गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

नंगे आप हैं, pk नही

पीके के बारे में 3 बार ड्राफ्ट लिखकर डिलीट करने के बाद ये चौथा प्रयास है। पीके एक मसाला फ़िल्म है मगर इसमें सारे मसाले वैसे ही डाले गए हैं जैसे लखनऊ की दमपुख्त बिरयानी या मैसूर के इडली सांभर में डाले जाते हैं- कायदे से और करीने से। सस्ते होटलों की औसत डिश को स्पेशल बनाने के लिए जैसे ऊपर से 4 टुकड़ा पनीर डाला जाता है वैसे आइटम नंबर भी नही डाला गया है। राजू हिरानी जैसे अपने किरदारों मुन्ना भाई, वायरस, चतुर, सर्किट को कहावत में बदल चुके हैं वैसे ही पीके भी एक कहावत बनने की काबिलियत रखता है। जादू की झप्पी, आल इज़ वेल, गांधीगिरी की लीक पर इस बार रॉंग नंबर और लुल्ल हो जैसे नारे हैं और omg के साथ ज़बरदस्त तुलना के बाद भी फ़िल्म प्रभावित करती है। फ़िल्म के ऊपर अनगिनत रिव्यु सोशल मीडिया पर आ चुके हैं और फ़िल्म को देख कर कुछ लोग आहत मोड में जा चुके हैं। ऐसे ही आहत बंधुओं ने मुझसे भी अपील की है कि फ़िल्म हमारे धर्म पर सवाल उठाती है और इससे संस्कृति नष्ट हो रही है।

"अगर आप भगवान को देखे है तो हमारी उससे बात कराइये, नही देखे तो कैसे मान ले की वो सही भगवान है।" यही वो प्रश्न है जिससे आपका धर्म खतरे में आया मगर ये प्रश्न तो विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा था। अब विवेकानंद भी पीके थे क्या?

"ये भगवान् को दूध चढ़ाये से क्या फायदा, भगवान को क्या जरूरत इस की?" इस सवाल के आधार पर तो बड़े बड़े स्टेटस लिखे गए हैं संस्कृति के खतरे की। मगर ये सवाल तो एक 8-10 साल के बच्चे ने अपने पिता से पूछा था। वही बच्चा जिसे 5,000 साल बाद लोग कृष्ण के नाम से पूजने लगे हैं।

फेसबुक के पेज, सुनी सुनाई बातों के अधूरे ज्ञान और गाय की फोटो लाइक करने से जिन लोगों को लगता है कि वो धर्म और संस्कृति को थामने के लायक हैं तो उनहे सबसे पहले नर्सरी की क्लास में बैठ कर आसमान गिरने वाली कहानी पड़नी चाहिए फिर विवेकानंद और कृष्ण की जीवनी।(दर्शन पढ़ने लायक स्तर होगा ये कल्पना करना मुश्किल है) जिस गाय की फोटो सुबह आप शेयर कर कर धार्मिक होने का दम्भ फेसबुक कोटि के हिन्दू भरते हैं उसी के लिए विवेकानंद ने कहा था कि अगर दलित अपने पूर्वजन्मों का फल भोग कर नारकीय जीवन जी रहे हैं तो भूखी गाय भी पूर्वजन्म का फलभोग रही है। गाय को रोटी देने से अच्छा है किसी भूखे को रोटी देना। और कृष्ण उन्होंने तो एक पागल बैल की हत्या ही कर दी थी। क्या हुआ? लुल्ल हो गयी? साहब धर्म इतना कमज़ोर नहीं कि एक फ़िल्म से गिर पड़े और इतना गिरा भी नही कि फेसबुक पर 267 लिखे और 89 कमेंट पाकर उठ जाए। वैसे यही बात हैदर के लिए भी कही गयी थी कि इससे "देश की शान्ती को खतरा है" एक औसत दर्जे की चुतस्पाह फ़िल्म के हिट होने से अगर हिन्दुस्तान की शांति चली जाती तो हाफ़िज़ सईद हर साल दो चार फ़िल्में ही रिलीस कर देता। वैसे एक बात और जो लोग बिना देखे या चश्मा लगाकर देख के पीके का विरोध कर रहे हैं उन्हें चाहिए कि एक बार फ़िल्म देखें कि उसमें ईसाई मिशनरी के खिलाफ भी कहा गया है , हाय हुसैन हम ना हुए के मातम पर भी सवाल उठाया गया है और सवाल उठाने पर मार डालने की बात भी उठाई गयी है।

श्रीमान, धर्म फेसबुक नही है और फेसबुक धर्म नही है। और आपको कितना भी थ्रिल्लिंग लगता हो मगर isis के लड़ाकों के साथ रहना, गाज़ा के धमाकों सुनना और सुबह स्कूल भेज कर शाम को अपने बच्चों को ताबूत में लौटते देखने वाला भारत मेरे सपनों का भारत नही है।एक फ़िल्म में एक लाइन बोल देने से खतरे में और किसी नमाज़वाले के लाल टीका लगा लेने से मज़बूत होने वाला धर्म मेरा धर्म नही है। मेरे लिए ये देश वो है जिसके बारे में मैंने बचपन से सुना है कि यहां दुनिया का हर मौसम हर त्यौहार और हर रंग मिलता है जिसकी हस्ती ना कभी मिट पायी थी ना कभी मिट पाएगी।

हिन्दुस्तान में होने का शुक्र मनाते हुए कि यहां प्रेम का सन्देश देने वाले का ना सर कलम होता है, ना सूली पर लटकाया जाता है मेरी क्रिसमस।

© अनिमेष

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

एक बोतल कोल्ड्रिंक और दस रुपये का अपमान

तहलका के आप बीती स्तम्भ में इस बार जो संस्मरण छापा गया है वो संयोग से मेरा है।
शब्द संख्या बढ़ाने के लिए इसमें बाद में 2-3 पंक्तियाँ बढ़ा दी गयीं पर मूल लेख 95℅ वैसा ही है।

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               -दस रूपए और एक गिलास कोल्ड्रिंक-

 

 

जीवन में किसी चीज़ की कीमत उतनी ही होती है जितनी हमारे मन में होती है। बुज़ुर्गों की भाषा में हम इसे 'सब मन का धन है' कहकर भी समझ सकते हैं और बचपन के दिनों में जब गुब्बारे और टॉफी सोने के गहनों से ज़्यादा कीमती होते हैं तब कुछ बातें हमेशा हमेशा के लिए दिल पर छाप छोड़ जाती हैं।

 

बात 90के  दशक के बीच की है और मै उस समय कक्षा 5 या 6 का छात्र था और एक आम मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे की तरह मेरे लिए भी गर्मी की छुट्टी का अर्थ नानी या मौसी के यहाँ कम से कम बीस दिन बिताना ही था। मेरे लिए मौसी का घर बाकी सब जगहों से बेहतर हॉलिडे डेस्टिनेशन था क्योंकि उनके बड़े से घर और जॉइंट फैमिली के कारण वहाँ और कई हमउम्र बच्चे और खेलने की पर्याप्त जगह होती थी।

 

उस साल किसी वजह से मै अकेले ही मौसी के घर झांसी गया था, या यूँ कहें कि मुझे पहुँचा दिया गया था। मौसा जी की तरफ से एक अन्य रिश्तेदार का एक हमउम्र लड़का 'छोटू' भी वहाँ था और हम दोनों की ही छुट्टियाँ wwf और शक्तिमान की चर्चाओं में मज़े से कट रहीं थीं। एक दिन मौसाजी की एक और रिश्तेदार जो उसी शहर के दुसरे कोने में रहती थीं आई और हम दोनों को उनके घर आने का न्योता दे गयीं। मै पहले भी कई बार उनके घर जा चुका था तो कोई समस्या नही थी और छोटू तो उनका सगा भांजा था ही।

 

एक दिन 11 बजे नाश्ता कर के हम दोनों घर से निकले इधर से बेसिक पर फोन कर दिया गया कि बालक आ रहे हैं। रस्ते का नक्शा रटवाकर, बर्फ का गोला खाने के लिए अतिरिक्त 2-2₹ देने के बाद किसी से फालतू बात ना करने की हिदायत दे कर ही हमें छोड़ा गया। जून का महीना, झांसी शहर और आधे घंटे धूप में सफ़र, हम दोनों का क्या हाल हुआ होगा आप समझ सकते हैं।

 

"अरे तुमलोग आ गए", "कितना लंबा होगया है ये", "कुछ खाया कर दुबला हो रहा है" जैसे हर बार दोहराये जाने वाले जुमलों के साथ बाकी के परिवार के साथ मुलाकात हुई। कुछ देर बैठने और बातें करने के बाद वापस चल दिए। वापस पहुँच कर थोड़ी देर सुस्ताकर जब मौसी से कहा खाना लाओ तो मौसी ने चौंककर पूछा,

वहाँ नही खाया?

नही!

मैंने बड़े आराम से कहा।

"पर छोटू(मेरे साथ वाला लड़का) तो बता रहा था कोल्ड्रिंक क्रीम वाले बिस्कुट और चिप्स खाये थे दस रुपए कहाँ हैं जो वहाँ वाली मौसी ने दिए थे?"

एक साँस में मौसी ने जब इतना कुछ पूछा तो समझ आया कि जब बाहर बैठक में हम से बाकी लोग सवाल जवाब कर रहे थे तो उसी समय छोटू के किचन में जाने का क्या अर्थ था। उस छोटी सी उम्र में एक गिलास कोल्ड्रिंक को लेकर ठगा जाना ज़्यादा बुरा नही लगा ना ही उन दस रुपयों के ना मिलने का, जिनसे सुपर कमांडो ध्रुव की 5 और कॉमिक्स किराये पर लाई जा सकती थीं मगर बड़े लोगों के इस छोटे व्यवहार ने एक ही दिन में मुझे थोडा बड़ा बना दिया।

 

उसके बाद साल बीतते गए, छुट्टियाँ कभी प्रतियोगिताओं की तैयारी में बीतने लगीं तो कभी समर कोर्स करने में और धीरे धीरे मौसी के यहाँ जाना भी कम होता गया। आज लगभग 20 साल बीत चुके हैं इस छोटी सी बात को जो ना तो छोटू को याद है, ना मौसी को, ना ही किसी और को मगर उस दिन के बाद से जब कभी भी उस घर में जाने का मौका आया न जाने क्यों मै बस टालता ही रहा। हालाँकि मैंने कई बार कोशिश भी की है इन मामूली चीज़ों को भूल जाऊं और उनके घर भी हो आऊँ मगर हर बार एक सवाल इतना बड़ा हो जाता है कि इसके आगे कोई कुछ सोच ही नही पाता।-

आखिर उस एक गिलास कोल्डड्रिंक और और दस रुपये की कीमत कितनी बड़ी थी?


मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

बनारस टॉकीज़-किस्सा गोई की नयी दास्तान

बनारस यानी रस का शहर, गन्ने का 5rs गिलास वाला रस नही ज़िन्दगी का रस।तभी तो तुलसी के राम और कबीर की चदरिया से लेकर काशी के अस्सी और रांझणा के कुंदन (धनुष) तक हर बार ये शहर किस्सागोई के एक अलग अंदाज़ में सामने आता है।इसी बनारस शहर के अंन्दर बसे एक और शहर यानी BHU और उसके ढेर सारे वकीलों से भरे होस्टल नंबर 26 की कहानी को सामने लेकर आरहे हैं लेखक सत्य व्यास। इनकी किताब बनारस टॉकीज़ अगले महीने बाज़ार में आएगी मगर इसका एक ख़ास हिस्सा पढ़िए और अगर इस किताब के प्यार में पड़ जाएँ तो नीचे लिखे लिंक पर अपना नाम पता लिखा दीजिये। सही समय पर किताब आप के घर पर लेखक के सिग्नेचर के साथ पहुंच दी जायेगी। मात्र 86rs में।
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किताब: बनारस टॉकीज (पेपरबैक, उपन्यास)
लेखक: सत्य व्यास
पन्ने: 192
कीमत: 115 रुपये
प्रकाशक: हिंद युग्म, दिल्ली




ये भगवानदास है बाउ साहब. 'भगवानदास होस्टल'. समय की मार और अंग्रेजी के भार से, जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सिमटकर बीएचयू हुआ; ठीक उसी समय 'भगवानदास होस्टल' सिमटकर बी.डी. होस्टल हो गया. समय की मार ने इसके नेम में कटौती भले ही की हो; इसके फेम में कटौती नहीं कर पाई. इसके 120 कमरे में 240 'बीडीजीवी' आज भी सोए हैं.

'क्या!! बी.डी.जी.वी. कौन-सा शब्द है?'
'इसीलिये कहते हैं बाउ साहब कि जरा इधर-उधर भी देखा कीजिये! होस्टल में घुसने से पहले जो बरगद है ना; उस पर का Graffiti पढ़िए. जिस पर लिखा है-
'कृपया बुद्धिजीवी कहकर अपमान न करें. यहां बी.डी.जीवी रहते हैं.'
'अब आप पूछेंगे कि ये बी.डी.जीवी क्या बला हैं? रूम नम्बर-73 में जाइए और जाकर पूछिये कि भगवानदास कौन थे? जवाब मिलेगा-‘घंटा!!' ये हैं 'जयवर्धन जी.' ‘लेक्चर - घंटा, लेक्चरर - घंटा, भगवान - घंटा, भगवानदास – घंटा. सबकुछ घंटे पर रखने के बावजूद, इतने नंबर तो ले ही आते है कि पढ़ाकुओं और प्रोफेसरों के आंख की किरकिरी बने रहते हैं. ग़लत कहते हैं कहने वाले, कि दुनिया किसी त्रिशूल पर टिकी है. यह दरअसल जयवर्धन शर्मा के ‘घंटे’ पर टिकी है; और वो ख़ुद अपनी कहावतों पर टिके हैं. हर बहस की शुरुआत और अंत एक कहावत के साथ कर सकते हैं.

'आगे बढ़िये तो रूम नम्बर-79 से धुआं निकलता दिखाई देगा. अरे भाई, डरिये मत! आग नहीं लगा है. भगवानदास के एकमात्र विदेशी छात्र ‘अनुराग डे’ फूंक रहे होंगे. अब ये ‘विदेशी’ ऐसे हैं कि इनके पुरखे बांग्लादेशी थे; लेकिन अब दो पुश्तों से मुगलसराय में पेशेवर हैं. अरे...!! 'पेशेवर मतलब- पेशेवर वकील बाउ साहब!' आप भी उलटा दिमाग़ दौड़ाने लगते हैं! ख़ैर, एक बात और जान लीजिये कि ये बंगाली होने के कारण पूरे भगवानदास के ‘दादा’ हैं. कुछ जूनियर्स के तो ‘दादा भइया’ भी हैं. ससुर टोला भर का सब बात क़्रिकेटे में करते हैं और क्रिकेट के क्या कहा जाता है....Encyclopedia हैं -

'अगर फलाना प्रोफेसर सचिन के फ्लो में पढ़ाता, तब बात बनती.'
'अरे! साला का लेक्चर है कि गार्नर का बाउंसर है?'
'लड़की देखी नहीं बे! साला ग्लांसे मार लेती.'

पिंच-हिटिंग और हार्ड-हिटिंग के अंतर पर घंटा भर लेक्चर दे सकते हैं. मार्क ग्रेटबैच को 'फादर ऑफ पिंच हिटिंग' का ख़िताब इन्हीं का दिया हुआ है. डकवर्थ-लुईस मेथड का ‘द विंची कोड’ देश भर में सिर्फ अनुराग डे समझते हैं. 1987 वर्ल्ड कप के सेमीफ़ाइनल में जब फ़िलिप डेफ्रिट्स के पहले ही ओवर में सुनील गावस्कर बोल्ड हो गए तो 6 साल के अनुराग डे चिल्लाने लगे- Fix है! Fix है! उनके पिताजी को लगा कि बेटा चिल्ला रहा है- Six है! Six है! काश! पिताजी उस दिन समझ गए होते! पिताजी की नासमझी से मैच फिक्सिंग जैसा अपराध फैल गया.

'अच्छा, अच्छा... आपको क्रिकेट में इंटरेस्ट नहीं है!' Girls Hostel में तो है ना? तो रूम नम्बर-79 में ही अनुराग डे के रूम पार्टनर ‘सूरज’ से मिलिये. हालांकि, इनके क्या, इनके बाप के नाम से भी पता नहीं चलता कि वो ब्राह्मण है; लेकिन जानकारों की कमी, कम-से-कम भगवानदास में तो नहीं ही है. फौरन उनकी सात पीढ़ियों का पता चल गया और वो होस्टल के ‘बाबा’ हो गए. फैकल्टी में 'सूरज' और दोस्तों में 'बाबा'. लड़कियों में विशेष रुचि है बाबा की. B.H.U के girls hostel की पूरी ख़बर रखते हैं बाबा. हर खुली खिड़की पर दस्तक देते हैं. खिड़कियों से झिड़कियां मिलने पर उदास नहीं होते; दुगुने जोश से अगली लीड की तलाश में लग जाते हैं. शरीफ लगने और दिखने की कोशिश करते हैं. और हां! दुनिया का सबसे साहसिक कार्य करते हैं... कविताएं लिखते हैं.

'ले बाउ साहब....!!' आपको क्या लग रहा है कि भगवानदास में पढ़ाई-लिखाई साढ़े-बाइस है? इसीलिये तो कह रहे है कि पूरी बात सुनिये-
'किस तरह से पढ़ना चाहते है?'
‘रात भर में पढ़ के कलक्टरी करना है? तो दूबे जी को खोजिये. ‘रामप्रताप नारायण दूबे. जितना लम्बा इनका नाम, उतना ही लम्बा इनका चैनल. हर सेमेस्टर से पहले, पेपर आउट होने की पक्की वाली अफ़वाह फैलाते हैं और हर एग्जाम के बाद अपने reliable source को दमपेल गरियाते हैं. रूम नम्बर-85. हां! तो रात भर में कलक्टरी करना है तो दूबे जी को धर लीजिए. ज़्यादा खर्चा नहीं होगा; केवल रात भर जागने के लिए चाय पिलाइये; मन हो तो दिलीप के दुकान का ब्रेड-पकोड़ा खिला दीजिये. दूबे जी ऐसा बूटी देंगे कि बस जा के कॉपी पर उगल दिजिये; बस पास... गारंटी.’
'क्या!! कैसा बूटी?'
‘अरे! वो उनका पेटेंट है. कहते हैं कि अगर देश उनसे खरीद ले तो देश का एजुकेशन सिस्टम सुधर जाये. फॉर्मुला वन नाम है उसका. फॉर्मुला वन मतलब - एक चैप्टर पढ़ो और पांचो सवाल में वही लिखो. और लॉजिक यह कि सवाल तो कुछ भी पूछा जा सकता है; लेकिन इंसान लिखेगा वही, जो उसने पढ़ा है. सो, दूबे जी एक सवाल तैयार करते हैं, और परीक्षा में पांचों सवाल कर आते हैं.
‘ओहो! क्या? आपको खाली पास नहीं होना है; नॉलेज बटोरना है? अरे! तो पहले बोलते! झुठो में एक कहानी सुन लिये- जाइये, जाकर ज्वाइन कीजिये 'राजीव पांडे' की क्लास. रूम नम्बर-86 में चलता है उनका क्लास. पढ़ा तो ऐसा देंगे कि लेक्चरर लोग उंगली चूसने लगेंगे. यूपीएससी के सब attempt ख़त्म हो जाने पर इन्हें ‘कैवल्य’ की प्राप्ति हुई और पांडे जी लॉ करने आ गये. खूब पढ़ते हैं और उतना ही लिखते हैं. परीक्षा में अक्सर question इसीलिये छूट जाता है कि उनको पता ही नहीं लग पाता कि कितना लिखें? इसीलिये गलती से भी से उनका नम्बर मत पूछियेगा! खिसिया जाएंगे. परीक्षा हाल में ससुर को खैनी नहीं मिलता है तो लिखिये नहीं पाते है.

और अब, जब पूछ ही लिये हैं, तो सुनिये, ‘पढ़ाई’ के बारे में बी.डी.जीवीयों के विचार:
अनुराग उर्फ दादा - कीनीया-हॉलैंड मैच (वक़्त की बर्बादी)
राजीव पांडे - A representation or rendering of any object or scene intended, not for exhibition as an original work of art, but for the information, instruction, or assistance of the maker; as, a study of heads or of hands for a figure picture. बाप रे बाप!!!
जयवर्धन- ‘घंटा..!!’
सूरज 'बाबा' – ‘ABCDEFG- A Boy Can Do Everything For Girls.’
दूबे जी – सिस्टम के लिये नौकर पैदा करने वाली मशीनरी.

ज्ञान तो बिखरा पड़ा है भगवान दास होस्टल में. बस देखने वाली आंखे चाहियें. आँखें से याद आया-
'फ़िल्म देखते हैं बाउ साहेब?'
'क्या? क्या कहे? आपके जैसा फ़िल्म का ज्ञान कम ही लोगों को है?'
'अच्छा तो बताइये कि ‘डॉली ठाकुर’ किस फ़िल्म में पहली बार आई थी?'
'क्या...? दस्तूर?'
'अरे, बाउ साहेब...!! इसिलिये ना कहते हैं कि डॉली ठाकुर और डॉली मिन्हास में अंतर समझिये और भगवानदास आया-जाया कीजिये.'
'कमरा नम्बर-88 में नवेन्दु जी से भेंट कीजिये. भंसलिया का फिलिम, हमारा यही भाई एडिट किया था. जब ससुरा, इनका नाम नहीं दिया तो भाई आ गये ‘लॉ’ पढ़ने कि ‘वकील बन के केस करूँगा.’ देश के हर जिला में इनके एक मौसा जी रहते है.
डॉक्टर-मौसा, प्रॉक्टर-मौसा, इलेक्ट्रिशियन-मौसा, पॉलिटिशियन-मौसा. घोड़ा-मौसा, गदहा-मौसा. ख़ैर, मौसा महात्मय छोड़ दें तो भी नवेन्दु जी का महत्व कम नहीं हो जाता. फ़िल्म का ज्ञान तो इतना है कि पाक़ीज़ा पर क़िताब लिख दें. शोले पर तो नवेन्दु जी डाक्टरेट ही हैं. अमिताभ के जींस का नाप, धन्नो का बाप, बुलेट पर कम्पनी का छाप और बसंती के घाघरा का माप तक; सब उनको मालूम है. गब्बरवा, सरईसा खैनी खाता था, वही पहली बार बताए थे. अमिताभ बच्चन को याद नहीं होगा कि कितना फ़िल्म में उनका नाम ‘विजय’ है. अमिताभ बोलेंगे - 17, तो नवेन्दु बोलेंगे ‘नहीं सर - 18. आप ‘नि:शब्द’ को तो भूल ही गये. ‘गदर’ के एक सीन में सनी देओल के नाक पर मक्खी बैठी तो नवेन्दु जी घोषणा कर दिये कि ‘फ़िल्म ऑस्कर के लिये जाएगी; क्योंकि आदमी को तो कोई भी डायरेक्ट कर सकता है; लेकिन मक्खी को डायरेक्ट करना...बाप रे बाप! क्या डायरेक्शन है! ऐसे ज्ञानी हैं नवेन्दु जी..........



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