रविवार, 28 सितंबर 2014

साहित्य और संगीत का गला हम उसके प्रेम के नाम पर दबा रहे हैं

संस्कृत की एक कहानी हम सभी ने बचपन में पढ़ी है, जिसमें एक राजा एक बन्दर को सेवक बनाकर रखता है। यह सेवक एक दिन अपनी ज़रुरत से ज्यादा सेवा के चाकर में राजा की ही नाक काट देता है। यह कहानी आज एक कार्यक्रम से लौटने के बाद रह रह कर याद आ रही है।

फर्रुखाबाद हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का घराना है और ठुमरी के बड़े विशेषज्ञ स्व० ललन पिया की भूमि भी रही है।

आज ललन पिया जन्मतिथि है और शास्त्रीय संगीत का एक कार्यक्रम शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में था। आज की तारीख में शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में लोग कितनी रूचि लेते हैं इस पर तो किसी को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए मगर लोगों की कुछ बातें दिल को गहरा दर्द दे गयीं तो आप सब से बाँट रहा हूँ। और यह समस्या सिर्फ आज के कार्यर्क्रम की नही कई जगह की है

एक सामान्य श्रोता को नही पता कि भैरवी और खमाज में क्या फर्क है अगर आप एक ही ताल में एक ही जैसी चीज़ सुनाये जा रहे हैं तो सामान्य आदमी के लिए वह एक बोरिंग रिपीटेशन से ज्यादा कुछ नही है।क्या सूफी, ग़ज़ल, कुछ अच्छे भजनों के साथ मिलाकर यदि कुछ विशुद्ध शास्त्रीय कार्यक्रम भी पेश किये जाएँ तो मेरा ख्याल है एक सामान्य व्यक्ति अपने आप को वहां फंसा हुआ नही पायेगा।

दूसरी समस्या मुझे शुद्धतावाद के नाम से होती है, क्या करेंगे हम शुद्धता का जब विधा ही लुप्त हो जाएगी।कभी पंडित रविशंकर को किसी विदेशी कार्यक्रम में बजाते सुनिए, वो इतनी तेज़ी से और आकर्षक ढंग से शुरू करते थे कि सुनने वाला एक पल के लिए चौंकजाता और फिर बिना सुने नही रह पाता था। ऐसा ही कुछ उस्ताद राशिद खान, अमज़द अली खान और शुभा मुद्गल की प्रस्तुति में भी होता है।

शुद्धता की इसी बीमारी ने हिंदी को हास्यास्पद बना डाला है। और सही भी है जब ट्रेन के स्थान पर लौहपथ गामिनी अग्नि रथ शब्द की बात करी जाये तो ना हंसने वाले के साथ निश्चित ही समस्या होगी। ठीक वैसे ही हनी सिंह के गाने सुनने के आदी लोगों को एकदम से 3 घंटे बैठाकर के ख्याल सुनाकर उनकी संगीत में रूचि पैदा करने की कोशिश भी कितनी कारगर है हमें सोचना चाहिए।

आज के तथाकथित बड़े बड़े लेखक साहित्यकार ऎसी हिंदी की कहानियाँ, कविता लिखते हैं जिन्हें समझने के लिए साहित्यिक अल्फा-बीटा, थीटा आदि की ज़रुरत पढ़ती है और अगर किसी का लिखा ज्यादा लोगों को समझ आजाये तो उसका साहित्य की बिरादरी से हुक्का पानी बंद हो जाता है और अंत में रोना पीटना होता है,
"साब आजकल हिंदी को कोई पूछता नही, क्लासिकल को तो कोई सुनना नही चाहता"।

सच बात तो यह है कि लोग सुनाना नही चाहते।
मैंने लगभग हर कवि सम्मलेन में देखा है और आज यहाँ भी देखा कि परफॉरमेंस से पहले कई बड़े कलाकार अपनी फोटो खिंचवाने में लगे रहते हैं और अपना काम निपटते ही उन्हें कोई अर्जेंट काम याद आ जाता है। जब आप खुद ही अपने साथी को सुनना नही चाहते हो हमें काहे सुनने को बोल रहे हो भाई। हमारा सन्डे क्या सन्डे नही है क्या?

बड़ा बुरा लगता है जब कई निस्वार्थ रूप से समर्पित लोगों के कई प्रयासों पर कुछ गलत परम्पराएँ हावी हो जाती हैं।
इन सारी चीज़ों ने इस देश को और इसकी बौद्धिक विरासत को काफी नुक्सान पहुँचाया है। बड़ी ग्लानी होती है जब यह कहना पड़ता है कि फर्रुखाबाद घराने का अब कोई भी फर्रुखाबाद में नही है। मुझे अन्दर से लगता भी है ये सूरत बदलनी भी चाहिए किन्तु इस तरह की हरकतों से(जो आज के कार्यक्रम में देखीं) तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी के मन में अपने साहित्य और शास्त्रीय संगीत के प्रति एक खौफ पैदा कर रहें हैं।

अगर आप इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं और आप साहित्य या संगीत से जुड़े हैं तो कोशिश करिए की उसे सभी के समझने लायक बनायें और यकीन मानियें ऐसा आप उसकी क्वालिटी को गिराए बिना भी कर सकते हैं।

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

दीपिका पादुकोण और टाइम्स ऑफ़ इंडिया, कपड़ों और भाषा से परे यहाँ सब गुंडे हैं

एक सज्जन ट्रेन में जा रहे थे और सो गए किसी ज़रूरतमंद आदमी ने उनकी जेब से उनका मोबाइल निकाल लिया। जब वह उठे तो बड़ा दुखी हुए मुझसे मांगकर फोन बीवी को लगाया था और फोन उठाते ही उससे बोले

"तुम्हारी गलती से आज मोबाईल चोरी हो गया।
घर आकर बताता हूँ तुझे!"

मेरे कुछ पूछने से पहले खुद ही बताया कि , साहब बीवी ने सुबह पेट भर कर आलू के पराठे खिला दिए तो नीद आगई, न वो पेट भर कर खिलाती न ये नुक्सान होता।

हिन्दुस्तान में हर गलत बात औरतों से शुरू और ख़त्म होती है।लव जिहाद के कारण धर्म के खतरे में आने से लेकर विराट कोहली के रन ना बनाने तक की ज़िम्मेदार सिर्फ महिलाएं ही होती हैं। एक सुन्दर सी पुलिस अफसर को उसका बॉस छेड़ता है तो गलती उस महिला की(अरुणा राय), एक नेशनल शूटर किसी उच्चवर्ग के पुरुष के प्रेम में पड़ कर उससे शादी करती है और वह व्यक्ति धोख़ेबाज निकलता है तो लड़की की (तारा शाहदेव) गलती ऐसे बताई जाती है कि जैसे अरेंज मैरिज में तो कोई झूठ बोलता नही।

पिछले दिनों टाइम्स ऑफ़ इंडिया के और दीपिका पादुकोण के बीच चल रहे विवाद ने हम सबके दिमागों में पल रही उस मानसिकता को उजागर किया जिसमें वह सिर्फ एक वस्तु है। टाइम्स सहित कई अखबार तथा चैनल अपने ऑनलाइन माध्यमों में हीरोइनों के फोटो को सनसनीखेज शीर्षकों के साथ प्रस्तुत कर के ही अपनी दुकान चलाते हैं और जो लोग कल तक बस स्टाल पर कोई राजनितिक पत्रिका उठाने के बहाने से मनोहर कलियाँ या मैक्सिम को कनखियों से देखा करते थे, आज अपने फ़ोन की स्क्रीन पर उसे जी भर कर देख कर खुश होतें हैं।
इस पूरे व्यापर के डिमांड और सप्लाई वाले तर्क के कारण इस पर आपत्ति करने का कोई औचित्य नही है मगर मुझे सबसे ज्यादा हैरानी हुई टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एडिटोरियल को पढ़ कर।

एक अभिनेत्री के किसी पुराने विडियो को जिसमे उसके अन्तःवस्त्र गलती से दिख रहे हैं या साडी का आँचल अपनी जगह से हट गया है को आपने ज़ूम कर उसपर लाल घेरा बनाकर आपने उसे खबर बनाकर पेश किया। इस पर जब आपत्ति की हुई तो आपने लिखा की यह तो सुन्दरता का कॉम्पलिमेंट है।
क्या यही कॉम्पलिमेंट आपकी माँ, पत्नी या बहन को दिया जाये तो चलेगा?
इस पर जब फिर से दीपिका ने आपत्ति की और अपने फ़िल्मी किरदारों से अपने निजी जीवन को  अलग जाताया तो टाइम्स की प्रतिक्रिया ऎसी ही थी जैसे कि गली का कोई गुंडा किसी लड़की को छेड़ता है उसे प्रोपोज करता है और लड़की के ना कहने पर उसपर तेजाब फेंकता है या उसके चरित्र को लेकर ऊँगली उठाता है। जो चित्र साथ में टाइम्स ने छापे और जिन शब्दों के साथ कहा कि "हमने आप के *और * की बात तो नही की थी", उन्हें हिंदी में लिखने पर यह ब्लॉग 18+ की श्रेणी में चला जायेगा।

इस देश में एक विडम्बना है कि आप अगर अंग्रेजी बोलना सीख लें फिर बोआ की किताब 'the second sex' और जेन ऑस्टिन की pride and prejudice  पढ़ लें तो आप प्रगतिशील हो गए और इन सबके बीच यदि आपने इंडिया गेट पर ओरी चिरय्या जैसे गाने गा लिए तो फिर आपको एक्टिविस्ट का तमगा मिलना तय है। पिछले साल सोमा जी को याद करिए, कैसे तरुण तेजपाल जी के महिला अधिकारों को एडजस्ट किया था। यही मोहतरमा आसाराम के खिलाफ बगावत का झंडा बुलन्द करे थीं।


किसी का भी पेशा ऐसी चीज़ों की डिमांड करता है जो शायद उसे व्यक्तिगत जीवन में पसंद ना हों। और हर व्यक्ति अपने जीवन में अलग अलग घेरे बना कर रखता है। ऑफिस में बहुत सख्त बॉस प्रेमिका के सामने दयनीय हो सकता है तो सास ससुर के सामने साडी में रहने वाली महिला पति के साथ किसी बीच पर शॉर्ट्स में आराम से घूम सकती है।यह हिप्पोक्रेसी नही अपने अपने कम्फर्ट जोन का मामला है।

कोई भी कोई काम क्यों चुनता है और कैसे करता है इस बात से किसी को कोई समस्या नही होनी चाहिए और किसी के दैनिक जीवन से (विशेष रूप से लड़की के) उसे शर्मिंदा करने वाली बातें ढूंढ कर उसपर झगडा करना कहीं से भी पत्रकारिता नही है। पश्चिम के पपराजी जो घिनौनी चीज़े पत्रकारिता के नाम पर करते हैं उन्ही को हिन्दुस्तान में लागू करने की यह घटिया कोशिश है।(अगर आप को याद हो पिछले साल केट मिडल्टन की छुप कर ली गयी तस्वीरों से उन्हें कैसे शर्मिंदा करा गया था)

टाइम्स ऑफ़ इंडिया का यह आर्टिकल बताता है कि भाषा, बोलचाल, कपड़ों आदि के अंतर के बाद भी लोग अन्दर से एक जैसे ही हैं, घटिया और जंगली।
अपनी ही लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं

"तुम्हारे लिबास
कम ज्यादा
आधे पूरे
चमकते सादा
चाहे जो हों
फर्क नही!
इस शहर की
तहजीब है
तमाशा देखना" -©अनिमेष

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

साहित्य के सफ़र में जानकीपुल पर कुछ पल

पिछले दिनों जब ABP news ने घोषणा की कि हिंदी के ब्लॉगर सम्मानित किये जाएँगे तो मेरी पहली प्रतिक्रिया थी "जानकीपुल का नम्बर पक्का है!"

यूँ तो हिंदी ब्लॉग और ब्लॉगर, साहित्य के पर्वर्दिगारों की नज़र में अक्सर टाइमपास ही होते हैं और "फेसबुक आपको समाज और अच्छे लोगों से काटता है" जैसी धारणा सोशल मीडिया पर लिखे गए हर दूसरे लेख में दिखाई दे जाती है मगर पिछले कुछ समय में मैंने अपने आस पास इन दोनों तथ्यों को गलत साबित होते देखा है।

जानकीपुल से पहला संपर्क किसी मित्र की वाल पर हुआ जिसमें मुजरे और गाने वाली बाई जी को लेकर लिखे गए एक पोस्ट को शेयर किया गया था।वहीँ प्रभात रंजन जी से संपर्क भी इसी पुल के माध्यम से हुआ।

जानकीपुल पर ही पढ़े गए लेख के कमेंट से दिव्यप्रकाश दुबे और उनकी मसाला चाय से पहचान हुई और जो धीरे धीरे और गहरा गयी तो iit के छात्र के द्वारा लिखे गए सिनेमा के नौ रसों को पढ़ कर अपने आप को सोच में पड़ा पाया।

आज कल अधिकतर साहित्यिक पत्रिकाओं में कविता पन्ने भरने के काम ज्यादा आती है नए कलेवर को दिखने में कम। मगर कई दिनों बाद सुभम श्री का लिखा-

"बिल्लू हार नही माना रार नयी ठाना"

अपने आप जुबां पर आकर बैठ गया। प्रभात जी आपने जिस खूबसूरती से केदारनाथ अगरवाल से लेकर आज के कवियों लेखकों को मंच दिया है वो तो प्रशंसनीय है ही। हम जैसे पाठकों और साहित्य के छात्रों की जो मदद आपके इस जानकीपुल से हुई है वो भी बड़ा महत्वपूर्ण है।
भारतेंदु जी पर लेख हो या मिश्र बंधुओं के द्वारा स्थापित की गयी आलोचना के ऊपर प्रकाश डालती पोस्ट ये सब मिलकर कुछ एक्स्ट्रा नंबर तो दिलाएंगे ही।


बस यही वजह रहीं कि जब ABP के सम्मान की फोटो प्रभात जी के वाल पर देखी तो उसमे एक टुकड़ा अपना भी नज़र आया।

अगर अच्छे हिंदी साहित्य में आप की भी रूचि है तो एक बार इस लिंक को देख ही डालिये।

www.jankipul.com

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

मध्य वर्ग के सुन्दर काण्ड

        

 

आप के जीवन में कुछ ऐसे कार्यक्रमों के निमंत्रण आते ही हैं जिनमे जाने के लिए शादी से पहले आपकी माँ तथा शादी के आपकी पत्नी लम्बा भाषण पिलाती है और अंत में दोस्तों से, "अबे शुक्ला के घर की बात है, जाना पड़ेगा" की स्वीकृति के बाद आप को जाना ही पड़ता है। एक इतवार की शाम को मुझे भी ऐसे ही आयोजन में जाना पड़ा।

 

वैसे तो ये सुन्दरकाण्ड का पाठ था मगर आप इस नाम की जगह माता की चौकी, जगराता, साईं संध्या या ऐसा ही कुछ नाम रख सकते हैं और हिंदी भाषी भारत की कोई भी गली, मोहल्ला, कालोनी को स्थान मान सकते हैं।

 

अब सवाल ये कि ये आयोजन क्यों?

तो इसका सीधा सा जवाब है कि भारतीय मिडिल क्लास परिवार की श्रद्धा ऐसे आयोजनों के लिए दो कारणों से जागती है।

 

पहला जब पड़ोस के सक्सेना साहब और गुप्ता जी  ने तरक्की मिलने पर ऐसा कोई आयोजन करवा दिया हो

या फिर ग्वालियर वाली बुआ के देवर के लड़के का iit में सिलेक्शन ऐसी ही किसी मनौती के बाद हुआ हो।

 

मगर विविध भाषा वाले देश में कुछ ऐसे मूल तत्व हैं जो हर परिस्थिति में अटल रहते हैं।

 

सरकारी स्कूल में आधे से ज्यादा टाइम स्टाफ रूम में बिताने वाले हिंदी या संस्कृत के गुरूजी इतवार की शाम और अपने ज्ञान का समुचित उपयोग कर अतिरिक्त पुण्य और पैसा दोनों कमा लेते हैं।

इंडियन आइडल की लाइन में लगे रहने वाले कई घरेलू पॉप स्टार अपनी गाने की भड़ास को फ़िल्मी धुनों के भजनों से पूरा करलेते है और बीच बीच में कुछ दोहे चौपाई बड़े ही कलात्मक ढंग से गुलाम  अली स्टाइल में सुना कर आपकी धार्मिकता को भी जिलाए रखते हैं।

 

मेजबान mr शर्मा छप्पन इंच की मुस्कान के साथ स्वागत में दिख जाते हैं वहीँ mrs शर्मा अपने नए अनारकली सूट में फोटोशूट कर फेसबुक पर पोस्ट करती रहती हैं ।

 

एक कोने पर कॉलेज जाने वाली पार्टी कूल होकर नाचती झूमती दिखती है।

आप कह सकते हैं की अगर ये लोग हनी सिंह की जगह हनुमान चालीसा पर झूम रहे हैं तो इससे भारतीय संस्कृति का भला हो रहा है मगर यकीन मानिये कि जब से हर शादी में dj अनिवार्य हुआ है लोग मुन्नी और शीला क्या जनरेटर की आवाज पर भी नाच सकते हैं।

 

वैसे इस भीड़ में कुछ लोग ऐसे भी दिख जाते हैं जो किसी कोने में बैठकर अपनी बाकी बच गयी आस्था को किसी तरह जोड़तोड़ कर अपना ध्यान लगाने की कोशिश कर रहे होते हैं ओर दूसरी तरफ मेरे जैसे बीच में उठ आने वाले भी होते हैं जिनके लिए कहा जाता है कि, "पढ़ लिख कर ज्यादा मॉडर्न होगए हैं।"

 

वास्तव में संगीत और धर्म का बैर नही है।

भक्ति में जितनी साधना और तपस्या है उतना ही परम आनन्द का उत्सव भी है।

वृन्दावन और ऐसी ही कई जगहों के कुछ मंदिरों में आज भी वह भावपूर्ण कीर्तन होता मिलजाता है कि मन होता है सब कुछ भूल कर उसी में खो जाएँ।मगर जो इन तथाकथित धार्मिक आयोजनों में हो रहा है वह माध्यमवर्गीय समाज के द्वारा अपने आप को बाकियों से बेहतर साबित करने की कोशिशों पर चढ़ाया गया धर्म का मुल्लमा मात्र है।

तभी तो चीनी का खर्च महीने में 10 ₹ बढ़ जाने पर हंगामा करने वाले लोग माइक पर अपने नाम से अरदास सुनने के लिए 100₹ हँस कर देते हैं।

 

इन सबके बीच मेरी भगवान से यही प्रार्थना है की ऐसे आयोजनों से बचाते हुए वह मेरी आस्था को बचाए रखे।


मंगलवार, 2 सितंबर 2014

लव और जिहाद दोनों को अलग अलग ही रखो भाई

जैसे गुलाब और जामुन दोनों मिलकर जब गुलाब जामुन बन जाते हैं तो उसका अर्थ कुछ और ही होजाता है। ऐसा ही आज कल चर्चा में आये दो शब्दों के साथ है।
लव अर्थात प्रेम और जिहाद अर्थात अपने आप के साथ किया गया संघर्ष, किन्तु जब दोनों मिलकर साथ आते हैं तो यह लव जिहाद एक दुसरे ही अर्थ में सुनाई देता है।


ये लव जिहाद वास्तविक है या राजनितिक कल्पना इसका उत्तर मेरे पास न है न मुझे चाहिए मगर कुछ बातें मै दोनों पक्षों (सेक्युलर vs हिंदुत्व) से पूछना चाहता हूँ।

तारा सहदेव के साथ जो कुछ भी हुआ क्या वैसी हिंसा किसी और लड़की, चाहे उसकी शादी कैसे भी हुई हो, के साथ नही होती।

अगर आपकी बहन, बेटी इतनी बेवकूफ है कि किसी भी लड़के के पास में एंड्राइड फ़ोन या पल्सर मोटरसायकिल देख कर उसके साथ चल दे तो उसको पढ़ाइये लिखाइये ना कि लड़कों के पीछे पड़ जाइये।

जब हिंदुत्व को बचाने के नाम पर 5-10 बच्चे पैदा करने की बात करी जाती है तो क्या यह समाज और राष्ट्रद्रोह नही है।(संसाधनों और जनसँख्या के कारण)

आपने कितने मुस्लिमों को देखा है जो एक से ज्यादा बीवियाँ रखते हैं।मेरी जानकारी में ऐसा कोई नही है।

और फेसबुक और whatsapp पर आने वाले sms कि फलानी जगह मंदिर गिराया जा रहा है उस जगह मस्जिद को नुक्सान पहुँचाया गया, क्या ये इतने छोटे मामले हैं कि सिर्फ sms में सिमट जाएँ।याद रखिये कि एक मस्जिद गिरी थी तो देश आजतक भुगत रहा है।


मोरल ऑफ़ स्टोरी ये है कि लव भी करिए और अपने आप के साथ जिहाद भी करिये (कृष्ण ने भी कहा है युद्ध करो पार्थ!) मगर दोनों को अलग अलग अलग रखिए।

नोट- यह पोस्ट रोज रोज आने वाले स्पैम sms के लिए लिखी है जो धीरे धीरे कैंडी क्रश की जगह ले रहें हैं।