रविवार, 6 जुलाई 2014

आज फिर पहली बारिश है

खिड़की के शीशे पर
कुछ बारीक सी
बूंदों को फिसलते देखा
तो याद आया
साल गुज़र आया है
अब उस पहली बारिश को

सूखे गमले की मिटटी था मन
जब कुछ बूंदों ने
दहका दिया था अचानक

कई शब्द, शेर, जुमले, किस्से
तोड़े, जोड़े, उठा कर गढ़े
और अधूरे छोड़े,

उस नए अहसास को
बाँधने में हर रूपक
पुराना लगा था
चाँद का हर दाग भी
मीर के हर्फ़ सा
सुहाना लगा था।

फिर अचानक ही
चाय के प्याले से उंगलियों
को गर्म करते करते
वो नज़र मिलगयी
जिसने
एक मुस्कान को
एक धड़कन बना दिया।

आज फिर
वो पहली बारिश है
और बालकनी में
अखबार की लकीरों
में खोया नज़र उठाकर
ढूंढता हूँ कि
यहीं कहीं
और किसी और छत
के मुंडेर पर दो नन्हे अंकुर
खिल रहे होंगे

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