संस्कृत की एक कहानी हम सभी ने बचपन में पढ़ी है, जिसमें एक राजा एक बन्दर को सेवक बनाकर रखता है। यह सेवक एक दिन अपनी ज़रुरत से ज्यादा सेवा के चाकर में राजा की ही नाक काट देता है। यह कहानी आज एक कार्यक्रम से लौटने के बाद रह रह कर याद आ रही है।
फर्रुखाबाद हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का घराना है और ठुमरी के बड़े विशेषज्ञ स्व० ललन पिया की भूमि भी रही है।
आज ललन पिया जन्मतिथि है और शास्त्रीय संगीत का एक कार्यक्रम शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में था। आज की तारीख में शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में लोग कितनी रूचि लेते हैं इस पर तो किसी को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए मगर लोगों की कुछ बातें दिल को गहरा दर्द दे गयीं तो आप सब से बाँट रहा हूँ। और यह समस्या सिर्फ आज के कार्यर्क्रम की नही कई जगह की है
एक सामान्य श्रोता को नही पता कि भैरवी और खमाज में क्या फर्क है अगर आप एक ही ताल में एक ही जैसी चीज़ सुनाये जा रहे हैं तो सामान्य आदमी के लिए वह एक बोरिंग रिपीटेशन से ज्यादा कुछ नही है।क्या सूफी, ग़ज़ल, कुछ अच्छे भजनों के साथ मिलाकर यदि कुछ विशुद्ध शास्त्रीय कार्यक्रम भी पेश किये जाएँ तो मेरा ख्याल है एक सामान्य व्यक्ति अपने आप को वहां फंसा हुआ नही पायेगा।
दूसरी समस्या मुझे शुद्धतावाद के नाम से होती है, क्या करेंगे हम शुद्धता का जब विधा ही लुप्त हो जाएगी।कभी पंडित रविशंकर को किसी विदेशी कार्यक्रम में बजाते सुनिए, वो इतनी तेज़ी से और आकर्षक ढंग से शुरू करते थे कि सुनने वाला एक पल के लिए चौंकजाता और फिर बिना सुने नही रह पाता था। ऐसा ही कुछ उस्ताद राशिद खान, अमज़द अली खान और शुभा मुद्गल की प्रस्तुति में भी होता है।
शुद्धता की इसी बीमारी ने हिंदी को हास्यास्पद बना डाला है। और सही भी है जब ट्रेन के स्थान पर लौहपथ गामिनी अग्नि रथ शब्द की बात करी जाये तो ना हंसने वाले के साथ निश्चित ही समस्या होगी। ठीक वैसे ही हनी सिंह के गाने सुनने के आदी लोगों को एकदम से 3 घंटे बैठाकर के ख्याल सुनाकर उनकी संगीत में रूचि पैदा करने की कोशिश भी कितनी कारगर है हमें सोचना चाहिए।
आज के तथाकथित बड़े बड़े लेखक साहित्यकार ऎसी हिंदी की कहानियाँ, कविता लिखते हैं जिन्हें समझने के लिए साहित्यिक अल्फा-बीटा, थीटा आदि की ज़रुरत पढ़ती है और अगर किसी का लिखा ज्यादा लोगों को समझ आजाये तो उसका साहित्य की बिरादरी से हुक्का पानी बंद हो जाता है और अंत में रोना पीटना होता है,
"साब आजकल हिंदी को कोई पूछता नही, क्लासिकल को तो कोई सुनना नही चाहता"।
सच बात तो यह है कि लोग सुनाना नही चाहते।
मैंने लगभग हर कवि सम्मलेन में देखा है और आज यहाँ भी देखा कि परफॉरमेंस से पहले कई बड़े कलाकार अपनी फोटो खिंचवाने में लगे रहते हैं और अपना काम निपटते ही उन्हें कोई अर्जेंट काम याद आ जाता है। जब आप खुद ही अपने साथी को सुनना नही चाहते हो हमें काहे सुनने को बोल रहे हो भाई। हमारा सन्डे क्या सन्डे नही है क्या?
बड़ा बुरा लगता है जब कई निस्वार्थ रूप से समर्पित लोगों के कई प्रयासों पर कुछ गलत परम्पराएँ हावी हो जाती हैं।
इन सारी चीज़ों ने इस देश को और इसकी बौद्धिक विरासत को काफी नुक्सान पहुँचाया है। बड़ी ग्लानी होती है जब यह कहना पड़ता है कि फर्रुखाबाद घराने का अब कोई भी फर्रुखाबाद में नही है। मुझे अन्दर से लगता भी है ये सूरत बदलनी भी चाहिए किन्तु इस तरह की हरकतों से(जो आज के कार्यक्रम में देखीं) तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी के मन में अपने साहित्य और शास्त्रीय संगीत के प्रति एक खौफ पैदा कर रहें हैं।
अगर आप इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं और आप साहित्य या संगीत से जुड़े हैं तो कोशिश करिए की उसे सभी के समझने लायक बनायें और यकीन मानियें ऐसा आप उसकी क्वालिटी को गिराए बिना भी कर सकते हैं।
फर्रुखाबाद हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का घराना है और ठुमरी के बड़े विशेषज्ञ स्व० ललन पिया की भूमि भी रही है।
आज ललन पिया जन्मतिथि है और शास्त्रीय संगीत का एक कार्यक्रम शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में था। आज की तारीख में शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में लोग कितनी रूचि लेते हैं इस पर तो किसी को गलतफहमी नहीं होनी चाहिए मगर लोगों की कुछ बातें दिल को गहरा दर्द दे गयीं तो आप सब से बाँट रहा हूँ। और यह समस्या सिर्फ आज के कार्यर्क्रम की नही कई जगह की है
एक सामान्य श्रोता को नही पता कि भैरवी और खमाज में क्या फर्क है अगर आप एक ही ताल में एक ही जैसी चीज़ सुनाये जा रहे हैं तो सामान्य आदमी के लिए वह एक बोरिंग रिपीटेशन से ज्यादा कुछ नही है।क्या सूफी, ग़ज़ल, कुछ अच्छे भजनों के साथ मिलाकर यदि कुछ विशुद्ध शास्त्रीय कार्यक्रम भी पेश किये जाएँ तो मेरा ख्याल है एक सामान्य व्यक्ति अपने आप को वहां फंसा हुआ नही पायेगा।
दूसरी समस्या मुझे शुद्धतावाद के नाम से होती है, क्या करेंगे हम शुद्धता का जब विधा ही लुप्त हो जाएगी।कभी पंडित रविशंकर को किसी विदेशी कार्यक्रम में बजाते सुनिए, वो इतनी तेज़ी से और आकर्षक ढंग से शुरू करते थे कि सुनने वाला एक पल के लिए चौंकजाता और फिर बिना सुने नही रह पाता था। ऐसा ही कुछ उस्ताद राशिद खान, अमज़द अली खान और शुभा मुद्गल की प्रस्तुति में भी होता है।
शुद्धता की इसी बीमारी ने हिंदी को हास्यास्पद बना डाला है। और सही भी है जब ट्रेन के स्थान पर लौहपथ गामिनी अग्नि रथ शब्द की बात करी जाये तो ना हंसने वाले के साथ निश्चित ही समस्या होगी। ठीक वैसे ही हनी सिंह के गाने सुनने के आदी लोगों को एकदम से 3 घंटे बैठाकर के ख्याल सुनाकर उनकी संगीत में रूचि पैदा करने की कोशिश भी कितनी कारगर है हमें सोचना चाहिए।
आज के तथाकथित बड़े बड़े लेखक साहित्यकार ऎसी हिंदी की कहानियाँ, कविता लिखते हैं जिन्हें समझने के लिए साहित्यिक अल्फा-बीटा, थीटा आदि की ज़रुरत पढ़ती है और अगर किसी का लिखा ज्यादा लोगों को समझ आजाये तो उसका साहित्य की बिरादरी से हुक्का पानी बंद हो जाता है और अंत में रोना पीटना होता है,
"साब आजकल हिंदी को कोई पूछता नही, क्लासिकल को तो कोई सुनना नही चाहता"।
सच बात तो यह है कि लोग सुनाना नही चाहते।
मैंने लगभग हर कवि सम्मलेन में देखा है और आज यहाँ भी देखा कि परफॉरमेंस से पहले कई बड़े कलाकार अपनी फोटो खिंचवाने में लगे रहते हैं और अपना काम निपटते ही उन्हें कोई अर्जेंट काम याद आ जाता है। जब आप खुद ही अपने साथी को सुनना नही चाहते हो हमें काहे सुनने को बोल रहे हो भाई। हमारा सन्डे क्या सन्डे नही है क्या?
बड़ा बुरा लगता है जब कई निस्वार्थ रूप से समर्पित लोगों के कई प्रयासों पर कुछ गलत परम्पराएँ हावी हो जाती हैं।
इन सारी चीज़ों ने इस देश को और इसकी बौद्धिक विरासत को काफी नुक्सान पहुँचाया है। बड़ी ग्लानी होती है जब यह कहना पड़ता है कि फर्रुखाबाद घराने का अब कोई भी फर्रुखाबाद में नही है। मुझे अन्दर से लगता भी है ये सूरत बदलनी भी चाहिए किन्तु इस तरह की हरकतों से(जो आज के कार्यक्रम में देखीं) तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी के मन में अपने साहित्य और शास्त्रीय संगीत के प्रति एक खौफ पैदा कर रहें हैं।
अगर आप इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं और आप साहित्य या संगीत से जुड़े हैं तो कोशिश करिए की उसे सभी के समझने लायक बनायें और यकीन मानियें ऐसा आप उसकी क्वालिटी को गिराए बिना भी कर सकते हैं।