है चेतन भगत की किताबें अंग्रेजी से ज्यादा हिन्दी में बिकी हैं, उर्दू का हर शायर अपना दीवान देवनागरी में ही छपवाता है और लाखों की रॉयल्टी बटोरता है। पिछले दिनों मैंने अंग्रेजी के 2 बेस्ट सेलिंग लेखकों को पढ़ा दोनों की अब तक 10-10 लाख से ज्यादा कॉपी बिक चुकी हैं। एक किताब पर अगर 5₹ की रॉयल्टी भी रख लें तो दोनों को कोई और काम करने की ज़रुरत नही पड़ेगी। क्या हिंदी के हर कवि लेखक को निराला की तरह भूख और पागलपन से लड़ते हुए मरना चाहिए?
नही साहब! फेसबुक, whatsapp और ट्विटर पर सबको बात कहने और सुनने का हक़ है, यहाँ ऐसा नही कि गुरूजी की चरणवन्दना के बिना कोई मौका नही मिलेगा छपने का। आप 200₹ के लिए कितना भी चुतस्पाह कर लें मगर याद रखिये कि हर चीज़ एक एक्सपायरी डेट के साथ आती है और जिस तरह से हिंदी की नई पीढ़ी ऑनलाइन होती जा रही है पुरानी धारणाओं के स्विच ऑफ होने का समय पास आता जा है।
©अनिमेष

सोमवार, 3 नवंबर 2014

किस Kiss की कहानी

पिछले कई दिनों से समझ नही आरहा था कि यहाँ किस की बात करूँ, आज अचानक से जब ट्विटराते जीवों को किस ऑफ़ लव की बातें करते देखा तो लगा, "क्यों न Kiss की बात करी जाए।"
हिन्दी का किस नही अंग्रेज़ी का वही किस जिसके टीवी पर आते ही आप को उठकर पानी पीने जाना पड़ता है और पापा रिमोट से चैनल बदलने की प्रक्रिया को बिना किसी चूक के दोहराते हैं। कोच्ची में जिस किस ऑफ़ लव नामक आयोजन ने अंग्रेजी (अब राजश्री के आलावा सभी हिंदी) फिल्मों की इस अनिवार्य परंपरा को फिर से चर्चा प्रदान की उसकी बात करने से पहले कुछ तथ्य बता दूं किस के बारे में, जिन्हें आप अपने दोस्तों के बीच अगली बार चटखारे ले कर सुना सकेंगे।(सभी तथ्य इन्टरनेट के विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त)

Kiss और honeymoon दोनों की शुरुआत भारत से हुई।किस का पहला ज़िक्र ऋग्वेद में मिलता है जहाँ इसे बोस कहा गया और वहां से ये शब्द लैटिन में बुस बना फिर कुस में परिवर्तित होते होते अंत में किस पर आकर रुका।

लिप-लॉक प्रजाति का किस जिसे अब तक आप अब तक हॉलीवुड से सीखा गया मानते हैं वो भी सिकंदर ने पहली बार हिन्दुस्तान आकर देखा (शायद कर के भी) और सीखा।

हिंदी फिल्मों में चुम्बन युग की शुरुआत मल्लिका शेरावत से कहीं पहले 1929 में (साइलेंट फिल्मों) हो चुकी थी। और 1933 का देविका रानी हिमांशु रानी के बीच 4मिनट का द्रश्य आज भी हिन्दी सिनेमा के सबसे लम्बे दृश्यों में से एक है।

खैर अब इन बातों से बाहर आकर बात करते हैं उस मुद्दे की जिस के बारे में कई दिनों से चर्चा चल रही है।कोच्ची में एक समूह के द्वारा मोरल पुलिसिंग के खिलाफ एक साथ एक जगह पर किस करने की घोषणा की गयी थी और जैसा स्वाभाविक था इसपर विवाद भी हुआ।

मेरी व्यक्तिगत पसंद ऐसे किसी आयोजन की नही है क्योंकि मुझे लगता है कि ये समूह भी निर्णय लेने की स्वतंत्रता से ज्यादा दिखावे की आज़ादी की तरफ ले जाते हैं। ऐसे सभी आयोजनों के बाद मेरे जैसे कई(मुझे नही) अकेले बन्दों को ऐसा लगता है कि ब्लैक एंड डॉग्स नॉट अलाउड की तख्ती आज भी उनके लिए लगी हुई है। मगर मुझे इस आयोजन के विरोध से आपत्ति है।

वैलेंटाइन दे या किस ऑफ़ लव के बाद दो तर्क खूब दिए जाते हैं कि इससे हमारी संस्कृति खतरे में है। आज जींस पहन कर घूम रही हैं कल बिना कपड़ों के घूमेंगी। आज गाल पर किस किया है कल सबकुछ सामने होगा।

अगर 5000 साल पुरानी परंपरा को आप ने इतना कमज़ोर बना दिया कि अगली पीढी के एक आध गुलाब लेने-देने से वो ख़त्म हो जायेगी तो ऐसी दशा के ज़िम्मेदार तो आप ही हो ताऊ। आप खुद सोचिये देश में ऐसे आयोजनों तक आने की नौबत क्यों आयी। पिछले कई सालों में हर वैलेंटाइन दे पर श्रीराम सेना जैसे संगठनों ने खूब तोड़-फोड़ की, सामान्य रूप से घूमते जोड़ों को सरे आम बेईज्ज़त किया, लड़कियों को पीटा, क्या ये भारतीय संस्कृति का हिस्सा था? पिछली साल दिल्ली स्टेशन पर गले मिल रहे पति-पत्नी को पुलिस ने गिरफ्तार किया और फिर अदालत ने उन्हें निरपराध घोषित किया। अगर स्त्री पुरुष के सामाजिक संबंधों को इन संगठनों ने सामान्य रखा होता तो शायद आज ऐसे आयोजनों की नौबत नहीं आती।

अश्लीलता किसी भी रूप में गलत है मगर हमारे समाज के ठेकेदार एक खास प्रकार की सोच को ही पूरे भारत की सोच बना देते हैं। जबकि भारत की विविधता इतनी है कि उसे कभी आयामों में नाप ही नही जा सकता। उत्तर भारत में नवरात्र का अर्थ है व्रत उपवास वहीं बंगाल में यह समय फ़ूड फेस्टिवल का है और जितनी अधिक तरह से पकी मछली आप को नवरात्र में मिलेगी वो किसी और समय मिलना दुर्लभ है। ठीक ऐसे ही उत्तर भारत में अधिकतर महिलाओं के द्वारा रखा जाने वाला एकादशी का व्रत कई जगहों पर सिर्फ विधवाओं का व्रत है। फिर आप कैसे कह सकते हैं कि आप के खानदान में स्त्रीयाँ घर से बाहर नही निकलती हैं तो वो कुलीन हैं और उत्तर पूर्व राज्यों (जहाँ स्त्री सत्ता प्रचलित है) की महिलायें जो ज्यादा बाहिर्मुखी होती हैं चरित्रहीन है।

ठीक इसी प्रकार से कई समूहों में किस का अर्थ व्यक्ति के साथ बदलता है।एक बड़ी महिला का किसी दूसरी स्त्री को चूमना आशीर्वाद है तो समान उम्र की दो महिलाओं का हवाई चुम्बन सिर्फ एक नमस्कार, यूरोप में अगर कोई बड़ी लडकी किसी छोटे लड़के को चूमती है तो वो भाई बहन का प्यार है।

खैर इन सब को छोड़िये एक कविता की दो पंक्तियाँ जो ऐसे ही किसी किस ऑफ़ लव से खिसियाये शायर ने कहीं होंगी।

किस किस की महफ़िल में
किस किस नेकिस किस को
किस किस तरह से किस किया।
एक वो हैं,
जो हर मिस को किस करते हैं
एक हम हैं,
जो हर किस को मिस करते हैं।

अभी भी कुछ बचा हो किस के बारे में तो इस लिंक पर पढ़ सकते हैं।
http://m.wsj.com/articles/BL-IRTB-27097

©अनिमेष