गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

हैदर यानी सीरियस सिनेमा की छीछालेदर?


अगर मै लेफ्टिस्ट नही हूँ तो मै आर्टिस्ट नही हूँ। विशाल भरद्वाज के यही शब्द थे जो मैकबेथ की चुडैलों की तरह मेरे ऊपर छाए रहे और to be or not to be के द्वन्द मे फंसे रहने की जगह फिल्म देख ही ली। हैदर की पब्लिसिटी इसके एन्टी नेशनल और सेना के खिलाफ होने को लेकर की जा रही है और औसत स्तर की सफलता से ज्यादा विशाल भरद्वाज के अरुंधती रॉय स्कूल ऑफ़ थॉट्स वाले बयानों ने लगभग हर बौधिकनुमा व्यक्ति को इसके बारे में चर्चा करने को बाध्य किया है।
मेरे लिए हैदर की दो स्तर पर चर्चा अनिवार्य है।
पहली एक फिल्म के रूप में और दूसरी इसकी भावना को लेकर।

अगर फिल्म की बात करें तो जब हैदर अपने पिता की मौत का बदला लेने की कसम खाता है और कहता है की वो रामाधीर सिंह की कह के लेगा और अपनी प्रेमिका से कहता है एक बार जो मैंने कमिटमेंट कर दी तो.......?

क्या हुआ?

आप को जो लगा वही मुझे भी लगा जब 'हमरा फैजल' की जगह बार-बार 'बेटा हैदर!आँख में गोली मारना' डायलाग सुना।

हैदर को भले ही वर्ल्ड सिनेमा देखने वालो के लिए कश्मीर समस्या पर नयी नज़र डालने वाली फिल्म कहा जा रहा हो मगर इसे देखते हुए आप को शिंडलर लिस्ट या एस्केप फ्रॉम सोबिबोर याद नही आएगी, वो तो छोड़िये बैंडिट क्वीन में जिस बदले के जूनून और आग को दिखाया गया है उसका 10-20%  भी फिल्म में नही दिखाया गया है। यदि आप भी इस मुगालते में हैं कि इससे पहले कभी सेना और मानवाधिकार वाला मुद्दा किसी फिल्म में नही उठाया गया है तो इन्ही मेनन साहब की *शौर्य* देखिएगा।


इंटरवल के बाद हद से ज्यादा धीमी होती फिल्म में एक mla के इशारे पर लड़ती सेना की टुकड़ियाँ देख कर तो आश्चर्य तो होता ही है। आतंकी मुठभेड़ के बीच आम लोगों का आते जाते रहना भी हड़ता है। कश्मीरियों का मज़ाक उड़ाते उच्चारण वाली लड़की जो एक लाइन भी सही अंग्रेजी नही बोल पाती है एक अंग्रेजी अखबार के लिए आर्टिकल लिखा करती है।और 1995 में सलमान खान के फैन(वैसे तो यह फैन वाली प्रथा 'तेरे नाम' के बाद शुरू हुई) तुरंत की हिट 'हम आपके हैं कौन' को छोड़ कर 'मैंने प्यार किया' लेकर ही अटके होते हैं। इन सब के बीच कहानी की विद्या बागची की तरह पिता को ढूंढते हुए हैदर बदले और इंतकाम में फँस जाता है। फिल्म का कश्मीर समस्या से जोड़ना एक चुत्स्पा भर लगा।(यह शब्द फिल्म देख कर ही समझ आएगा)

यह आज़ादी की कहानी नही बल्कि बदले की कहानी है और इसका बैक ड्राप कश्मीर की जगह कुछ और भी होता तो खास फर्क नही पड़ता। (कुछ जगहों पर फिल्म में मणिपुर की घटनाओं को कश्मीर का बता कर पेश भी किया गया है)

हालाँकि फिल्म के क्राफ्ट में हैदर से कुछ ज्यादा निराशा इस वजह से हुई क्योंकि मैंने इसे 'बैंग-बैंग' से अलग सीरियस सिनेमा समझ कर देखा। मगर इससे अलग एक दूसरी समस्या है फिल्म के साथ, जिस रूप में फिल्म को प्रोजेक्ट किया जा रहा है वह सही नही है। दिक्कत हैदर में अस्फ्पा की बात को लेकर नही है ना सेना की नकारात्मक छवि को लेकर। सिस्टम के स्याह पक्ष को दिखाने वाली 'प्रहार, शौर्य धूप जैसी फिल्में पहले भी आती रहीं है मगर यहाँ ये ब्रांडिंग सिर्फ फिल्म बेचने के लिए है।

फिल्म का मूलसन्देश हिन्दुस्तान और गाँधी के पक्ष में जाता है मगर फिल्म सेना को एक विलेन के रूप में दिखाती है वो भी बिना ठोस तर्कों के, मसलन आतंकवादी रूह्दार का किरदार इरफ़ान खान के पास है जो अपने शांत और शायराना अंदाज़ में दिल जीतते हैं पर आर्मी ऑफिसर का रोल, विलेन की इमेज लिए हुए आशीष विद्यार्थी के पास है। तीन आतंकवादी बुड्ढों का मजे से गाना गाते हुए कब्र में लेटना और दर्शन की बातें करना उनके लिए मन में सहानुभूति और रोमांस पैदा करता है। फिल्म की शुरुआत में यह मानने को कहा जाता है कि यह 1995 की कहानी है मगर कपड़ों से लेकर सेना की गाड़ियाँ, हथियार सब 2010 के बाद के हैं और एक बेसिक फ़ोन के अलावा ऐसी कोई चीज़ नही जो 1995 के साथ जुडती हो, जिससे एक आम दर्शक यही इमेज लेकर बाहर निकलता है कि कश्मीर में हालत आज भी यही हैं।

आज के दौर में सीरियस सिनेमा को भी बाज़ार के रूप में पकड़ कर utv जैसी कम्पनियाँ हिन्दी सिनेमा की क्रिएटिविटी को ख़त्म करती जा रही हैं और क्रिएटिविटी और क्लास सिनेमा का स्कोप हिंदी सिनेमा से खतम हो रहा है। पिछले साल आई भाग मिल्खा भाग को भी क्लासिक का दरजा दे दिया गया जबकि उसमे फरहान अख्तर से ज्यादा उनके ट्रेनर की मेहनत दिखाई दी थी। वहीँ धनुष की राँझना को ज़बरदस्ती दुसरे हाफ में खींच कर एक अच्छी भली फिल्म को औसत दर्जे की फिल्म में बदल दिया गया।

अगर आप को मेरे तर्क पर विश्वास ना हो रहा हो तो याद करके बताइए विकी डोनर, वासेपुर, कहानी जैसे एक दो नामों के अलावा ऐसी कितनी फिल्में हैं जिन्हें आप आज की तारिख में एक बार फिर देख सकते हैं।

विशाल भरद्वाज के कश्मीर प्रवचनों और प्रोडक्शन हाउस की क्रिएटिविटी के लिए एक बार तो हैदर देख सकते हैं वैसे दोबारा देखने का रिस्क इसे क्लासिक कहने वाले लोग उठाएंगे की नही पता नही।


हाँ! फिल्म के गाने और लिरिक्स अच्छे हैं ख़ास तौर पर बिस्मिल बुलबुल वाला, बस फिल्म के बीच में क़र्ज़ के एक हसीना थी की तरह इस्तेमाल नही होता तो और अच्छा लगता।

2 टिप्‍पणियां:

  1. "मैं वामपंथी नहीं तो कलाकार नहीं" कहने वाले विशाल भारद्वाज साहब इतना तो समझते ही होंगे कि यहाँ वामपंथी व्यवस्था भी होती तो आपको यह कलाकारी दिखाने का मौका ही नहीं मिलता। फिल्म में विशाल को केवल हैदर और उसके परिवार के प्रति दर्शकों में सहानुभूति पैदा करनी थी और इसके लिए वे किसी भी हद तक चले गये हैं। यहाँ तक कि कुछ जगहों पर उन्होंने महत्वपूर्ण तथ्यों को या तो गोल कर दिया है या उन्हें तोड मरोड कर पटक दिया है।सबसे ज्यादा गुस्सा तब आता है जब एक आर्मी अफसर से ही कहलवाया गया है कि देखो हम तुम कश्मीरियों के साथ कितना बुरा कर रहे हैं और हमने कैसे तुम्हारे साथ वादाखिलाफी की यूएन के करार तोडकर ।और भारत और पाकिस्तान दोनों ने कश्मीर से सेनाएँ नहीं हटाई। जबकि सच यह है कि उस करार में भी पहले पाकिस्तान द्वारा डीमिल्ट्राईजेशन की बात है जबकि भारत को कानून व्यवस्था बनाएं रखने के लिए एक हद तक वहाँ सेना रखने की छूट है। और वैसे भी शिमला समझौते के बाद जनमतसंग्रह वाली बात पुरानी हो चुकी है। पर विशाल का मकसद भारत का भी पक्ष रखना है ही नहीं।वो क्यों नहीं बताते कि भारत ने 1988 से पहले वहाँ एक भी गोली नहीं चलाई?क्यों नहीं बताते कि कैसे कश्मीर की आबादी के एक हिस्से ने खुद धर्म के नाम पर हथियारबंद आंदोलन को सपोर्ट किया था? एक बूढ़े से थोड़ी लिप सर्विस जरूर करवाई गई है पर वहाँ भी समर्थन आजादी का ही?
    खैर क्यों न हो विशाल को शायद लगता होगा कि भारत से अलग होकर गिलानी साहब और उनके समर्थक वहाँ जरूर वामपंथी व्यवस्था ही लागू करेंगे ।
    अफ्सपा से बड़ा आतंकित है विशाल। लेकिन यहाँ भी बताना चाहिए कि क्या वहाँ स्थानीय पुलिस और प्रशासन स्थिति को फिर से बिगडने नहीं देंगे?
    और ये कानून तो वहाँ अलगाववादियों की हमदर्द सरकार की वजह से ही है। वर्ना राज्य सरकार ने जिन इलाकों को अशांत घोषित कर रखा है उन्हें शांत घोषित कर दे। वहाँ फिर अफस्पा लग ही नहीं सकता। फिर तो सेना भी अपने जवानों के हाथ बांधकर उन्हें मरने के लिए नहीं भेजेगी। पर ये सब तथ्य विशाल को क्यों बताने हैं। उन्हें तो बस चुत्स्पा करना है।
    और हां विशाल जी। कला के नाम पर कुछ भी नहीं चल जाता है यदि कोई कुछ बोल नहीं रहा तो। मां बेटे के बीच के भावुक दृश्यों को तो कम से कम द्विअर्थी बनाने की कोशिश न किया करें। नजरों का दोष जैसा घिसा पिटा बहाना मारा जा सकता है पर दर्शक आपकी नियत महसूस कर लेता है। ऐसे दृश्य असहज कर जाते हैं पर कोई कुछ बोल नहीं पाता पर मैंनें बोल दिया है ठीक है?

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