मंगलवार, 15 जुलाई 2014

अब दिल को अच्छा लगता है

अब ना तो
"लिखती हूँ ख़त खून से स्याही मत समझना
जैसे प्रेम पत्र लिखे जाते हैं,

ना ही कोई
आग का दरिया जैसी बातें करता है।

भले ही ये दिल एक मंदिर से
ग़ुस्ताख और बदतमीज़ हो गया हो
मगर
ये धड़कता आज भी है।
कोशिश की है आज के इश्क की बात करने की
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अब दिल को अच्छा लगता है



ना तीर ए नज़र चले
ना इज़हार ए इश्क हुआ
मगर
उसका आस पास होना
अब
दिल को अच्छा लगता है,



ना ही चाँद तारे दिए
ना कसमे वादे किये
मगर
एक पेन के बदले
शुक्रिया सुनना
अब
दिल को अच्छा लगता है,



ना मन्नतें की कोई
ना मांगी दुआ कोई
मगर
रोज़ शाम मंदिर जाना
अब
दिल को अच्छा लगता है,



ना कोई तासीर बदली
ना कोई ख़वाब बदला
मगर
बंद कमरे में रेडियो सुनना
अब
दिल को अच्छा लगता है,



ना आरज़ू पाने की कुछ
ना रास्ता बढ़ने का है
मगर
कुछ किस्सों का
यूँ ही खिंचते जाना
अब
दिल को अच्छा लगता है



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