गुरुवार, 13 नवंबर 2014

किताबों की दुनिया की वासेपुर, नमक स्वादानुसार

हिंदुस्तान के समाज की एक खासियत है कि हम हर चीज़ को एक ही रंग में पेंट करने की कोशिश करने लगते हैं। मसलन किसी ने एक पार्टी की तारीफ कर दी तो वो कम्युनिस्ट हो गया और किसी ने किसी और की बड़ाई की तो वो भक्त बन गया। कुछ मामलों में ये सही हो सकता है मगर हरजगह इस तरह के मापदंड नही चल सकते हैं और खास कर कला-साहित्य में तो कतई नही। मगर हिंदी साहित्य में ऐसा ही होता है अगर आप पॉपुलर हैं तो घिसेपिटे हैं और नहीं बिके तो महान।

कुछ समय से हिंदी में कुछ नए लेखक आए हैं जिनहोने हिंदी की 3 अंकों की बिक्री के रिकॉर्ड को तोड़ा है और इसी के साथ इन्हें पल्प फिक्शन कहने का चलन शुरू हो गया है। वैसे ये थोड़ा संयोग और बहुत सी मेहनत है शैलेश भारतवासी की जो इनमें से अधिकतर किताबें हिन्दयुग्म के खजाने से निकलीं हैं।

आज मै जिस किताब की बात कर रहा हूँ उस पर लिखने का मेरा कोई विचार नही था पर किताब पढ़ने के बाद मुझ पर भी बुखार चढ़ा कि इसके बारे में कुछ बोला जाए।2013 में आई निखिल सचान की किताब 'नमक स्वादानुसार'का।
नमक नामक इस किताब सच में नमकीन है। इसमें न मसालों का चटपटापन है ना कोई मीठी सी प्रेम कहानी, बस सादा नमक है जिसे आप अपने हिसाब से मिलाइये।

90के दशक के ग्रामीण बच्चे और अमिताभ बच्चन की फ़िल्म अजूबा के लिए उनकी दीवानगी, सुपर कमांडो ध्रुव से परमाणु की तुलना कर देना ही पाप है या 'साले' गाली नही है, बड़े कम लेखक हैं आज जो हिंदी में इतना सटीक ऑब्जरवेशन देते है (अंग्रेजी में तो है ही नही)। हीरो और मुग़ालते जैसी कहानी बड़े चुपके से सेंटी कर जाती है तो 'सुहागरात' बिना किसी स्टीरियोटाइप स्त्री बिमर्श के पुरुषप्रधान समाज की औकात बता जाती है।

इन सब के बाद में जो चीज़ किताब को एक अलग ट्विस्ट देती है वो है टट्टी पर लिखी गयी कहानी। जी हाँ! दो लड़के खेत में साथ बैठ कर हग रहे हैं और यहां से कहानी निकलती है। हो सकता है ये बात आप को सो कॉल्ड हाई क्लास न लगे पर ये सामूहिक शौचालय आज भी देश के कई गाँवों की नियमित दिनचर्या का हिस्सा हैं और उनका भी अपना एक सामाजिक स्थान है।

किताब को क्यों पढ़ना चाहिए और क्यों नही? इन दोनों बातों का जवाब एक ही लाइन में दिया जा सकता है, "ये कहानी की दुनिया की गैंग्स ऑफ़ वासेपुर है।" यहाँ गालियाँ भी हैं और बदतमीज़ी भी, चूतियापा भी और हरामीपना भी, मगर एक मज़ा भी है गाँव की कच्ची महक का। अपने रिस्क पे पढ़िए और अपने हिसाब से नमक मिलाइये मुझे दूसरी किताब शुरू करनी है।

©अनिमेष

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