बुधवार, 11 जून 2014

बंदायू कांड और हम

बंदायू कांड या बलात्कार और हत्या की और जो कोई भी घटनाएँ सुनाई दे रही हैं वो व्यक्तिगत नही सामाजिक कुंठा का परिणाम है।
उत्तर प्रदेश में हो रही घटनाएँ किसी भी तरह से वासना या कुंठा की प्रतिक्रिया नही है।
यह तो अपने आप को सामाजिक ताने-बाने की पिरामिड में ऊपर दिखाने की कोशिश है।
राजनीतिक दलों को जातीय अस्मिता से जोड़ कर 20 सालों से जो तमाशा चल रहा था उसके टूटने (कारण छोड़ दीजिये) का सदमा कुछ समूह बर्दाश्त नही कर पा रहे हैं।
क्या होगा अगर नीची जाति का व्यक्ति भी संपन्न हो गया?
क्या इज्ज़त रहेगी की जिस इलाके में आज तक कोई दूसरी जाति का प्रत्याशी चुनाव लड़ने की हिम्मत नही कर सका था वहां से वोट भी पा जाये।
ये तो दबंग बनने का तरीका है।
अंग्रेज़ी में कहे तो boys night out
ये दशा दिल्ली केस से ज्यादा ख़राब है क्योंकि।
कुंठा व्यक्तिगत होती है और उसे सुधार सकते हैं मगर समाज का ये रूप दोबारा किसी बेहमई काण्ड को जन्म देगा।
हमारे समाज का सामने सामने शिष्ट मध्यवर्ग या कुख्यात खाप दोनों ही संस्कृति को बचाने की जब दुहाई देतें हैं तो उनका आशय सिर्फ अपनी झूठी इज्ज़त और जातीय ठसक को बनाये रखना होता है।
फर्क सिर्फ इतना है की बंदायू कांड को जिन्होंने अंजाम दिया वो कानून से डरते नही हैं और बाकि डरते हैं।
एक सवाल -
अगर उन दोनों बहनों की किसी पारिवारिक रिश्तेदार से आपकी शादी तय होने वाली होती तो कितनो के परिवार में शादी तोड़ने की बात नही होती।
बलात्कारी सिर्फ हिंसा करता है हम पीडिता को अपराधी बनाते हैं।

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