शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

इश्क़ में और इश्क के होने का अहसास, पढ़ कर देखिये

इश्क़ तुम्हे हो जाएगा, इस किताब का ज़िक्र करने की कई कोशिशें नाकाम रहीं।हर बार लगता कि थोड़ा सा और डूब कर देखूं थोड़ा और बारीकी से समझूँ।


एक समस्या और आती है, न सिर्फ मेरे और अनुलता जी के नाम के पहले दो अक्षर एक जैसे हैं कई जगहों पर नज्मों को बुनने का सलीका और तरीका भी एक जैसा है।

खैर!,,,,,

सबसे सुकून देने वाली किताबें वो होती हैं जिन्हें हम पीछे से पलटना शुरू करते हैं और जब बैक कवर पर आप पढ़ते हैं की

तुम पर लिखी नज्मों की स्याही से रंगे हुए हैं हाँथ मेरे
तुमसे इश्क़ का सीधा इलज़ाम है मुझपर
एक सजा ख़त्म हो तो नयी नज़्म लिखूं ,

तो ये किताब भी डबलबेड के सिराहने रखने वाली किताब बन जाती है।पापा के लिए लिखी गयी कविता अनजाने ही मन को थोड़ा सा तरल कर देती है। चिता में प्रेमपत्र जलाकर यादों का पिंडदान करने की बात एक अलग nostalgia का अहसास लिए है तो सुबह हरसिंगार के फूल चुनती वो खुद ही चाँद है पढ़ कर जलन सी होती है दिल में काश! हमने भी ऐसा सोचा होता कभी।

इस किताब को पढने से पहले कहा गया था कि इसे ख़ामोशी से पढोगे तो इश्क तुम्हे हो जायेगा और हो भी गया। वही 7 मकामों वाला इश्क गुलज़ार का हल्का हलका नमकीन वाला इश्क या ग़ालिब का दिले नादां वाला इश्क़।

आप भी कुछ टुकड़े इस इश्क के चखिए और रूमानी होकर देखिये।

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सो लौटा दिया मैंने वो तूफ़ान वापस समंदर को
बस रह गए कुछ मोती, अटके मेरी पलकों पर
जो लुढ़क आते हैं गालों तक
कि नाकाम इश्क़ की निशानियाँ भी कहीं सहेजी जाती हैं।

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तुमने कहा
मेरी आँखों में बसी हो तुम
मैंने कहा
कहाँ? दिखती तो नही
तुमने कहा
दिल में उतर गई
अभी-अभी

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न मोहब्बत
न नफरत
न सुकून
न दर्द
कमबख्त कोई अहसास तो हो
एक नज़्म लिखे जाने के लिए।

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वहम
शंकाएँ
तर्क-वितर्क
ग़लतफहमियाँ
सहमे अहसास
लगता है मोहब्बत को
रिश्ते का नाम मिल गया।
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ये तो चन्द अहसास हैं बाकी के लिए आप भी पिछली तरफ से पन्ने पलटना शुरू करिए।
©अनिमेष


रविवार, 17 अगस्त 2014

कृष्ण अर्थात कष्ट में रह कर इंसान बने रहना

कृष्ण अर्थात, जिसकी हत्या की ज़िम्मेदारी खुद  उसके पिता ने उसके जन्म से पहले ही ले रखी हो।

कृष्ण अर्थात, जिसे पैदा होते ही बाढ़ में उफनती नदी पार करनी पड़ी हो।

कृष्ण अर्थात, जिसे बचपन से ही जिसे रोज मार दिए जाने के खतरे से जूझना पड़ता हो।

कृष्ण अर्थात, जिसे देह के रंग के भेदभाव से रोज़ चिढाया जाता हो।

कृष्ण अर्थात, 12 साल की उम्र में सत्ता से सीधा टकराव।


कृष्ण अर्थात, 16000 शारीरिक शोषण की मारी लड़कियों को संरक्षण देना, दासी नही रानी के रूप में और वो भी बिना अग्निपरीक्षा लिए।

इन सबके बाद भी वो नटखट, सलोने बने रह पाते हैं। बाँसुरी पर ललित, मालकोंस, भैरवी के आलाप के लिए समय निकाल पाते हैं। श्रीदामा की बांह पकड़कर उसे धमका भी लेते हैं। यशोदा के सामने भोले बनकर दाऊ की शिकायत करते हैं और नन्द से सवाल भी पूछ लेते हैं-
"बिना कारण इंद्र की पूजा क्यों बाबा"?
किताबों के ढेर को ज्ञान समझने वाले ऊधव को बड़े मज़े से ढाई आखरों का महत्त्व समझाने वाले माधव अपनी ही बहन को उसकी जबरदस्ती की arrange marriage तुड़वा कर उसे जाने देते हैं, उसके crush के साथ।

महाभारत के तीरों और दिव्यास्त्रों के बीच यूँ ही बिना किसी सुरक्षा और हथयार के मुस्कुराते हुए आते जाते कृष्ण जिस ऊंचाई से गीता के उपदेश देते हैं उसी तत्परता से रथ में जुटे घोड़ों को भी सहलाते हैं।

कृष्ण होना अर्थात पत्तल उठाने और सम्मानित होने में भेद ना करना।कृष्ण होना अर्थात जिस दुशासन को पूरी सभा न रोक पाई हो वो सिर्फ कृष्ण का नाम लेने से डर कर रुक जाए।कृष्ण होने का अर्थ है हर विषमता और ईश्वरत्व के बाद भी मानव बने रहना।

अतः जब कभी भी कहें कि वो करें तो रासलीला हम करें तो.....
तो एक बार फिर से सोचें।

जाते जाते स्वर्गीय देवल आशीष की कुछ अमर पंक्तियाँ-


विश्व को मोहमयी महिमा के असंख्य स्वरुप
दिखा गया कान्हा,
सारथी तो कभी प्रेमी बना तो
कभी गुरु धर्म निभा गया कान्हा,
रूप विराट धरा तो धरा तो धरा हर लोक पे छा गया कान्हा,
रूप किया लघु तो इतना के यशोदा की गोद में आ गया कान्हा,
चोरी छुपे चढ़ बैठा अटारी पे चोरी से
माखन खा गया कान्हा,
गोपियों के कभी चीर चुराए
कभी मटकी चटका गया कान्हा,
घाघ था घोर बड़ा चितचोर था चोरी में नाम कमा गया कान्हा,
मीरा के नैन की रैन
की नींद और राधा का चैन चुरा गया कान्हा,
राधा नें त्याग का पंथ बुहारा तो पंथ पे फूल बिछा गया कान्हा,
राधा नें प्रेम की आन निभाई तो आन का मान बढ़ा गया कान्हा,
कान्हा के तेज को भा गई राधा के रूप को भा गया कान्हा,
कान्हा को कान्हा बना गई राधा तो राधा को राधा बना गया कान्हा,
गोपियाँ गोकुल में थी अनेक परन्तु गोपाल को भा गई राधा,
बाँध के पाश में नाग नथैया को काम विजेता बना गई राधा,
काम विजेता को प्रेम प्रणेता को प्रेम पियूष पिला गई राधा,
विश्व को नाच नाचता है जो उस श्याम को नाच नचा गई राधा,
त्यागियों में अनुरागियों में बडभागी थी नाम लिखा गई
राधा,
रंग में कान्हा के ऐसी रंगी रंग कान्हा के रंग
नहा गई राधा,
प्रेम है भक्ति से भी बढ़ के यह बात
सभी को सिखा गई राधा,
संत महंत तो ध्याया किए माखन चोर को पा गई राधा,
ब्याही न श्याम के संग न द्वारिका मथुरा मिथिला गई राधा,
पायी न रुक्मिणी सा धन वैभव
सम्पदा को ठुकरा गई राधा,
किंतु उपाधि औ मान गोपाल की रानियों से बढ़ पा गई राधा,
ज्ञानी बड़ी अभिमानी
पटरानी को पानी पिला गई राधा,
हार के श्याम को जीत गई अनुराग का अर्थ बता गई राधा,
पीर पे पीर सही पर प्रेम
को शाश्वत कीर्ति दिला गई राधा,
कान्हा को पा सकती थी प्रिया पर
प्रीत की रीत निभा गई राधा,
कृष्ण नें लाख कहा पर संग में न गई तो फिर न गई राधा.

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

बिहार में एक कहावत है "औकात चवन्नी भर का भी नाहीं अउर भोकाल डालर भर का" इसी के समांनांतर एक शब्द up के पूर्वी अंचलों में प्रचलित है चुतिअमसल्फेट, इन दोनों शब्दों को यहाँ पर प्रयोग करने के पीछे मेरा क्या आशय है उसे समझने के लिए स्कूल के दिनों से जुडी एक घटना सुनिए।

गुरूजी ने कहा "सूरदास तब विहंसी जसोदा लै उर कंठ लगायो" इस पंक्ति की व्याख्या करो-

छात्र बोला "सर! सूरदास जी ने खुश होकर के यशोदा को गले से लगा लिया"

अब आप सोच रहें होंगे इन बातों का आपस में सम्बन्ध क्या है? और इन बातों को आज यहाँ कह्मे का तुक क्या है?

तो जनाब ये चवन्नी भर वाले लोग हैं हमारे कई फेसबुकिये राष्ट्रवादी साहित्यकार और जिस कविता की वो व्याख्या कर रहे हैं वह है हमारा राष्ट्रगान। पिछले कुछ दिनों में मैंने कई लोगों को अपने अपने तरह से गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर और राष्ट्रगान का मजाक देशभक्ति के नाम पर उड़ाते देखा। और तर्क भी इतने हास्यास्पद और गए बीते कि कपिल शर्मा के शो में नारी अस्मिता का मज़ाक भी पीछे छूट जाये। एक सज्जन तो अपना लिखा हुआ नया राष्ट्रगान तक ले आये समाधान के तौर पर।पहले ज़रा तर्क सुनिये-


गरमपंथी तिलक के नेतृत्व में वन्देमातरम गाते थे और नरमपंथी जन गण मन और 1941 में तिलक ने जन गण मन का विरोध किया था।
जबकि तथ्य यह है कि तिलक जी की मृत्यु 1920 में ही हो चुकी थी।

नेहरू जी ने इसकी धुन बनवाई क्योंकि यह ऑर्केस्ट्रा में बज सकता था।
वास्तविकता यह है कि इसकी धुन आज़ाद हिन्द फौज के लिए कप्तान राम सिंह जी ने बनायीं और इसे मिलिट्री बैंड के लिए चुना गया था।

इसको बनाने के कारण टैगोर जी को नोबेल मिला। जबकि गुरुदेव के नोबेल पुरूस्कार के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने खुद अपनी रचनाओं का अनुवाद किया जिससे उनका स्तर बना रहा।

और ब्रम्हास्त्र टाईप का तर्क कि यह जॉर्ज पंचम का स्तुति गान है।तो बाकी बातें छोड़ कर सीधे सीधे आते हैं राष्ट्र गान की बात पर।

राष्ट्रगान के ऊपर एक विशेष आरोप लगता है कि यह जॉर्ज पंचम की स्तुति है।
किन्तु यह आरोप तय करते समय हम इसके पूरे गीत को न लेकर सिर्फ पहले बंध की ही व्याख्या करते हैं।
अगर पूरा जन गण मन पढ़ें तो पायेंगे कि यह कुरुक्षेत्र में खड़े कृष्ण का आवाहन है कि वह देश के सोये हुए अर्जुनों को जगाएं।

मेरे लिए इस समय पूरे राष्ट्रगान की व्याख्या लिखना संभव नही है परन्तु इसमें आये दो शब्द चिर-सारथि और तव शनख्धवनि बाजे से आप इश्वर के साथ इसका सम्बन्ध जोड़ सकते हैं।

जाते जाते महाकवि टैगोर के बारे में दो बातें
जो शायद आप की जानकारी में ना हो जिस बंद गले के कोट को आप भारतीयपन दिखाने के लिए पहनते हैं वह इन्ही की डिजाईन है और भारतीय स्त्रियाँ पहले साड़ी के साथ ब्लाउज नही पहनती थीं यह चलन भी इन्ही के प्रयासों से शुरू हुआ। और इसका विरोध आज जीन्स या मिनी स्कर्ट पहनने से ज्यादा हुआ था।


साथ ही सम्पूर्ण राष्ट्रगान और डॉ शिवोम अम्बर की किताब गवाक्ष का एक लेखांश

जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा
द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे
तव शुभ आशिष मागे
गाहे तव जय गाथा
जन गण मंगल दायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे
अहरह तव आह्वान प्रचारित
शुनि तव उदार वाणी
हिन्दु बौद्ध शिख जैन
पारसिक मुसलमान
खृष्टानी
पूरब पश्चिम आशे
तव सिंहासन पाशे
प्रेमहार हय गाँथा
जन गण ऐक्य विधायक जय हे
भारत भाग्य विधाता
जय हे जय हे जय हे
जय जय जय जय हे
अहरह:
निरन्तर; तव:
तुम्हारा
शुनि: सुनकर
आशे: आते हैं
पाशे: पास में
हय गाँथा:
गुँथता है
ऐक्य: एकता
पतन-अभ्युदय-बन्धुर-पंथा
युगयुग धावित यात्री,
हे चिर-सारथी,
तव रथचक्रे मुखरित पथ दिन-रात्रि
दारुण विप्लव-माझे
तव शंखध्वनि बाजे,
संकट-दुख-त्राता,
जन-गण-पथ-परिचायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
अभ्युदय: उत्थान;
बन्धुर: मित्र का
धावित: दौड़ते हैं
माझे:
बीच
में
त्राता:
जो मुक्ति दिलाए
परिचायक: जो परिचय
कराता है
घोर-तिमिर-घन-निविड़-
निशीथे
पीड़ित मुर्च्छित-देशे
जाग्रत छिल तव अविचल मंगल
नत-नयने अनिमेष
दुःस्वप्ने आतंके
रक्षा करिले अंके
स्नेहमयी तुमि माता,
जन-गण-दुखत्रायक जय हे
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
निविड़: घोंसला
छिल: था
अनिमेष: अपलक
करिले: किया; अंके:
गोद में
रात्रि प्रभातिल उदिल रविछवि
पूर्व-उदय-गिरि-भाले,
गाहे विहन्गम, पुण्य
समीरण
नव-जीवन-रस ढाले,
तव करुणारुण-रागे
निद्रित भारत जागे
तव चरणे नत माथा,
जय जय जय हे, जय राजेश्वर,
भारत-भाग्य-विधाता,
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे
- रवीन्द्रनाथ ठाकुर

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

क्योंकि गुलज़ार बस गुलज़ार हैं

गुलज़ार साहब पर लिखना ज़रूरी है।
इसलिए भी कि उनका जन्मदिन आ रहा है,
इसलिए भी कि "oh hindi!" जैसे जुमलों के बीच वो चुपके से ज़री वाले आसमान से हो कर हिंदी गीत के लिए ऑस्कर ले आते हैं,

इसलिए भी कि 'पिछले पन्ने' में लिखे गए उनके संस्मरण साहिर, जादू और गोरख पाण्डेय को जिंदगी का हिस्सा सा बना देते हैं, और इसलिए भी कि दिमाग घर पर रखकर देखी गयी साज़िद खान की हमशक्ल के टॉर्चर के बीच उनकी अंगूर की errorless comedy याद आती है,

इसलिए भी बड़ी गंभीर सी कोई नज़्म समझाते समझाते अचानक वो रटवा देते हैं कि "चड्डी पहन के फूल खिला है", और इसलिए की चार बोतल वोडका के बाद एक ही चीज़ नाचने को मजबूर करती है "सपने में मिलती है कुड़ी मेरी।"

कभी जिगर से जलती बीड़ी, कभी नमक इश्क़ का तो, कभी "लटों से उलझी-लिपटी रात हुआ करती थी" या फिर कभी "बैठें हैं तस्सुवरे जाना किये हुए" जैसे गीतों से हर बार प्रेम को एक नया रूपक देने के बाद भी शायद साहित्य के महाग्रंथों में भले ही इन गीतों को जगह ना मिले मगर आने वाले कई गीतकार, शायर, लेखक जिनमें चाहे आलोक श्रीवास्तव जैसे बड़े उम्दा नाम हों या मेरे जैसे बेहद मामूली और गुमनाम छात्र इनसे ही द्रोणाचार्य और एकलव्य की तरह तालीम लेते रहेंगे।

गुलज़ार साहब से दो चीजें मैंने भी सीखी है।
(ये नही पता अमल में कितनी आई)
घटनाओं के बीच में एक पल को जब दुनिया ठहर जाती है उस लम्हे को शब्दों में कैद करना, जैसे वो
कहते हैं
"फितूर है मेरा मगर फिर भी
मोहल्ले वालों की नज़र बचाकर
उस खम्बे से पूछा करता हूँ,
मेरे जाने के बाद वो आई थी क्या"?

या घर के किसी भी कोने से कोई शब्द उठा कर उसे एक ताज़ा नज़्म बना देना, वरना रिक्शा, सीली सीली रात, बीड़ी और चिमटा को शायद ही कभी कविता में कोई और गीतकार जगह देता।


खैर जब किसी ने मेरी कविता
"वक्त तुम्हारे संग
मखमल सा गुज़रता है,
कुछ पुराना सामान है घर में
हटा लूं, तो यही बसा लूं तुम्हे"

या

"बाढ़ पैरों से बहाकर लगई
तान के छतरी खड़े से रह गये"

पढ़ कर पूछा कि, गुलज़ार को पढ़ कर लिखा है?
तो जो अहसास हुआ उसे बयाँ नही कर सकता।

शुक्रिया गुलज़ार साहब हम सबको गुलज़ार करने के लिए।

बुधवार, 6 अगस्त 2014

प्राण चाचा चौधरी और हम

दूरदर्शन पर शक्तिमान और कैप्टेन व्योम के आने से पहले गर्मी की छुट्टियों में दो चीज़ें हर बच्चे के लिए ज़रूरी थीं एक छुट्टी छुट्टी प्रोग्राम और दूसरा किराए की कॉमिक्स, यकीन मानिए अगर 80-90 के दौर के किसी बच्चे ने कॉमिक्स नही पढ़ी तो उसने बचपन नही बचपना ही देखा है।
इन कॉमिक्स में हमारी पसंद ध्रुव और नागराज होते थे और घर वालों के चाचा चौधरी।

चाचा चौधरी और साबू के साथ पढ़ते सीखते अखंड ज्योति, नंदन, बालहंस हाथ आई और देखते ही देखते कादम्बिनी समझ में आने लगी।

ग्लोबल होती दुनिया ने प्रेमचंद से इतर किसी को शेखर एक जीवनी की लत लगायी तो किसी को नरेन्द्र कोहली की रामकथा की, अलकेमिस्ट के साथ अंतर्राष्ट्रीय हुए ना जाने कितने पाठक आज फेस्बुकिये कलमकार से लेकर युवा साहित्यकार बन चुकें हैं।

आज के समय में कार्टून में शिन्चैन जब अपनी माँ को ऐ बुढ़िया कह कर बुलाता है या क्लास 11-12 के बच्चे स्कूल के पुस्तकालय से 11 मिनट्स या ट्वाईलाईट सागा की मांग करते हुए 50 शेड्स ऑफ़ ग्रे की हसरत लिए दीखते हैं तो ऐसा लगता है हमसे ठीक पहले और हमने कुछ ऐसा छोड़ा ही नही है कि हमारी अगली पीढ़ी बचपन से थोडा थोडा कर के अपनी आत्मा, अपनी जड़ों से जुड़ सके।

हालांकि प्राण और चाचा चौधरी दोनों ही रिटायरमेंट के दिन काट रहे थे मगर आज प्राण साहब के जाने के बाद अब कोई नही है जो सरल और क्रिएटिव रहते हुए भी रोचक रहे और देसी भी। जिसकी कहानियों में ना बैटमैन की तरह ना खौफ की चादर हो ना सुपरमैन की तरह रोज रोज दुनिया ख़त्म होने की झिकझक।आज के लगभग सभी युवा रचनाकारो के पढने की शुरुआत यहीं से हुई है मगर फिर भी जब शाम को टीवी पर
इन सबके ऊपर कोई कवरेज नही दिखती, कभी किसी सम्मान के लिए प्राण साहब का नाम नही सुनाई पड़ता तो अहसास होता है ये सब बातें तो पिछली सदी की थीं और हिंदी की थीं तो out of date हो चुकी हैं।

मगर इन सब के बाद भी प्राण अंकल थैंक्यू!मेरी गर्मी की छुट्टियों को कई सालों तक इंटरेस्टिंग बनाने के लिए। I will really miss you.

रविवार, 3 अगस्त 2014

परसों से दो दिन पहले

बात दोस्ती के लाइफ साइकिल की,

कैसे शुरू में सीक्रेट बता कर बाद में 'कहना मत' का भरोसा लेने वाली दोस्ती 7 बजते ही अपने आप 2 कप चाय मंगवाने वाली रोज़ की मुलाकात में बदलती है और फिर फेसबुक के पन्नों से लटकती तस्वीर में बदल जाती है।

गौर फरमाइए


        

ये बात

 

परसों से दो दिन पहले की ही तो है

 

जब,

 

रोज़ के सुनसान चेहरे से हट कर

 

एक रोज़

 

डरी डरी सी मुस्कान दी थी तुमने,

 

और फिर बातों बातों में


 पता चला कि,

 

'कागज़ के फूल' तुम्हे भी पसंद हैं

 

और अमृता से 'रसीदी टिकट'

 

तुमने भी ले रखा था

 

हर इतवार,

 

नुक्कड़ की जलेबी के साथ छनकर

 

कई किस्से मीठे हुए

 

मगर पिछले मोड़ पर जब

 

रास्ते घूमे

 

तो,

 

घर तक का सफ़र

 

कुछ तनहा सा हो गया था,

 

अब जब कभी खिड़की से

 

बाहर झांक लेता हूँ

 

तो,

 

उन गलियों में कतरा कतरा,

 

हम दोनों को छूटा सा पता हूँ



1- कागज़ के फूल -> गुरुदत्त वाली

2-अमृता प्रीतम की किताब रसीदी टिकट

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

एक ख़त का आना

लिखने के कई फायदे हैं इनमे सबसे बड़ा साइड बेनिफिट् है कि अनजान लोग अचानक से आकर आप से कुछ ऐसा कह जाते हैं कि उससे मिलने वाली ख़ुशी कभी कभी बॉस के दिए सैलरी इन्क्रीमेंट से भी नही मिलती।



10 फरवरी को प्रणय पर्व् (वैलेंटाइन डे) के उपलक्ष्य में दैनिक जागरण ने मेरी दो छोटी सी कवितायेँ पुनर्नवा में छापी।

इसके बाद कई लोगों के ख़त आये जो मन को छु गए और जो अंकल अक्सर कहा करते थे, "बेटा! इन सब की कोई वैल्यू नही है ।" वो अब ज़रा कम मिला करते हैं।

खैर 6 महीने के बाद अचानक से एक ख़त आज फिर आया और ख़त पढने के बाद दिन भर की सारी थकान और टेंशन गायब हो गयी।


नीरज कुमार गौतम जी के लिखे इस पत्र की शैली और भाषा किसी भी श्रेष्ठ कविता से कम नही है और अगर आप को लगता हो की ढंग का लेखन सिर्फ फेसबुक पर ही बचा है तो कृपया इस पत्र को पढ़ कर एक बार फिर से विचार करिए।



जाते जाते वो दो कवितायेँ भी दे दे रहा हूँ।


सुरमई से आकाश में

तुम्हारी बातों की

ये नादान मिलावट,

मानों,

कृष्ण की बांसुरी पर

राधिका के नूपुरों ने

ताल दी हो।




स्कूल की नोटबुक के पीछे

एक नाम

लिखकर के काटा था,

आज नन्ही बिटिया को

उसी नाम से पुकारता हूँ।